(बिरसा मुंडा की 150वीं जयंती पर विशेष आलेख : कुमार राणा, अनुवाद : संजय पराते)
केवल पच्चीस वर्षों का जीवन, फिर भी उसका फलक काफी व्यापक है। जिस मुंडा समुदाय में उनका जन्म हुआ, जिस भूमि से उनका जुड़ाव रहा और जिन संघर्षों का उन्होंने नेतृत्व किया -- ये सब उनके दायरे को सीमित नहीं कर सके। उनका नाम पूरे देश में गूंज रहा है। आदिवासी समुदायों के लिए, बिरसा मुंडा 'धरतीआबा' हैं, निरंतर प्रतिरोध के प्रतीक हैं। 'धरतीआबा' का शाब्दिक अर्थ है 'पृथ्वी का पिता', जो वास्तव में एक व्यापक अभिव्यक्ति है -- जो लोगों, प्रकृति और भूमि के बीच गहरे बंधन को दर्शाता है -- एक मौलिक, प्रारंभिक पर्यावरण चेतना का प्रतीक। शासकों के लिए, उनका नाम एक मुहर बन गया है। झारखंड के विभिन्न शहरों और यहाँ तक कि राजधानी दिल्ली में भी उनकी मूर्तियाँ और चित्र स्थापित हैं। उनका जन्मदिन, 15 नवंबर, जन जातीय गौरव दिवस के रूप में मनाया जाता है, और यह झारखंड का स्थापना दिवस भी है। सत्तारूढ़ दल उनका इस्तेमाल, मुख्यतः आदिवासी समुदायों पर अपने कुशासन को सही ठहराने के लिए, करते रहे हैं। वे उन्हें एक आदिवासी नायक के रूप में महिमामंडित करते हैं, लेकिन उन्हीं अन्यायों को जारी रखते हैं, जिनके लिए बिरसा लड़े और जिनके लिए वे एक नेता बने और शहीद हुए। उनके संघर्ष के केंद्र में ज़मीन और जंगल पर लोगों के अधिकार, सांस्कृतिक स्वतंत्रता और एक नैतिक, पर्यावरण-केंद्रित सामाजिक व्यवस्था थी -- जो औपनिवेशिक आधुनिकता और बहुसंख्यकवादी धार्मिक राजनीति से अलग थी। इस संदर्भ में, हम बिरसा की दार्शनिक दृष्टि की समकालीन प्रासंगिकता पर संक्षेप में विचार करेंगे।
एक :
उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में, ब्रिटिश भूमि नीति ने छोटानागपुर की सदियों पुरानी, पारंपरिक सामूहिक भूमि व्यवस्था को बदल दिया और भूमि को निजी संपत्ति में बदल दिया। इसका उद्देश्य राजस्व वसूली को बढ़ाना था। इस क्षेत्र की भूमि व्यवस्था, जिसे 'खुंटकाठी' के नाम से जाना जाता था, सामूहिक भूमि-स्वामित्व की पूर्व-औपनिवेशिक संस्कृति का प्रतीक थी। ब्रिटिश शासन के तहत यह सामूहिक व्यवस्था धीरे-धीरे ध्वस्त हो गई, साहूकार और बाहरी लोग भूस्वामी बनकर उभरे।
इस व्यवस्था पर आघात ने न केवल आदिवासियों के दैनिक भौतिक जीवन को तबाह कर दिया, बल्कि लोगों के बीच और प्रकृति और लोगों के बीच के संबंधों को भी गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त कर दिया। जंगल, जिन्हें कभी आदिवासी प्रथागत मानदंडों के तहत स्वतंत्र, जीवित इकाई माना जाता था, जहाँ से केवल उतना ही लिया जाता था जितना आवश्यक हो और जिसे कभी किसी की संपत्ति नहीं माना जाता था, अब औपनिवेशिक कानून के तहत राज्य की संपत्ति घोषित कर दिए गए। शिकार, झूम खेती, लकड़ी इकट्ठा करना - जो उनकी