(आलेख : संजय पराते)
बिहार के विधानसभा चुनाव का पहला चरण 6 नवम्बर को संपन्न हो गया। वोट ईवीएम में कुछ दिनों के लिए कैद हो गए हैं। इसी समय 4 नवम्बर को संपन्न हुए जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रसंघ चुनावों के नतीजे बाहर आ गए हैं। सत्ता की ताकत के सहारे जीत का सपना देखने वाली एबीवीपी धराशाही हो गई है और छात्रसंघ के चारों पदों पर, जिनमें से 3 पर छात्राएं थीं, लेफ्ट यूनिटी के वाम उम्मीदवारों को जीत का सेहरा मिला है। सही मायनों में महिला सशक्तिकरण की अवधारणा को लेफ्ट ने ही आगे बढ़ाया है। इन चुनावों में लगभग 40 पैनल थे, बहुत से छात्र संगठन इसमें शामिल थे, लेकिन मुकाबला एबीवीपी और लेफ्ट यूनिटी के बीच में ही था। विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस का छात्र संगठन एनएसयूआई इस मुकाबले में कहीं नहीं था।
जेएनयू अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त विश्वविद्यालय है और इसलिए यहां होने वाली घटना पर पूरी दुनिया का ध्यान जाता है। इस विश्वविद्यालय का नाम जवाहरलाल नेहरू पर रखा गया है। नेहरू से संघी गिरोह की दुश्मनी जग जाहिर है, सो इस विश्वविद्यालय से भी उनकी खुन्नस छुपी हुई नहीं है। इस विश्वविद्यालय को प्रगतिशील, वैज्ञानिक और आजाद विचारों की अभिव्यक्ति का प्रतीक माना जाता है। ऐसी कोई राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय घटना नहीं होती, जिस पर जेएनयू का छात्र जगत अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त न करता हो। जिस तरह हमारे देश को 'आइडिया ऑफ इंडिया' का विचार परिभाषित करता है, उसी के संग कदमताल करता हुआ 'आइडिया ऑफ जेएनयू' का विचार इस विश्वविद्यालय की विशिष्टता को परिभाषित करता है। जिस तरह 'आइडिया ऑफ इंडिया' का विचार संघी गिरोह के निशाने पर है, उसी तरह 'आइडिया ऑफ जेएनयू' को भी नष्ट करने की कोशिश की जा रही है। इस कोशिश में संघी गिरोह ने इस विश्वविद्यालय को एक ऐसे शिक्षा केंद्र के रूप में दुष्प्रचारित करने की कोशिश की है, जहां देशद्रोही छात्रों का जमावड़ा हो गया है, जो इस देश को कई टुकड़ों में बांटने की फिराक में है। गोदी मीडिया के जरिए यहां प्रगतिशील और वामपंथी सोच रखने वाले छात्रों को टुकड़े-टुकड़े गैंग के रूप में चित्रित किया गया है। इस विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले दो छात्र -- उमर खालिद और शरजील इमाम -- पिछले पांच सालों से दिल्ली के दंगों में हिंसा भड़काने के आरोप में जेल में बंद है, उनके खिलाफ आज तक कोई चार्जशीट मोदी सरकार पेश नहीं कर पाई है और जमानत की सुनवाई के समय अदालतें भाग खड़ी होती है। साफ है कि यह 'राज्य प्रायोजित दमन' का मामला है।
जेएनयू में पिछला छात्रसंघ चुनाव तीन साल पहले 2022 में हुआ था, उस समय एबीवीपी का संयुक्त सचिव पद का प्रत्याशी विजयी हुआ था, बाकी 4 में से 3 पद लेफ्ट ने ही जीते थे। नतीजा यह हुआ कि छात्रसंघ में एबीवीपी का प्रतिनिधि हमेशा विश्वविद्यालय प्रबंधन और प्रशासन के साथ खड़ा रहा और प्रबंधन ने छात्रसंघ के बहुमत की किसी भी जायज मांग को मानने से इंकार कर दिया। इस स्थिति का फायदा उठाते हुए प्रबंधन ने चुनाव कराना ही छोड़ दिया था और इस बार छात्र समुदाय के भारी दबाव के बाद ही, और इस आशा में कि एबीवीपी इस बार बढ़त हासिल करेगी, उसने मजबूरी में ही ये चुनाव करवाए थे। लेकिन एबीवीपी को किसी भी पद पर सफलता नहीं मिलना संघी गिरोह के लिए बहुत बड़ा झटका है, जबकि सत्ता की ताकत, संघ का संगठन और विश्वविद्यालय का प्रशासन उसके साथ था और हर कीमत पर उसको विजयी बनाने की तिकड़में कर रहा था।
