(आलेख : राजेन्द्र शर्मा)
जीता वो सिकंदर! इसलिए, हैरानी की बात नहीं है कि अपने रामनाथ गोयनका स्मृति व्याख्यान में प्रधानमंत्री मोदी को अपनी बिहार की जीत पर खूब गाल बजाना नहीं भूला। यहां तक कि इस जीत को प्रधानमंत्री ने इसका प्रमाण और उदाहरण बनाकर भी पेश कर दिया कि उनके नेतृत्व में चल रही राजनीतिक ताकत की 'सबसे बड़ी प्राथमिकता सिर्फ एक' है, 'विकास, विकास और सिर्फ विकास।'
लेकिन, इस लफ्फाजी के पर्दे से क्या प्रधानमंत्री इस नतीजे के उस महत्वपूर्ण अर्थ को ढांपने की ही कोशिश नहीं कर रहे थे, जिसे उनकी पार्टी की असम सरकार के मंत्री, अशोक सिंघल ने इस चुनावी जीत पर अपनी पहली प्रतिक्रिया में उजागर कर दिया था। भाजपायी मंत्री का ट्वीट जितना संक्षिप्त था, उससे ज्यादा मारक था। उसने फूल गोभी की खेती की तस्वीर लगाकर, बिहार में भागलपुर के अस्सी के दशक के आखिर के दंगों और उसमें खासतौर पर लोगाई गांव की दरिंदगी की याद दिलायी थी, जहां एक सौ अठारह मुसलमानों को मारकर, खेतों में गाड़ दिया गया था और उसके ऊपर से फूल गोभी बो दी गयी थी। इस तस्वीर के साथ भाजपायी मंत्री की टिप्पणी थी — बिहार ने अनुमोदन किया! यानी बिहार चुनाव का नतीजा, मुस्लिम-विरोधी नरसंहार की ओर ले जाने वाले विचार का अनुमोदन है।
इसके बावजूद भाजपा के नेतृत्व वाले गठजोड़ की जीत के सांप्रदायिक तत्व को ही पूरी तरह से दबा दिया गया है। यह इसके बावजूद था कि मुख्यमंत्री के रूप में नीतिश कुमार के नेतृत्व और खुल्लमखुल्ला मुस्लिम-विरोधी रुख अपनाने से बचने वाली पार्टियों के साथ गठजोड़ की मजबूरी भी, भाजपा को गिरिराज सिंह से लेकर, योगी आदित्यनाथ तक, मुख्यत: सांप्रदायिक बोली के लिए कुख्यात अपने नेताओं को, स्टार प्रचारकों के रूप में चुनाव प्रचार में उतारने से रोक नहीं पायी थी। यहां तक कि पहले चरण के मतदान के बाद, खासतौर पर सीमांचल क्षेत्र में अपनी चुनाव सभाओं में खुद प्रधानमंत्री मोदी और उनके नंबर दो अमित शाह, 'घुसपैठियों के खतरे' के बहाने से, मुस्लिम-विरोधी संदेश देने में जुट गए थे।
लेकिन, बिहार के नतीजे का सांप्रदायिक पहलू ही नहीं है, जिसे पूरी तरह से छुपाया गया है, छुपाया जा रहा है। इस चुनाव नतीजे का दूसरा इसी तरह से छुपाया गया पहलू है, इसका सामाजिक पहलू। यह हैरानी की बात नहीं है कि भाजपा के नेतृत्व वाले सत्ताधारी गठजोड़ ने इस चुनाव में केंद्रीय नैरेटिव के तौर पर लालू-राबड़ी के 'जंगल राज' बनाम नीतीश कुमार के 'सुशासन' को स्थापित करने की जो कोशिश की थी, उसके केंद्र में यादवों का दानवीकरण था। इसी को पूरा करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी खुद 'कनपटी पर कट्टा' लगाए जाने का डर दिखाने में लगे रहे थे। बाद में तो उन्होंने अहीरों के 'सिक्सर से छ: गोली सीने में' उतारने का भोजपुरी गीत भी गाना शुरू कर दिया! इस दानवीकरण का मकसद, सत्ताधारी गठजोड़ द्वारा गढ़े गए उस सामाजिक/जातिगत गठजोड़ के वास्तविक चरित्र को छुपाना था, जो ऊंची जातियों की लगभग मुकम्मल एकजुटता के गिर्द, गैर-यादव पिछड़ों, अति-पिछड़ों और दलितों के बड़े हिस्से को जुटाने के जरिए गढ़ा गया था।