आजीविका का अभिन्न अंग थे - अचानक अपराध घोषित कर दिए गए। इस बीच, राज्य और उसके स्थानीय सहयोगियों ने लाखों एकड़ वन भूमि को लूट लिया, जिससे राजस्व और निजी पूंजी दोनों में वृद्धि हुई। आदिवासी, अपने जंगल, ज़मीन, जानवर, नदियाँ और जलस्रोतों के साथ, पूँजी की बढ़ती लहर का शिकार हो गए। (मैंने इस पर अन्यत्र विस्तार से चर्चा की है, कृपया प्रश्नर लोककोथा, कोलकाता, आरबीई बुक्स, 2022 में प्रकाशित मेरे निबंध 'आदिवासी भारत' और उसमें उद्धृत स्रोतों का संदर्भ लें।)
ऐसी ही स्थिति में बिरसा का जन्म वर्तमान खूंटी जिले के चलखाट गाँव में एक मुंडा परिवार में हुआ था। गरीबी और अवसरों की कमी के बावजूद, उन्होंने चाईबासा के क्रिश्चियन स्कूल में कुछ स्कूली शिक्षा प्राप्त की। अपनी शिक्षा के दौरान वे पहले ईसाइयों के और बाद में वैष्णवों के संपर्क में आए। बचपन से ही उनमें सीखने की तीव्र इच्छा थी, जो लोगों से जुड़ने और उन्हें अपनी ओर आकर्षित करने की उनकी क्षमता से मेल खाती थी। ज्ञान की इसी भूख ने उन्हें अपने समय के समाज पर सवाल उठाने के लिए प्रेरित किया। उनके भीतर धार्मिक संशय पैदा हुए। इन विरोधाभासों के कारण उन्होंने अंततः ईसाई धर्म और उच्च जाति के हिंदू रीति-रिवाजों, दोनों को अस्वीकार कर दिया और बिरसाइत नामक एक नए धार्मिक आंदोलन की शुरुआत की। यह एक आदिवासी धार्मिक सुधार आंदोलन था, जिसे अक्सर भ्रामक रूप से 'हिंदू धर्म' या 'धर्मांतरण' के रूप में व्याख्यायित किया जाता है।
इन्हीं सामाजिक प्रश्नों से उन्होंने -- 1890 के दशक के मध्य में -- मुंडा, उरांव और अन्य समुदायों में स्वशासन, नैतिक सुधार और आध्यात्मिक जागृति का संदेश फैलाना शुरू किया। उनका प्रसिद्ध नारा था, 'अबुआ दिसुम, अबुआ राज - हमारी ज़मीन, हमारा शासन।' आज यह नारा झारखंड सरकार के विभिन्न अभियानों में प्रमुखता से दिखाई देता है, फिर भी इसका सपना कभी साकार नहीं हो पाया। इसके बजाय, इस नारे को अपनाकर, वर्तमान शासकों ने बिरसा के संदेश की मूल भावना को ही त्याग दिया है।
1899-1900 में बिरसा ने अंग्रेजों और उनके स्थानीय सहयोगियों के खिलाफ जो प्रतिरोध विकसित किया -- जिसे उलगुलान के नाम से जाना जाता है -- वह महज एक सशस्त्र विद्रोह नहीं था ; यह सामाजिक सुधार और लोक-पुनरुत्थान का मिश्रण था। ग्रामीणों ने कर देने से इंकार कर दिया, अपनी ज़मीन पर दावा ठोका और बिरसा के नेतृत्व में एकजुट हुए। अंततः, ब्रिटिश सेना ने आंदोलन को दबा दिया ; बिरसा को गिरफ्तार कर रांची जेल भेज दिया गया, जहाँ 9 जून, 1900 को, मात्र पच्चीस वर्ष की आयु में, रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गई। (विवरण के लिए देखें -- कुमार सुरेश सिंह द्वारा लिखित प्रामाणिक कृति 'बिरसा मुंडा और छोटा नागपुर में बिरसाइत आंदोलन: 1874-1901, कोलकाता : सीगल 1984).