लेफ्ट की जीत जेएनयू परिसर में उसके संघर्षों का नतीजा है। चाहे मामला फीस वृद्धि का हो, या छात्रवृत्ति में कटौती का, या फिर बेरोजगारी और छात्रों के अधिकारों का मुद्दा हो, वाम संगठनों के संघर्षों से यह परिसर जीवंत रहा है। विश्वविद्यालय प्रशासन छात्र समुदाय के इसी अधिकार को खत्म करने की कोशिश कर रहा है और संघी गिरोह के आनुषंगिक संगठन के रूप में एबीवीपी उसके साथ रही है। इसी के कारण विश्वविद्यालय परिसर में लाल और भगवा के बीच में टकराव होते रहा है, जिसकी परिणति विश्वविद्यालय प्रशासन के समर्थन से पुलिस हस्तक्षेप में हुई है। लेफ्ट की जीत बताती है कि जेएनयू के छात्र समुदाय ने विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा परिसर की स्वायत्तता को कुचले जाने को पसंद नहीं किया है। चुनाव का यह बड़ा मुद्दा था। लेफ्ट विश्वविद्यालय परिसर की स्वायत्तता का समर्थन कर रहा था और एबीवीपी का मुद्दा लेफ्ट से कैंपस की सुरक्षा का था, जिस पर वह राष्ट्रवाद का भगवा रंग चढ़ा रहा था। इसलिए हमेशा की तरह यह चुनाव भी विचारधारा का संघर्ष था और ऐसी कठिन राजनैतिक परिस्थितियों में, जब देश के नागरिकों के बुनियादी अधिकार और संविधान ही खतरे में है और जब देश एक अघोषित आपातकाल का सामना कर रहा है, जेएनयू के छात्र समुदाय ने वामपंथी विचारधारा और वामपंथ के देशव्यापी संघर्षों का समर्थन किया है।
सत्ता और प्रशासन की सम्मिलित ताकत के साथ अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद संघी गिरोह का जनाधार जेएनयू के छात्र समुदाय के एक तिहाई से ज्यादा हिस्से में नहीं है। इस चुनाव में कुल 5802 छात्रों ने चारों पदों के लिए 23208 वोट दिए थे। इसमें से 1098 किसी प्रत्याशी को नहीं पड़े थे। इन वोटों को हटा दिया जाएं, तो वैध मत 22110 होते हैं। इसमें से लेफ्ट यूनिटी को कुल मिलाकर 9126 वोट (41.3%) तथा एबीवीपी को 6973 वोट (31.5%) मिले हैं। बाकी 6011 (27.2%) वोट भी उन संगठनों और ग्रुप्स के हैं, जिन्हें दक्षिणपंथी तो कतई नहीं कहा जा सकता। लेफ्ट यूनिटी लगभग 10% वोटों के अंतर के साथ एबीवीपी से आगे है।
लेकिन इससे जेएनयू के अंदर संघी गिरोह की ताकत को कम करके नहीं आंका जाना चाहिए। आखिरकार वर्ष 2000 के चुनाव में तो अध्यक्ष पद पर उसका उम्मीदवार जीता था, भले ही 1 वोट से सही। इस बार भी पहले की तरह काउंसिलर पद पर उसके कई उम्मीदवार जीते हैं।
पूरी दुनिया में, और हमारे देश में भी, दक्षिणपंथ और वामपंथ के बीच संघर्ष चल रहा है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय हमारे देश में चल रहे इस संघर्ष का प्रतीक है। दुनिया के अन्य हिस्सों की तरह, जेएनयू में छात्रसंघ चुनावों में वामपंथ की जीत इस बात को पुष्ट करती है कि एकजुट वामपंथ ही दक्षिणपंथ का सफलता के साथ मुकाबला कर सकता है। यह एकता जमीनी स्तर पर जितनी मजबूत होगी, दक्षिणपंथ को उतने ही बड़े स्तर पर विचारधारात्मक चुनौती भी दी जा सकेगी।
जेएनयू में बिहार से आए छात्रों का एक बड़ा हिस्सा पढ़ता है। इसलिए जेएनयू में वामपंथ की जीत बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों का पूर्वाभास तो देती ही है। यदि नहीं, तो नीतीश को पुनः मुख्यमंत्री बनाने की घोषणा अमित शाह फिर क्यों करते? जेएनयू में वामपंथ की जीत से मोदी-शाह-संघ की तिकड़ी को वैसा ही झटका लगा है, जैसा ट्रंप को ममदानी के जीतने से। आखिरकार, भगवा विचारधारा को सींग से पकड़कर पटकनी देने की ताकत लाल में ही है। आज जेएनयू लाल सलाम के नारों से गुंजायमान है।
बिहार की सभाओं में योगी ने पूछा था : दुनिया में कम्युनिस्ट हैं कहां? जेएनयू इसका जवाब दे रहा है, हम यहां है। न्यूयॉर्क इसका जवाब दे रहा है कि हम यहां हैं। बिहार भी इसका यही जवाब देने जा रहा है कि हम यहां है। पूरी दुनिया का एकजुट जवाब यही है कि कम्युनिस्ट गए कहीं नहीं हैं, वे यहीं हैं, आम जनता के साथ मिलकर संघर्ष कर रहे हैं, अपने सुनहरे भविष्य के ताने बाने बुन रहे हैं, दक्षिणपंथ की ताकतों को शिकस्त देते हुए। 14 नवम्बर को जवाहरलाल नेहरू का जन्म दिवस है, जिस दिन बिहार चुनाव के नतीजे पुनः उनकी प्रासंगिकता को सिद्ध करेंगे।
(लेखक अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं। संपर्क : 94242-31650)