(आलेख : राजेंद्र शर्मा)
जैसा कि अनुमान लगाया जा रहा था, बिहार में चुनाव प्रचार के अंतिम चरण तक आते-आते, प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के नेतृत्व में भाजपा ने, अपना जाना-पहचाना ''घुसपैठिया'' राग छेड़ दिया। सभी जानते हैं कि संघ-भाजपा के लिए ''घुसपैठिया'', मुसलमानों के लिए ही इस्तेमाल किया जाने वाला दूसरा शब्द है, जिसके इस्तेमाल के दो फायदे हैं। एक तो इसके जरिए मुसलमानों को न सिर्फ ''पराया'' बल्कि ''खतरा'' और इसलिए ''दुश्मन'' बनाया जा सकता है। दूसरे, ऐसा करते हुए कम से कम औपचारिक रूप से मुस्लिम विरोधी होने के आरोप से खुद को बचाने के लिए तिनके की ओट बनाए रखी जा सकती है।
प्रधानमंत्री ने अररिया में अपने चुनाव प्रचार के आखिरी दिन की अपनी सभा में और अमित शाह ने चुनाव प्रचार के ही आखिरी दिन पूर्णिया की अपनी सभा में, पूरे गले से यह ''घुसपैठिया'' राग गाया। बेशक, उनके इस राग में नया कुछ भी नहीं था। वास्तव में झारखंड के विधानसभाई चुनाव में मोदी ने जिस तरह पूरे गले से यह राग गाया था, उसके बाद उनके लिए अपने इस राग में जोड़ने के लिए कुछ खास नया रहता ही नहीं था। हां! झारखंड से भिन्न बिहार में ''बहन-बेटियों'' के लिए खतरे का, उनके ''बहन-बेटियों'' को ले जाने का डर नहीं दिखाया जा रहा था। उल्टे भाजपा की शीर्ष जोड़ी ने और उसमें भी खासतौर पर अमित शाह ने अपने श्रोताओं में जोश पैदा करने की उम्मीद में, बिहार में यह नया आश्वासन जरूर जोड़ा कि घुसपैठियों ने जो धंधे खड़े कर लिए हैं और जमीनें हासिल कर ली हैं, उन्हें खाली कराया जाएगा।
बेशक, घुसपैठियों के मुद्दे को झारखंड की तरह, प्रधानमंत्री और उनके नंबर-दो के पहले दिन से ही बिहार में अपने चुनाव प्रचार की मुख्य थीम नहीं बनाने की वजह, कम-से-कम इस खुल्लम खुल्ला सांप्रदायिक दुहाई का इस्तेमाल करने में उनकी किसी हिचक में नहीं थी। इसकी सबसे बड़ी वजह, बिहार में भाजपा की सत्ता तक पहुंचने के लिए गठजोड़ की और वह भी एक ऐसे नेता, नीतीश कुमार को आगे रखकर गठजोड़ बनाए रखने की मजबूरी थी, जिनकी पार्टी जदयू को गठजोड़ का खुले तौर पर सांप्रदायिक रुख अपनाना मंजूर नहीं था।
इसके ऊपर से बिहार के ही संदर्भ में, घुसपैठियों के मुद्दे को भुनाने में एक कठिनाई और थी। बिहार में विधानसभाई चुनाव से ऐन पहले, विपक्ष की सारी आपत्तियों को अनसुना करते हुए चुनाव आयोग द्वारा अचानक मतदाता सूचियों के ''शुद्घीकरण'' के नाम पर जो विशेष सघन पुनरीक्षण या एसआइआर कराया गया था, उसके जरूरी होने के कारण के रूप में, सूचियों में बड़ी संख्या में ''गैर-नागरिकों'' की मौजूदगी का दावा किया गया था। इसे संघ-भाजपा द्वारा न सिर्फ एसआइआर कराने के उसके फैसले के बचाव के लिए, बल्कि आम तौर पर अपने सांप्रदायिक प्रचार के हिस्से के तौर पर, खूब उछाला भी गया था। यहां तक कि खुद प्रधानमंत्री मोदी ने इस अभियान में अपनी आवाज जोड़ी थी और विपक्ष को घुसपैठियों का संरक्षक बताया था। लेकिन, इस सब के बावजूद, एसआइआर की प्रक्रिया जब पूरी हुई और चुनाव आयोग द्वारा अपनी ओर से अंतिम और जाहिर है कि ''शुद्घ की हुई'' मतदाता सूचियां जारी की गयीं, उसमें हटाए गए नामों में कुल कितने नाम विदेशियों या घुसपैठियों के थे, चुनाव आयोग को यह बताने की हिम्मत ही नहीं हुई।