उनकी अकाल मृत्यु ने न केवल उन्हें एक शहीद का दिया, बल्कि आदिवासियों के बीच उन्हें एक दिव्य व्यक्तित्व भी बना दिया -- एक ऐसा देवता, जिसकी छवि हर आदिवासी खुद में देखता है, जब भी वह अन्याय के खिलाफ आवाज उठाता है। ('बिरसा मुंडा' गंगचिल, कोलकाता, 2012 में मोनोग्राफ लिखते समय, मैंने इसी पहलू पर भरोसा किया था।).
यद्यपि बिरसा का आंदोलन अल्पकालिक था, लेकिन इसने 1908 के छोटा नागपुर काश्तकारी अधिनियम का मार्ग प्रशस्त किया, जिसने आदिवासी भूमि की बिक्री और हस्तांतरण पर प्रतिबंध लगा दिया -- ठीक उसी तरह जैसे सिद्धू और कान्हू के नेतृत्व में दामिन-ए-कोह क्षेत्र में 1855 के सशस्त्र विद्रोह ने संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम को जन्म दिया था।
बिरसा मुंडा के विचारों से चार केंद्रीय विचार स्पष्ट रूप से उभर कर आते हैं -- अ) भूमि पवित्र है, सबकी है और बिकाऊ नहीं है, ब) अपनी लोक संस्कृति का पुनरुत्थान, स) अंधविश्वास, मद्यपान और आंतरिक विभाजनों का विरोध, और द) एक नैतिक पर्यावरणीय चेतना - मानव और प्रकृति के बीच सामंजस्य का सिद्धांत। बिरसा के विचार समाज के एक ऐसे एकीकृत मॉडल की रूपरेखा प्रस्तुत करते हैं, जिसके केंद्र में राजनीति नहीं, बल्कि समाज और प्रकृति है। आज के वैश्विक अनिश्चितता के दौर में, जब इस ग्रह के अस्तित्व को लेकर संदेह गहरा रहे हैं, बिरसा के विचार हमें प्रतिरोध के समृद्ध स्रोत प्रदान करते हैं।
दो :
आज हमें बिरसा के संघर्ष पर नए सिरे से विचार करने की ज़रूरत है क्योंकि उनके आदर्श सीधे तौर पर ज़मीन, जंगल और आजीविका के अधिकारों से जुड़े हैं। आज भी झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा और पूर्वी भारत के कई आदिवासी इलाकों में कॉर्पोरेट खनन, औद्योगिक परियोजनाओं और बाँध निर्माण के कारण समुदायों को विस्थापन का सामना करना पड़ रहा है। यह वास्तविकता बिरसा के समय के अंग्रेज़ ज़मींदारों और 'दीकुओं' के आधुनिक स्वरूप को दर्शाती है। लोग कहते हैं कि बिरसा ने एक बार घोषणा की थी, "हमारी ज़मीन हमारी माँ है, इसे बेचना अपनी आत्मा बेचने के समान है।" इस बात का कोई दस्तावेज़ी प्रमाण नहीं है कि उन्होंने वास्तव में ऐसा कहा था, शायद लोगों ने समय के साथ इसे मौखिक रूप से गढ़ा हो। फिर भी, यही बिरसा की सफलता है कि जिस तरह से उन्होंने सोचा, लोगों ने उसी तरह से सोचना सीखा। यही कारण है कि आज आदिवासी कई वन और पर्यावरण संरक्षण आंदोलनों में अग्रणी भूमिका निभाते हैं। बिरसा ने जिस पारिस्थितिक न्याय की भावना का आह्वान किया था, उसने वर्तमान जलवायु संकट में नया अर्थ ग्रहण कर लिया है।
