कैकई को दिए अपने वचनों के जाल में उलझ कर तड़पते महाराज दशरथ के कक्ष में जब राम ने प्रवेश किया, तो उन्हें देखते ही दशरथ 'जी' गए। उठे और बाँहे फैला कर दौड़े राम की ओर... पुत्र ने पूछा," क्यों विचलित हैं पिताश्री?
पिता की आँखों से भावनाएँ बह रही थीं। वे उत्तर नहीं दे सके। उत्तर माता कैकई ने दिया, "तुम्हारे पिता ने कभी मुझे दो वचन दिए थे, आज माँग रही हूँ तो देने के स्थान पर रो रहे हैं।"
राम मुस्कुराए, "इस सृष्टि में ऐसी कौन सी सम्पदा है जिसे देने की सामर्थ्य महाराज के पास भी नहीं? आप मुझे बताएं माँ, पिताश्री अवश्य देंगे..."
माता ने बिना किसी हिचक के कहा, " पहले वचन में मैंने भरत के लिए अयोध्या का राज्य मांगा है, और दूसरे वचन में तुम्हारे लिए चौदह वर्षों का वनवास! अब बोलो राम, दिला पाओगे तुम?"
"मेरे दिलाने का प्रश्न ही नहीं माँ! राम की माँ ने जब यह बचन मांगा उसी समय उन्हें यह मिल गया। हम कल ही वन के लिए प्रस्थान करेंगे, आप भरत का राज्याभिषेक कराएँ और उसे मेरा आशीष दें..."
महाराज दशरथ चीख उठे, "नहीं पुत्र! नहीं राम... तुम वन न जाओ... तुम्हारे स्थान पर मैं वन चला जाऊंगा राम, तुम न जाओ..."
राम पिता के चरणों में बैठ गए। बोले,"मुझे जाना होगा पिताश्री! यदि आपके दो वचनों की रक्षा भी न कर सकूँ, तो धिक्कार है मेरे राम होने पर। मैं सौभाग्यशाली हूँ कि आपके वचन को निभाने का अवसर मिला है। मुझे आज्ञा दीजिये..."
दशरथ रो पड़े, "नहीं पुत्र! तुम वन के योग्य नहीं हो राम! तुम मेरे प्राण हो... तुम अयोध्या के प्राण हो... न जाओ राम!तुम्हारा वियोग हमें जीने नहीं देगा।"
"मोह त्यागिये पिताश्री! आपके वचन अपूर्ण रहे तो मर्यादा टूटेगी। जो सन्तान अपने पिता के मर्यादा की रक्षा न कर सके, वह सन्तान कहलाने योग्य नहीं होती। मैं वन नहीं गया तो भविष्य के समक्ष हम दोनों अपराधी बन कर खड़े होंगे। मैं भविष्य के न्यायालय में आपको अपराधी बना नहीं देख सकता पिताश्री! मुझे जाना ही होगा..." राम दृढ़ थे।
"मैं तुम्हारा मोह नहीं त्याग सकता पुत्र! पुत्र का मोह सृष्टि का सबसे पवित्र मोह है, संसार का कोई पिता इस मोह को नहीं तोड़ पाता। वचन टूटता है तो टूटने दो, मैं तुम्हें वन में जाता नहीं देख पाऊंगा। छोड़ दो राम, मुझे छोड़ कर कहीं न जाओ..." महाराज दशरथ ने टूट कर कहा।
"मुझसे मेरा सौभाग्य न छीनिये पिताश्री! एक ओर पिता की प्रतिष्ठा, और दूसरी ओर माता की इच्छा, इन दोनों को एक ही साथ पूर्ण करने का अवसर है मेरे पास। मनुष्य का जन्म केवल आनंद के लिए नहीं होता, आनंद के लिए तो पशु जीते हैं। मैं वन जाऊंगा ताकि भविष्य सीख सके कि पिता का सम्मान कैसे करते हैं। भविष्य मुझसे सीखेगा कि पिता के सम्मान की रक्षा के लिए राजगद्दी भी छोड़नी पड़े तो पुत्र को क्षण भर भी विलम्ब नहीं करना चाहिए। भविष्य राम से सीखेगा कि माता की इच्छा पर वनवास को भी प्रसन्नता से स्वीकार कर लेना ही धर्म है।"
"पिता के सम्मान के लिए अपने सुखों का त्याग करना उचित नहीं पुत्र! तुम्हारा अपना जीवन है, अपना भविष्य है! तुम अपनी सोचो राम..." महाराज दशरथ किसी भी तरह राम को रोक लेना चाहते थे।
राम ने मुस्कुरा कर कहा, "नहीं पिताश्री! मुझे जाना ही होगा, नियति ने शायद यही तय किया है। भयभीत न होइये, आपका राम वन में भी उतना ही प्रसन्न रहेगा जितना राजमहल में है।"
राम नहीं माने, उन्हें मर्यादा निभानी थी। दशरथ भी नहीं माने, उन्हें पिता का मोह निभाना था। राम के जाने के बाद मृत्युशैया पर कौशल्या की गोद में सर रख कर लेटे महाराज दशरथ से महारानी ने रोते हुए पूछा, " वो तो चला गया महाराज! पर आप तो न जाइये... आप चले गए तो अयोध्या का क्या होगा?"
दशरथ दुख के चरम में भी मुस्कुरा उठे। कहा, "वह मेरे लिए राज त्याग कर वन चला गया कौशल्या! उसके लिए क्या मैं जीवन भी नहीं त्याग सकता? मुझे भी जाना होगा। मैं यदि जीवित रह गया तो मेरा जीवन ही मेरे सामने प्रश्नचिन्ह बन कर खड़ा रहेगा। वह मर्यादा पुरुषोत्तम है, तो उसके पिता को भी अपनी मर्यादा निभानी होगी। राम का पिता होने का कुछ तो मूल्य चुकाना होगा न!"
कोई नहीं रुका। न राम, न दशरथ... दोनों ने मर्यादा निभाई। भारत आज उसी नींव पर खड़ा है, नहीं तो कब का अरब हो गया होता...
सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।