वास्तव में, मतदाता सूचियों की इस पहलू से छानबीन करने वाले कुछ अध्ययनों में यह सचाई सामने आयी है कि कुल आठ करोड़ मतदाताओं में, संघ-भाजपा की परिभाषा के हिसाब से घुसपैठिया या मुसलमान विदेशी कहे जा सकने वालों की संख्या, आधा दर्जन भी नहीं निकलेगी। विदेशियों की गिनाने लाइक संख्या, नेपालियों की ही पायी गयी है और उसमें भी बड़ा हिस्सा विवाह कर बिहार के नेपाल से लगती सीमाओं वाले जिलों में रह रही नेपाली बहुओं का है। क्योंकि ''घुसपैठियों के खतरे'' के झूठ की पोल खोलने वाले एसआइआर के ये आंकड़े एकदम हाल के हैं, संघ-भाजपा के लिए भी यह मानना मुश्किल था कि चुनाव में इस मुद्दे को उछालने से अपने कार्यकर्ताओं को थोड़ा उत्साहित करने के सिवा किसी खास लाभ की उम्मीद की जा सकती है। इसीलिए, प्रधानमंत्री समेत संघ-भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने अपने चुनाव प्रचार में घुसपैठियों के मुद्दे से आम तौर पर परहेज किया। लेकिन, ऐसा लगता है कि पहले चरण में 121 सीटों के मतदान में जिस तरह के रुझान दिखाई दिए, उनके बाद संघ-भाजपा को हताशा के उपाय के तौर पर घुसपैठियों का खतरा प्रचारित करना ही इकलौता उपाय नजर आया है।
और इसे कार्यनीतिक तरीके से विशेष रूप से सीमांचल के इलाके में आजमाया गया है, जहां मुस्लिम आबादी अपेक्षाकृत ज्यादा है और गठजोड़ में सीटों के बंटवारे में भाजपा के हिस्से में अपेक्षाकृत कम सीटें आयी हैं। आम तौर पर ऐसा माना जा रहा है कि पहले चरण के रुझानों ने, जिनमें भाजपा के बराबर संख्या में सीटों पर चुनाव लड़ने के बावजूद, भाजपा के मुकाबले जदयू ठीक-ठाक आगे निकलती नजर आती है, भाजपा और जदयू के बीच रस्साकशी को और तीखा कर दिया है। ऐसे में भाजपा, किसी भी कीमत पर अपनी सीटों पर हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण कर के अपनी संख्या बढ़ाना चाहती है, भले ही इसका नतीजा इसकी प्रतिक्रिया में मुस्लिम वोटों का समग्रता में एनडीए के खिलाफ ही नहीं, महागठबंधन के पक्ष में ध्रुवीकरण भी हो। याद रहे कि सीमाचंल क्षेत्र में खासतौर पर इंडिया के मुस्लिम वोट में ही विभाजन के लिए, एमआइएम ने अपने उम्मीदवार उतारे हैं। इसके अलावा प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी भी मैदान में है। घुसपैठियों के खतरे की दुहाई का इस्तेमाल, भाजपा की बदहवास कोशिश ही ज्यादा है।
बहरहाल, मतदाताओं का रुझान बहुत हद तक साफ हो जाने और महागठबंधन का पलड़ा भारी नजर आने के बावजूद, यह नहीं कहा जा सकता है कि 14 तारीख की मतगणना के नतीजे भी इसी को प्रतिबिंबित करेंगे। बिहार के चुनाव के सिलसिले में चुनाव आयोग का अब तक का जो पूरी तरह से पक्षपातपूर्ण आचरण रहा है और जिस तरह से चुनाव पर्यवेक्षकों समेत चुनाव संंबंधी जिम्मेदारियां संभालने के लिए राज्य से बाहर से छांट-छांटकर सत्ता पक्ष के अनुकूल अधिकारियों को ही तैनात किया गया है और जिस तरह अमित शाह के पटना में बैठकर गुपचुप तरीके से अधिकारियों को नियंत्रित करने की खबरें आ रही हैं, उससे इसकी गंभीर आशंकाएं पैदा होती हैं कि कहीं जनता की इच्छा और चुनाव नतीजों के बीच खेल तो नहीं हो जाएगा? हैरानी की बात नहीं है कि महागठबंधन के नेता, खासतौर तेजस्वी यादव और राहुल गांधी, बार-बार जनता को और खासतौर पर युवाओं को आगाह कर रहे हैं कि वोट चोरी से लेकर नतीजा चोरी तक की कोशिशों के प्रति सतर्क रहें और ऐसी कोशिशों को विफल करें।