जैसा कि मैंने पहले कहा है, बिरसा मुंडा ने केवल ज़मीन के लिए लड़ाई नहीं लड़ी। उन्होंने आदिवासी सम्मान के संघर्ष को एक विकसित दार्शनिक-सांस्कृतिक रूप दिया। यह एक ऐसा संघर्ष था, जिसने वर्चस्ववादी संरचना के विरुद्ध जनता के व्यापक, जीवंत विचार को अभिव्यक्त किया। आज, यह विरोधाभास और भी तीव्र हो गया है। हालाँकि अंग्रेज़ चले गए हैं, तथाकथित मूल निवासी शासकों ने आदिवासी दर्शन को विस्थापित कर दिया है और आदिवासी संस्कृति को एक क्रय-योग्य वस्तु में बदल दिया है। इस प्रकार, आदिवासी भाषाएँ, नृत्य, गीत और पहनावे को लोक संस्कृति के रूप में विस्थापित किया जा रहा है, जबकि उनके जीवंत राजनीतिक अर्थ को छुपाया जा रहा है। सरकारी आयोजनों में आदिवासी नृत्य का प्रदर्शन किया जा सकता है, जबकि आदिवासी भाषाओं और शिक्षा के बजट में कटौती की जा रही है। उनकी पहचान को संस्कृति से अलग किया जाता है और दोनों को नुकसान पहुँचाया जाता है। इस प्रक्रिया को सही मायने में सांस्कृतिक उपनिवेशवाद कहा जा सकता है। संस्कृति को सजाया जाता है और उसका प्रदर्शन किया जाता है, लेकिन उसके अर्थ और शक्ति को छीन लिया जाता है। बिरसा का मूल संदेश था कि अपनी संस्कृति का होना, अपने पास नियंत्रण के अधिकार का होना है।
बिरसा ने अपना अलग धर्म बनाया, न हिंदू, न ईसाई, बल्कि यह एक आदिवासी लोक का नवीकरण था। आज के भारत में, जहाँ धर्म के आधार पर ध्रुवीकरण तेज़ी से बढ़ रहा है, बिरसा का रुख़ बेहद महत्वपूर्ण है। उन्होंने बाहरी धर्मों को नफ़रत के कारण नहीं नकारा। उनकी अस्वीकृति आत्म-सम्मान और आत्म-पहचान में निहित थी। उनका धर्म एक ईश्वर के विचार की पुष्टि करता था, लेकिन एक ऐसा ईश्वर, जो ज़मीन, पेड़ों और समुदाय और पर्यावरण-केंद्रित एकेश्वरवाद से जुड़ा था। इसके विपरीत, हिंदू धर्म, ईसाई धर्म, इस्लाम और अन्य धर्मों में, उन्होंने मनुष्यों को व्यापक प्राकृतिक दुनिया से अलग करने और ईश्वर को सबसे ऊपर रखने की प्रवृत्ति देखी। उनके दर्शन में, ईश्वर, मनुष्य, पहाड़ और नदियाँ, सभी समान रूप से हिस्सेदारी करते हैं और कोई भी सर्वोच्च नहीं है। आज भी, उनके विचार हमें सिखाते हैं कि धर्म का असली उद्देश्य मानवीय गरिमा, मानव और प्राकृतिक अस्तित्व का संतुलन है, न कि विभाजन।
तीन :
लंबे संघर्षों और बलिदानों के बाद, जब वर्ष 2000 में झारखंड एक अलग राज्य बना, तो बिरसा मुंडा को इसका प्रतीक पुरुष चुना गया। विश्वविद्यालय, हवाई अड्डे, स्टेडियम, डाक टिकट, सभी पर उनके नाम से मुहर लगने लगी। फिर भी, हम देखते हैं कि उनके नाम का इस्तेमाल राजनीति और सत्ता के आभूषण के रूप में किया जा रहा है। बिरसा मुंडा स्मृति पार्क तो बन सकता है, लेकिन उसी क्षेत्र के आदिवासी अक्सर नई औद्योगिक परियोजनाओं के लिए अपनी ज़मीन गँवा देते हैं। यह दोमुंहापन दिखाता है कि कैसे बिरसा को एक प्रतीक बना दिया गया है, जबकि उनके दर्शन को अनदेखा किया जाता है। वे ज़मीन और आज़ादी के लिए लड़ने वाले योद्धा थे। फिर भी, आज उनके नाम का इस्तेमाल विस्थापन और वनों की कटाई का कारण बनने वाली नीतियों को बढ़ावा देने के लिए किया जाता है।
