वर्षा ऋतु में आहार-विहार: सावधानियाँ और आयुर्वेदिक दृष्टिकोण

Update: 2025-07-03 07:23 GMT


डॉ. अशुतोष शुक्ला, आयुर्वेदाचार्य

वर्षा ऋतु में जहाँ एक ओर प्रकृति हरियाली की चादर ओढ़ लेती है, वहीं दूसरी ओर यह ऋतु शरीर के रोग प्रतिरोधक क्षमता को प्रभावित करती है। आयुर्वेद के अनुसार, वर्षा काल में वात दोष की वृद्धि होती है, पाचन अग्नि मंद हो जाती है और जलवायु में आर्द्रता (नमी) के कारण शरीर में कई विकार उत्पन्न हो सकते हैं। अतः इस ऋतु में आहार-विहार (खानपान और दिनचर्या) में विशेष सावधानी बरतना आवश्यक है।

आहार संबंधी सावधानियाँ (वर्षा ऋतु में क्या खाएं और क्या न खाएं)

क्या खाएं:

सुपाच्य और गर्म भोजन: मंद अग्नि को ध्यान में रखते हुए हल्का, गर्म और आसानी से पचने वाला भोजन करना चाहिए।

मौसमी सब्जियाँ और दलिया: लौकी, तुरई, परवल, टिंडा जैसी सब्जियाँ लाभकारी होती हैं। मूंग दाल और जौ (यव) का सेवन उत्तम माना गया है।

घी का सीमित उपयोग: गाय का घी वात को संतुलित करता है। इसे संयमित मात्रा में भोजन में मिलाना लाभकारी है।

हिंग, सौंठ, पिप्पली: पाचन को सुधारने वाले मसाले जैसे हींग, सौंठ और पिप्पली का प्रयोग करें।

उबालकर ठंडा किया गया पानी: जलजनित रोगों से बचाव हेतु पानी को उबालकर पीना चाहिए।

छाछ (तक्र): छाछ को सौंठ या काली मिर्च मिलाकर सेवन करना पाचन को बढ़ाता है।

क्या न खाएं:

दही और भारी खाद्य पदार्थ: दही, कढ़ी, पनीर और बेसन से बनी चीजें भारी होती हैं और कफ-वृद्धि करती हैं।

कच्चा सलाद और कटे फल: खुले में कटे फल और कच्चा सलाद जीवाणु संक्रमण बढ़ा सकते हैं।

अत्यधिक तैलीय, खट्टे और मीठे पदार्थ: ये अग्नि को मंद करते हैं और वात-कफ दोष को बढ़ाते हैं।

ठंडा पानी, कोल्ड ड्रिंक्स और आइसक्रीम: यह पाचन अग्नि को और कमजोर करते हैं।

विहार संबंधी सावधानियाँ (दिनचर्या और जीवनशैली)

क्या करें:

व्यायाम और योग: हल्का व्यायाम और प्राणायाम जैसे अनुलोम-विलोम, कपालभाति तथा वज्रासन लाभकारी हैं।

स्नान में गुनगुने पानी का प्रयोग: स्नान के लिए हल्के गरम पानी का प्रयोग करें, जिससे वात दोष नियंत्रण में रहे।

नीम और त्रिफला से स्नान: त्वचा रोगों से बचाव हेतु नीम पत्ती डालकर नहाना या त्रिफला का प्रयोग उपयोगी है।

धूप में कपड़े सुखाकर पहनना: नमी से बचाव हेतु सूखे व स्वच्छ वस्त्रों का ही उपयोग करें।

गृह शुद्धि: घर में धूप (गुग्गुलु, लोबान) देने से संक्रमण और कीटाणुओं से सुरक्षा मिलती है।

क्या न करें:

बरसात में भीगना: भीगने से जुकाम, बुखार और वात रोग होने की संभावना बढ़ जाती है।

नंगे पाँव चलना: गंदे और कीचड़युक्त पानी में नंगे पाँव चलने से त्वचा संक्रमण और फंगल रोग हो सकते हैं।

दिन में सोना: वर्षा ऋतु में दिन में सोने से कफ और आलस्य बढ़ता है।

विशेष आयुर्वेदिक अनुशंसाएँ:

अभ्यंग (तेल मालिश): नियमित रूप से तिल तेल या नारायण तेल से मालिश करें। यह वात को संतुलित करता है।

उद्वर्तन: उबटन से शरीर को रगड़ना वात और कफ दोनों को संतुलन में रखता है।

वमन और विरेचन: यदि कोई पूर्ववर्ती चिकित्सा की आवश्यकता हो तो आयुर्वेदाचार्य से परामर्श लेकर वमन-विरेचन किया जा सकता है।

🔚 निष्कर्ष:

वर्षा ऋतु में रोग प्रतिरोधक क्षमता स्वाभाविक रूप से कम होती है, ऐसे में आहार-विहार का नियमन न केवल रोगों से सुरक्षा करता है बल्कि यह स्वास्थ्य को स्थिर बनाए रखने में सहायक होता है। आयुर्वेद के इन सरल परंतु प्रभावी सिद्धांतों को अपनाकर हम वर्षा ऋतु का आनंद स्वस्थ रहते हुए उठा सकते हैं।

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