"आमार सोनार बांग्ला" और आरएसएस-भाजपा की नफ़रत फैलाने वाली विभाजनकारी राजनीति
(आलेख : नीलोत्पल बसु, अनुवाद : संजय पराते)
लॉर्ड कर्ज़न अपनी कब्र में ज़रूर हँस रहे होंगे। बराक घाटी के करीमगंज ज़िले का नाम बदलकर श्रीभूमि कर दिया गया है। हाल ही में इस जिले में एक स्थानीय कांग्रेस नेता ने रवींद्रनाथ टैगोर का प्रसिद्ध गीत "आमार सोनार बांग्ला, आमी तोमाय भालोबासी" गाया। इस पर हेमंत बिस्वा सरमा सरकार ने तुरंत तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की। मुख्यमंत्री ने इसे विपक्ष को बदनाम करने और उनकी निष्ठा पर सवाल उठाने का 'मौका' समझते हुए लपक लिया। 1971 में राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन की विजय और नए गणराज्य के गठन के बाद इस गीत को बांग्लादेश के राष्ट्रगान के रूप में अपनाया गया था। विदेशी निष्ठा का आरोप लगाते हुए, आरएसएस-भाजपा इस तथ्य को भूल गई कि यह गीत, अन्य विषयों के साथ, पूर्वी पाकिस्तान के बंगाली भाषी लोगों पर उर्दू थोपे जाने और पाकिस्तानी शासकों द्वारा धार्मिक पहचान से प्रेरित राष्ट्रवाद के अन्य कुचक्रों के विरुद्ध भाषाई और सांस्कृतिक विद्रोह की अभिव्यक्ति है।
बहरहाल, समकालीन इतिहास हमें बताता है कि दक्षिण एशियाई भूभाग की सांस्कृतिक विविधता में राष्ट्रवाद की एक-आयामी परिभाषा टिक नहीं सकती। इस गीत के विकास का इतिहास स्वयं बांग्ला भाषी लोगों के संघर्ष का प्रमाण है, जो विभाजन और बँटवारे की ब्रिटिश औपनिवेशिक नीति के विरुद्ध समावेशी दृष्टिकोण को रेखांकित करता है। बांग्लादेश का निर्माण इस बात का निर्णायक प्रमाण था कि सांस्कृतिक रूप से विविध और दो हज़ार मील की भौतिक दूरी रखने वाले दो क्षेत्रों को एक साथ रखने के लिए धार्मिक पहचान का बंधन पूरी तरह से अपर्याप्त था।
यह गीत ब्रिटिश सरकार द्वारा बंगाल के पहले विभाजन के तत्काल विरोध में लिखा गया था। अविभाजित बंगाल प्रांत को दो अलग-अलग राज्यों में विभाजित करने का निर्णय भारत के वायसराय लॉर्ड कर्जन द्वारा 19 जुलाई, 1905 को घोषित किया गया था और 16 अक्टूबर, 1905 को यह लागू हुआ। 7 अगस्त, 1905 को कलकत्ता के ऐतिहासिक टाउन हॉल में हुई एक विरोध सभा के लिए, उस पहले 'विभाजन' के खिलाफ एक मुखर प्रतिरोध के रूप में रविन्द्र ने यह गीत लिखा था और इसे संगीत दिया था। यह वास्तव में प्रतिरोध की उस विरासत का एक विस्तार था कि बांग्लादेश मुक्ति युद्ध के दौरान इस गीत की पहली दस पंक्तियों को 10 अप्रैल, 1971 को बांग्लादेश की अंतरिम सरकार द्वारा बांग्लादेश के राष्ट्रगान के रूप में अपनाया गया था। आज, कर्जन की विरासत को भाजपा-आरएसएस ढो रही है और उनके पोस्टर ब्वॉय हिमंता जीवित और सक्रिय हैं। असम सरकार ने इस गीत को राष्ट्र-विरोधी घोषित कर दिया है, ताकि यह दावा किया जा सके कि यह गीत बराक घाटी के लोगों की विदेश-निष्ठा को दर्शाता है, जबकि यह बांग्लादेश द्वारा राष्ट्रगान के रूप में अपनाए जाने से 66 साल पहले लिखा गया था।