याद रहे कि यह चुनाव कम से कम तीन पहलुओं से तो पहले ही दूषित किया जा चुका है। पहला, रैफ्री की हैसियत से चुनाव आयोग ने बराबरी का मैदान सुनिश्चित करने की रत्ती भर कोशिश नहीं की है, बल्कि वह तो खुद ही हरेक मामले में सत्ता पक्ष की टीम में शामिल नजर आया है। इसका सबसे बड़ा सबूत, चुनावों के बीचौ-बीच जदयू-भाजपा सरकार को महिलाओं के खाते में दस-दस हजार रूपये भेजने देना है, जो आदर्श चुनाव संहिता का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन है, क्योंकि इस तरह के मामलों में इससे पहले एक से ज्यादा मौकों पर चुनाव आयोग, राज्य सरकारों के ऐसे फैसलों को रोक चुका है। इसी का एक और सबूत, भाजपा द्वारा विशेष रेलगाड़ियों से हजारों की संख्या में बिहार के लोगों को मतदान कराने के लिए देश के विभिन्न हिस्सों से बिहार लाया जाना है। इस संबंध में हरियाणा से चार विशेष रेलगाड़ियों से करीब छ: हजार लोगों को मतदान के लिए बिहार लाए जाने के साक्ष्य, वरिष्ठ अधिवक्ता व सांसद, कपिल सिब्बल ने पेश भी किए हैं। जाहिर है कि किसी भी पार्टी का ऐसा करना भी, अवैध चुनावी आचरण है।
चुनाव के प्रदूषित किए जाने का दूसरा पहलू, बाहर के लोगों का बिहार में आकर मतदान करना है। दिल्ली और उत्तराखंड के कम से कम आधा दर्जन ऐसे भाजपा नेताओं के तस्वीरों समेत नाम अब तक सामने आ चुके हैं, जिन्होंने इसी साल पहले अपने-अपने राज्यों में वोट करने के बाद, बिहार में पहले चरण के चुनाव में वोट दिया है। डुप्लीकेट वोटरों की विशाल संख्या कथित रूप से शुद्घ की गयी मतदाता सूचियों में भी बनी रहने को देखते हुए, यह अनुमान लगाना बहुत मुश्किल नहीं है कि बाहर से आकर वोट डालने वालों की संख्या, अच्छी-खासी हो सकती है। और यह संख्या, गलत पते, अस्पष्ट तस्वीरों तथा आधे-अधूरे नाम जैसे, वोट चोरी के अब तक उजागर हो चुके तरीकों से, रोपे गए फर्जी मतदाताओं से अलग भी हो सकती है।
और तीसरा सबसे महत्वपूर्ण पहलू है, जैसी की आशंका थी, एसआइआर के नाम पर लाखों वैध मतदाताओं का, जिनमें कम पढ़े, गरीब, कमजोर सामाजिक स्थिति के लोगों, महिलाओं तथा अल्पसंख्यकों की संख्या ज्यादा है, मताधिकार से वंचित कर दिया जाना। पहले चरण में ही, मतदान केंद्रों से बिना वोट दिए लौटा दिए गए हजारों लोग, जो पहले वोट देते आए थे, चुनाव आयोग द्वारा सोच-समझकर किए गए इसी प्रदूषण की गवाही दे रहे थे। इस सब के ऊपर से पहले चरण के मतदान के बाद से सरायरंजन विधानसभा क्षेत्र में खेतों में मिली वीवीपैट पर्चियां और कई-कई जगहों से आयीं स्ट्रांग रूमों में बिजली गुल होने और सीसीटीवी कैमरे बंद होने के बाद, स्ट्रांग रूप में संदेहजनक उपस्थितियों तथा वाहनों की संदेहास्पद आवाजाही की खबरें, आशंकाएं बहुत बढ़ा देती हैं।
लगता है कि जनता के बहुमत की इच्छा को भी चुनाव नतीजा बनने तक पहुंचने के लिए, कितनी ही कड़ी परीक्षाओं से गुजरना होगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका 'लोकलहर' के संपादक हैं।)