'जंगल राज' का मिथक और दो जाति-गठजोड़ों के बीच झूठी-बराबरी की गढ़ंत, ये दोनों इस सच्चाई को छुपाने के सबसे मोटे पर्दे थे कि सत्ताधारी गठजोड़ का सामाजिक सार क्या था? मीडिया के विश्लेषणों में एक तथ्य कथन के रूप में इसके बखानों ने इस पर्दे को और मोटा कर दिया था कि किस तरह सत्ताधारी गठजोड़, विपक्षी गठबंधन के मुकाबले कहीं व्यापक तथा संख्याबल में बड़े सामाजिक गठबंधन का प्रतिनिधित्व करता था। इसके जरिए कई बार अनजाने में, हालांकि अक्सर समझ-बूझकर, इस सच्चाई को छुपाया जा रहा था कि यह जाति-गठबंधनों के बीच होड़ भर नहीं थी, बल्कि सवर्ण जातियों पर केंद्रित कतारबंदी द्वारा, वंचित तबकों की एकजुटता में, वह चाहे वास्तविक हो या संभावित, सेंध लगाए जाने की कहानी थी।
वास्तव में लालू-राबड़ी का कथित जंगल राज, वंचित जातियों की, जिसमें मुस्लिम और महिला भी आते थे, एकजुटता के एसर्शन की ही कहानी थी। और भाजपा द्वारा लालू प्रसाद यादव से तोड़कर, नीतीश कुमार को अपने पाले में खींचे जाने से, इस एकजुटता के तोड़े जाने की शुरूआत हुई थी। संघ-भाजपा ने तभी यह पहचान लिया था कि विशेषाधिकार-प्राप्त तबकों के हाथ में सामाजिक सत्ता बनाए रखने के लिए, वंचितों की संभव एकजुटता को नेतृत्वविहीन करना और इसके लिए उसको नेतृत्व मुहैया कराने वाले अपेक्षाकृत संख्या बल वाले तबकों को अलग-थलग करना, जरूरी है।
बिहार में यादवों, उत्तर प्रदेश में यादवों तथा जाटवों, हरियाणा में जाटों और अन्यत्र इसी प्रकार महत्वपूर्ण खेतिहर जातियों को निशाना बनाकर, विशेषाधिकार-प्राप्त तबकों के हाथ में सत्ता बनाए रखने की यह रणनीति, चुनावी पहलू से काफी कामयाब भी रही है। विपक्षी महागठबंधन की सामाजिक न्याय के प्रति निर्विवाद प्रतिबद्घता के बावजूद, बिहार में एक बार फिर वंचितों को एकजुट करने की कोशिशों को विफल कर, विशेषाधिकार-प्राप्त तबकों का सत्ता पर नियंत्रण बनाए रखा गया है। इस सच्चाई को, जिसे अक्सर छुपा ही लिया जाता है, नयी गठित विधानसभा में और सत्ताधारी गठबंधन के विधायकों में, जातिवार अनुपात में आसानी से देखा जा सकता है। जाहिर है कि सवर्णों की संख्या, अनुपात से कहीं बहुत ज्यादा है।
'जो जीता वो सिकंदर' के शोर में जिस एक और बुनियादी सच्चाई को दबा ही दिया गया है, वह यह है कि 14 नवंबर को जिसका नतीजा निकला, वह चुनाव बस कहने-गिनाने के लिए ही चुनाव था। जनता के बहुमत की स्वतंत्र इच्छा की अभिव्यक्ति होने से यह चुनाव कोसों दूर ही नहीं था बल्कि व्यवहार में बहुत दूर तक उसका निषेध भी था। और जनमत की अभिव्यक्ति के निषेध का यह सिलसिला शुरू तो मोदी की भाजपा के देश में और बिहार में भी सत्ता में आने के बाद से ही हो गया था, जब संसाधनों में भाजपा की अनुपातहीन बढ़त और अंधाधुंध संसाधन झोंकने की उसकी तत्परता के जरिए, चुनावी मुकाबले को पूरी तरह से नाबराबरी का बना दिया गया।
चुनाव मुकाबले की इस असमानता को, मोदी राज की विपक्ष के खिलाफ सत्ता के दमनकारी औजारों का सहारा लेने की उत्सुकता ने विपक्ष के लिए, योगेंद्र यादव के शब्दों में कहें तो एक कठिन 'बाधा दौड़' ही बना दिया था। और अन्य तमाम संवैधानिक संस्थाओं की तरह, चुनाव आयोग पर सत्ताधारी पार्टी के कब्जे ने, इस बाधा दौड़ को भी एक लगभग असंभव दौड़ बना दिया था। लेकिन, 2024 के आम चुनाव के बाद से, चुनाव आयोग की मिलीभगत से, सत्ताधारी पार्टी ने चुनाव से पहले ही अपनी जीत का ऐलान कराने के इतने पक्के इंतजाम कर लिए हैं कि, जनतंत्र की वास्तव में चिंता करने वालों ने गंभीरता से यह सवाल भी पूछना शुरू कर दिया है कि विपक्ष को ऐसे चुनाव में हिस्सा लेना भी चाहिए या नहीं?