दरअसल, इस गीत के ख़िलाफ़ यह मुहिम बांग्ला भाषा पर केवल उस व्यवस्थित हमले का ही एक हिस्सा नहीं है, जब बांग्ला भाषा को बांग्लादेशी बताकर उसे बदनाम करने की कोशिश की गई थी। यह आवेगपूर्ण वर्गीकरण सिर्फ़ इस बात पर ज़ोर देने के लिए था कि इस भाषा का संबंध 'घुसपैठ' से है! हम इस बात को कैसे छिपा सकते हैं कि एक ही भाषा सीमा के दोनों ओर दो देशों में बोली जा सकती है।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि भाजपा और हिमंता असम में हताशा की स्थिति में हैं, जहाँ अगले साल की शुरुआत में चुनाव होने वाले हैं। स्वयं मुख्यमंत्री के नेतृत्व में कॉर्पोरेट भूमि अधिग्रहण किया जा रहा है। भूमि अधिग्रहण के शिकार लोगों द्वारा बेदखली और बुलडोजर का विरोध किया जा रहा हैं। अल्पसंख्यक विरोधी इस हमले के साथ ही अब आदिवासी क्षेत्रों में भूमि अधिग्रहण के मामलों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। असम के छह प्रमुख आदिवासी समूह -- ताई अहोम, मोरान, मोटोक, चुटिया, चाय जनजाति या आदिवासी और कोच-राजबंगसी -- जो राज्य की कुल आबादी का लगभग तीस प्रतिशत हिस्सा बनाते हैं, भाजपा के समर्थन आधार का एक बड़ा हिस्सा हैं। इन में से हर आदिवासी समूह भूमि से अलगाव के खिलाफ व्यापक संभव प्रतिरोध विकसित करने के लिए बाध्य हैं और अब वे अनुसूचित जनजाति (एसटी) का दर्जा देने की मांग को लेकर सड़कों पर हैं। इस समय वे राज्य की अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) सूची में शामिल हैं। अब ये सभी छह समुदाय अनुसूचित जनजाति के रूप में मान्यता चाहते हैं, जिससे उन्हें वर्तमान में उपलब्ध सीमित अवसरों की तुलना में शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में आरक्षण तक अधिक पहुंच सुनिश्चित हो सके।
भीषण बेरोजगारी के मुद्दे के साथ ही, विभिन्न जातीय और धार्मिक विविधताओं के बावजूद, राज्य के युवाओं ने अपनी आवाज़ बुलंद की है और वे एक नए दृष्टिकोण से प्रेरित हैं, जिसे असमिया लोगों के यशस्वी सपूत ज़ुबिन गर्ग ने निडरता से व्यक्त किया था। यही हिमंता के आक्रोश की पृष्ठभूमि है।
लेकिन यह सिर्फ़ असम की बात नहीं है। पूरे देश में हिंदुत्व की अलगाववादी राजनीति को ऐसी ही नफ़रत की आवाज़ें ऊर्जा देती हैं। भाषा के सवाल पर, कुछ समय पहले मराठी भाषा पर हिन्दी को थोपने के विरोध में आवाज़ें उठी थीं। कथित घुसपैठ और घुसपैठियों के ख़िलाफ़ लगातार हमलों के बाद, हिंदुत्व के शीर्ष नेताओं ने चुनाव आयोग को एसआईआर प्रक्रिया शुरू करने के लिए उकसाया, ताकि नागरिकता के सवाल को पिछले दरवाज़े से वापस लाया जा सके। लेकिन यह एक बेकार कोशिश साबित हुई! 7 करोड़ 42 लाख मतदाताओं में से केवल 9,500 या कुल मतदाताओं का 0.012% ही विदेशी पाए गए हैं। अमित शाह का 'पता लगाओ, हटाओ, निर्वासित करो' (डिटेक्ट, डिलीट, डिपोर्ट) का नारा बेबुनियाद साबित हुआ है।
लेकिन सच्चाई से क्या लेना-देना! हम तो 'पोस्ट ट्रुथ' की दुनिया में जी रहे हैं! यह चुनाव का मौसम है! भाजपा के करोड़ों रुपये उस फर्जी खबर मशीन को चलाने में खर्च होंगे, जो नफ़रत और भेदभाव के अभियान को हवा देने के लिए फर्जी और तोड़-मरोड़ कर खबरें गढ़ रही है। आज ज़रूरत इस बात की है कि हम एकजुट रहें और अपने जीवन और आजीविका के रोज़मर्रा के संकट, जो आज हमारे अस्तित्व के लिए ख़तरा बन गए है, के समाधान के लिए एक स्वर में बोलें।
(लेखक माकपा पोलिट ब्यूरो के सदस्य और 'पीपुल्स डेमोक्रेसी' के संपादक हैं। अनुवादक अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं। संपर्क : 94242-31650)