हम इश्क के मारों का इतना ही फ़साना है। रोने को नहीं कोई हंसने को ज़माना है। तहजीबी शिनाख्त का नाम अली सिकंदर उर्फ जिगर मुरादाबादी। अपने तखल्लुस में ऐसे समाए कि लोग अली सिकंदर को भूल गए और याद रह गए, तो सिर्फ जिगर। हर दिल अजीज और रोशन मिजाज इस शायर ने रूह के तारों को झनझनाने वाले ऐसे कलाम लिखे जो आज भी जिगर के रास्ते रूह में समा जाते हैं। शायरी, शेरवानी और शराब संग कागज, कलम और दवात को अपनी कायनात बनाने वाले जिगर ने उर्दू अदब को नए आयाम दिए। हुस्न और इश्क को खाक नशीं बनकर ठोकर पे रखने वाले जिगर ही थे। खिराज़-ए-अकीदत आज ही के दिन उर्दू अदब का यह खिदमतगार जिस्मानी तौर पर भले ही हमसे दूर हो गया हो लेकिन अपनी जदीद शायरी से वो आज भी हमारे बीच है। जिगर मुरादाबादी की 57 वीं यौम-ए-वफ़ात के मौके पर यादों के झरोखों से झांककर हम उन्हें पेश कर रहे हैं खिराज-ए-अकीदत... यहीं जियूंगा और यहीं मरूंगा शहर के लालबाग इलाके में 6 अप्रैल 1890 को जन्मे जिगर साहब की वतन परस्ती का ही यह आलम था कि पाकिस्तान का सर्वोच्च खिताब पाकर भी वहां बसने की पेशकश ठुकरा दी। 1948 में पाकिस्तान ने भारत के दो मकबूल शायरों को अहम ओहदे देने के साथ ही वहां बसने की पेशकश की। इनमें से एक मलीहाबादी भारत छोड़कर पाकिस्तान बस गए लेकिन जिगर साहब ने कहा कि जियूंगा भी यहीं और मरूंगा भी यहीं। 9 सितंबर 1960 को जिगर साहब ने गोंडा में आखिरी सांस ली। जहां पर आज भी उनकी मजार है। नहीं बेचे दस्तख्त गुलशन परस्त हूं मुझे गुल ही नहीं अज़ीज़। कांटों से भी निबाह किए जा रहा हूं मैं। जिगर मुरादाबादी की शख्सियत ही कामयाबी की ज़मानत थी। अपनी इस शायरी के मुताबिक खाक नशीनी के नजारे उन्होने तमाम लोगों को दिखा दिए। इसकी तस्दीक करता है, उनकी जिंदगी से जुड़ा एक वाकया। जिगर साहब जिंदगी के आखिरी वक्त में बीमारी से परेशान थे। इलाज के लिए उन्हें पैसों की जरूरत थी। खुद्दार इतने थे, कि उन्हें कोई पैसा दे पाने की हिम्मत न जुटा पा रहा था। प्रशंसकों ने सोचा कि उनकी किताब आतिश-ए-गुल पर उनके दस्तख्त करा लिए जाएं। इससे किताब की अच्छी कीमत मिल जाएगी और वही पैसा जिगर साहब के इलाज में काम आ जाएगा। इस बात का पता लगने पर वह भड़क गए। लाख मिन्नतें करने के बाद भी उन्होंने दस्तख्त न किए। हमेशा सफेद चूड़ीदार पायजामा, वास्कट कमीज, शेरवानी और पान की सजधज में रहने वाले जिगर ने वाकई जिंदगी भर फूल- कांटे सबसे निबाह किया। 1985 का वो नजारा आज भी याद... जिगर साहब की शख्सियत को समर्पित किरदार फरीद अहमद का है। बीडीओ के पद से रिटायर फरीद अदब की दुनिया में ही जीते हैं। अदब को सहेजने में पत्नी यासमीन शान का भी पूरा सहयोग मिलता है। जिगर साहब पर पहली डॉक्यूमेंट्री बनाने का श्रेय फरीद साहब को है। 1985 में दिल्ली व मुरादाबाद दोनों ही जगह पर बाकायदा इसको रिलीज़ किया गया था। आर्काइव के जरिए यह आज भी दस्तावेजी है। पुलिस को करना पड़ा लाठीचार्ज फैज़ान नगर में पीरजादा के नज़दीक एक बड़ा जलसा मुनाकिद किया गया था। फरीद अहमद बताते हैं कि डॉक्यूमेंट्री की रिलीज पर खासतौर पर उस वक्त दूरदर्शन की चर्चित आवाज़ सलमा सुल्तान भी शिरकत करने पहुंची थीं। 1000 लोगों की व्यवस्था की गई थी। उसी दौरान निकाह फिल्म आई थी। तमाम लोगों को गलत फहमी रही, कि निकाह की अभिनेत्री सलमा आग़ा आ रही हैं। फिर क्या था, कार्यक्रम में जहां एक तरफ जिगर की शख्सियत का असर था, तो वहीं दूसरी तरफ सलमा सुलतान को सलमा आग़ा को समझने वालों की अनियंत्रित भीड़ थी। पुलिस को लाठीचार्ज करना पड़ा था। हालांकि बाद में स्थिति नियंत्रित हो गई थी। शहर में बने जिगर ऑडिटोरियम मुरादाबाद को दुनियावी शिनाख्त देने वाले जिगर के नाम पर यहां जिगर-मंच, जिगर-द्वार और जिगर कॉलोनी भले हो, लेकिन अदब की हस्तियों का मानना है कि जिगर को पीतल के शहर ने भट्ठियों के धुएं और पॉलिश की मशीनों की गड़गड़ाहट में भुला दिया है। यहां की गलियों में आज भी जिगर की रूह अपने कद्रदानों को तलाशती होगी। शुरू हो जिगर शोध संस्थान अंतरराष्ट्रीय शायर मंसूर उस्मानी जहां उनके नाम पर ऑडिटोरियम शुरुआत की बात कहते हैं, तो वहीं आसिफ हुसैन, डॉ. अजय अनुपम, जिया जमीर, योगेंद्र वर्मा 'व्योम' जैसी अदब की हस्तियां कहती हैं कि साहित्यिक परिदृश्य से धनी अपने शहर की अंतरराष्ट्रीय शिनाख्त रखने वाले इस मकबूल शायर को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए। यह जिगर का हक है।