बिहार के हाल के चुनाव में, चुनाव आयोग के जरिए चुनावी नौकरशाही को सत्ताधारी गठजोड़ के पक्ष में सैट करने के अलावा, कम से कम तीन स्तर पर अनुकूल नतीज के ये पक्के इंतजाम काम कर रहे थे। पहला, एसआईआर के जरिए मतदाता सूचियों से नामों की टार्गेटेड छंटाई और टार्गेटेड जुड़ाई भी। यह कोई संयोग ही नहीं है कि पिछले चुनाव में विपक्ष द्वारा कम अंतर से जीती गयी कई सीटों पर, वहां काटे गए वोटों से कम अंतर से, इस बार सत्ता पक्ष के उम्मीदवार जीत गए हैं। मतदाता सूचियों के कथित रूप से स्वच्छ किए जाने के बाद, हजारों लोगों को इस बार मतदान केंद्रों से निराश लौटना पड़ा क्योंकि उनके वोट काट दिए गए थे।
दूसरी ओर, वोटों की टार्गेटेड जुड़ाई के साक्ष्य के तौर पर दिल्ली, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, मुंबई आदि के दर्जनों जाने-पहचाने भाजपा नेताओं के, अपने-अपने राज्यों में मतदान करने के बाद, बिहार में भी मतदान करने के वीडियो सामने आए हैं। यह मानने का कोई कारण नहीं है कि यह संख्या दर्जनों में ही होगी, जबकि एक खोजी रिपोर्ट से एक विधानसभाई क्षेत्र में ही मतदाता सूची में, उत्तर प्रदेश के पांच हजार मतदाताओं के नाम शामिल होने की सच्चाई सामने आयी थी। और कथित रूप से शुद्घ की गयी मतदाता सूचियों में फर्जी पते, अधूरे नाम, न पहचानने वाली तस्वीरों वाले लाखों मतदाता मौजूद थे।
दूसरे, चुनाव आयोग की मिलीभगत से एक करोड़ बीस लाख महिलाओं के खातों में दस-दस हजार रुपए चुनाव के बीच में डाले जाने समेत, सरकारी खजाने से अनुमानत: 30,000 करोड़ रुपए की खैरात टार्गेटेड मतदाता समूहों में बांटी ही नहीं, यह पैसा पाने वाली करीब एक लाख जीविका दीदियों से, चुनाव आयोग द्वारा दोनों चरणों में मतदान के काम में मदद भी ली गयी! तीसरे, चुनाव आयोग ने मतदाताओं की कुल संख्या से लेकर मत फीसद तक और वोटों की गिनती में भी, संदेहजनक आचरण की पराकाष्ठा कर दी। न सिर्फ एक बार फिर मत फीसद बाद तक बढ़ाया जाता रहा, आयोग के अनुसार ही जितने वोट पड़े, उससे करीब पौने दो लाख वोट ज्यादा गिने गए; कम से कम छ: सीटों पर कैंसिल किए गए डाक मतों से कम अंतर से हार-जीत हुई; कम से कम आठ सीटों पर जीतने वाले सत्ताधारी गठजोड़ के उम्मीदवारों के वोट की संख्या संदेहजनक तरीके से एक जैसी निकली, आदि।
हैरानी की बात नहीं है कि ऐसे चुनाव में अकेले सबसे ज्यादा, 23 फीसद वोट हासिल कर, राजद 25 सीटों पर रुक गयी है और 38 फीसद वोट लेकर भी महागठबंधन 34 सीटों पर ही सिमट गया है, जबकि लगभग 44 फीसद वोट हासिल कर, सत्ता पक्ष ने 243 में से 202 सीटें हासिल कर ली हैं। नतीजों का यह असंतुलन एक बार फिर आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के अपरिहार्य होने को सामने लाता है। याद रहे कि अनुपातिक प्रणाली ही टार्गेटेड 'वोट चोरी के जरिए नतीजों को बदलने की कोशिशों का रास्ता रोक सकती है। वोट चोरी रोकने और चुनाव आयोग की स्वतंत्रता की मांग के साथ, आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली की मांग को विपक्ष को अर्जेंसी के साथ अपने एजेंडे पर लाना होगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका 'लोकलहर' के संपादक हैं।)