राजनीतिक भाषणों में, बिरसा को अक्सर एक राष्ट्रीय स्तर के स्वतंत्रता सेनानी के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। यह निश्चित रूप से उन्हें सम्मान देता है, लेकिन यह उनकी आदिवासी पहचान को मिटा देता है। बिरसा ने एक राष्ट्रवादी राज्य के लिए लड़ाई नहीं लड़ी। उन्होंने एक ऐसी भूमि के लिए लड़ाई लड़ी, जहाँ आदिवासियों को आत्मनिर्णय का पूर्ण अधिकार होगा, जहाँ मनुष्यों के बीच और मनुष्य और प्रकृति के बीच कोई विभाजन नहीं होगा। उनका उद्घोष, 'अबुआ दिसुम अबुआ राज', स्थानीय संप्रभुता का दावा था, राष्ट्रवाद का नहीं। और यह उद्घोषणा केवल एक क्षेत्र के लिए नहीं है। यह पूरी दुनिया की बात करती है, एक ऐसी दुनिया जहाँ कोई भी इंसान दूसरे पर हावी नहीं होता और प्रकृति पर पूँजी का वर्चस्व नहीं होता। इस प्रकार, जैसे-जैसे उनका प्रतीकात्मक कद बढ़ा है, उनके क्रांतिकारी विचार फीके पड़ गए हैं, मानो उन्हें एक स्थिर मूर्ति में बदल दिया गया हो। अब उन्हें एक जीवित, साँस लेते हुए विचार के रूप में नहीं देखा जाता।
सत्ता में बैठे लोग आम तौर पर किसी क्रांतिकारी व्यक्ति को तीन तरीकों से अपना बनाते हैं : क. छद्म प्रशंसा और अनुष्ठानिक स्मरण के माध्यम से, जैसे छुट्टियों की घोषणा करना, डाक टिकट जारी करना, मूर्तियाँ स्थापित करना। ख. विकृत पुनर्व्याख्या के माध्यम से, उनके आंदोलन को विद्रोह के बजाय एक शांतिपूर्ण सुधार आंदोलन के रूप में चित्रित करना। और ग. नियंत्रण के माध्यम से, उनके नाम का उपयोग उन नीतियों को सही ठहराने के लिए करना, जो उनके आदर्शों के विपरीत हैं। बिरसा के मामले में ये तीनों चरण घटित हुए हैं। उदाहरण के लिए, जहाँ सरकारी नीतियाँ वन क्षेत्रों के निजीकरण की ओर बढ़ रही हैं, वहीं विस्थापन झेल रहे क्षेत्रों में बिरसा मुंडा दिवस मनाया जाता है।
टेलीविजन, पाठ्यपुस्तकों और राजनीतिक अभियानों में, बिरसा को अक्सर एक साहसी युवा योद्धा, उपदेशक और निस्वार्थ नेता के रूप में चित्रित किया जाता है। लेकिन उनके इस चित्रण में उनका राजनीतिक दर्शन अनुपस्थित है। उन्हें भगवान बिरसा कहा जाता है, इस प्रकार उन्हें मानवीय संघर्ष के क्षेत्र से देवत्व की ओर ले जाया जाता है, जहाँ प्रश्न पूछने, तर्क करने या सामाजिक आलोचना के लिए बहुत कम जगह है। यह प्रक्रिया, जिसे अराजनीतिकरण कहा जाता है, धार्मिक या नैतिक कल्पना के पीछे राजनीतिक विद्रोह को छिपा देती है।
आज झारखंड और आसपास के राज्यों में कई युवा, शिक्षक और कार्यकर्ता बिरसा के नाम पर बिरसा सेवा संघ, धात्री आभा आंदोलन, उलगुलान मंच आदि जैसे संगठन बना रहे हैं। ये समूह शिक्षा, पर्यावरण और महिला अधिकारों जैसे क्षेत्रों में काम करते हैं। फिर भी, उनकी यह भी शिकायत है कि जहाँ राजनेता चुनावों के दौरान बिरसा को एक भावनात्मक प्रतीक के रूप में याद करते हैं, वहीं नीति निर्धारण के समय उनके आदर्शों की अनदेखी की जाती है। यह स्मृति की राजनीति का एक उदाहरण है, जहाँ अतीत की स्मृति का उपयोग वर्तमान की सुविधा के लिए किया जाता है।
चार :
बिरसा मुंडा केवल एक आदिवासी नायक नहीं थे, वे प्रकृति, न्याय और स्वतंत्रता के दार्शनिक थे। उनका जीवन और संघर्ष हमें सिखाता है कि :
-- भूमि केवल एक आर्थिक संसाधन नहीं है, यह संस्कृति का आधार है।
-- संस्कृति केवल गीत और नृत्य नहीं है, यह गरिमा और नैतिक शक्ति की अभिव्यक्ति है।
-- राजनीति केवल सत्ता का खेल नहीं है, यह सामाजिक न्याय की स्थापना का एक साधन है।
आज विकास के नाम पर जंगल काटे जा रहे हैं, नदियाँ सूख रही हैं, भाषाएँ लुप्त हो रही हैं। ऐसे समय में, बिरसा की वाणी हमें याद दिलाती है, "जो समाज प्रकृति को भूल जाता है, वह स्वयं को नष्ट कर लेता है।" इन शब्दों में, हम उस व्यक्ति कार्ल मार्क्स की, जिससे बिरसा का कोई सीधा परिचय नहीं था, की हल्की-सी प्रतिध्वनि सुन सकते हैं -- इस धरती का असली मालिक कोई नहीं है, हम तो बस इसके अस्थायी निवासी हैं।
इसलिए, बिरसा को एक प्रतीक में बदलने का और पूंजी के हमले के जरिए उनके विचारों को अप्रभावी बनाने का जो खेल चल रहा है, उसका पर्दाफाश और प्रतिरोध किया जाना चाहिए। विद्रोह के प्रतीक को राज्य के आज्ञाकारी शुभंकर में बदलने की साजिश को ध्वस्त करने के काम को राजनीति को पूरा करना होगा। बिरसा ने स्वशासन की बात की थी, फिर भी उनके नाम पर अब दूसरे लोग शासन कर रहे हैं। बिरसा के सपनों के आत्मनिर्णय के अधिकार को स्थापित करने के संघर्ष को आगे बढ़ाने के काम को हमारे समय का एक केंद्रीय राजनीतिक विकल्प माना जाना चाहिए।
बिरसा को सच्ची श्रद्धांजलि केवल उनकी जयंती मनाने में नहीं, बल्कि उनके दर्शन को पुनर्जीवित करने में निहित है। वे हमें याद दिलाते हैं कि आज़ादी का मतलब लोगों पर राज्य का अधिकार नहीं है, आज़ादी का मतलब है मानव और प्रकृति की एक साथ आगे बढ़ने की क्षमता, उन लोगों के लिए, जो पूंजीवाद के खिलाफ संघर्ष में अडिग हैं, बिना किसी वर्चस्व के एक-दूसरे से जुड़ना। लंबे समय से उपेक्षित बिरसा एक मार्गदर्शक और पथप्रदर्शक के रूप में लौटते हैं।
(लेखक सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ता हैं। अनुवादक अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं। संपर्क : 94242-31650)