रिहायशी इलाके में पुलिस कैंप, छीनी जाती ज़मीन : ‘नए भारत’ में आदिवासी अस्तित्व पर गहराता संकट

Update: 2025-11-24 05:24 GMT


(आलेख : सिराज दत्ता)

15 नवंबर को बिरसा मुंडा की जयंती पर मोदी सरकार ने फिर धूमधाम से ‘जनजाति गौरव दिवस’ मनाया और अपने को आदिवासियों (जिनकी आबादी देश की जनसंख्या का लगभग 9% है) के हितैषी के रूप में पेश किया।

वहीं दूसरी ओर, हाल में, सरकार ने लद्दाख के आदिवासियों की संवैधानिक मांग के लोकतांत्रिक संघर्ष को बुरी तरह से कुचला। मणिपुर में आदिवासी-मूलवासी समुदायों पर दो साल की हिंसा के बाद भी स्थिति सामान्य नहीं हुई है। माओवाद खात्मे के नाम पर बस्तर में आदिवासियों का पुलिसिया दमन हुआ है। झारखंड समेत अन्य राज्यों के आदिवासियों के स्वतंत्र धार्मिक कोड की मांग पर केंद्र चुप्पी साधे हुए है।

पिछले 11 सालों की नीतियों और केंद्र के रवैये को देखें, तो यह साफ़ दिखता है कि मोदी सरकार के ‘नए भारत’ में आदिवासियों का अस्तित्व ही ख़तरे में है।

आदिवासियों का जीवन, आजीविका व पहचान उनकी सामूहिकता, संस्कृति एवं जल, जंगल, ज़मीन से सघन रूप से जुड़ा हुआ है। इन सबके बिना आदिवासी श्रम बाज़ार में एक महज़ शोषित मज़दूर बन कर रह जाते हैं। देश में आदिवासियों के संसाधनों के दोहन और उनके सामाजिक-आर्थिक शोषण का लंबा इतिहास है। इस शोषण के विरुद्ध आदिवासियों के संघर्ष का इतिहास भी लंबा है – चाहे अंग्रेजों के विरुद्ध हो या गैर-आदिवासी सामंतवादी शोषकों के या सरकारों की आदिवासी विरोधी नीतियों के विरुद्ध हो।

इस संघर्ष ने अंग्रेज़ शासकों को कई आदिवासी-पक्षीय कानून बनाने के लिए मज़बूर किया, जैसे झारखंड में छोटा नागपुर व संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम (सीएनटी व एसपीटी कानून)। ऐसे अनेक कानूनों को आज़ाद हिंदुस्तान में भी सुचारू रखा गया। साथ ही, आज़ादी के बाद समय-समय पर जल, जंगल, ज़मीन पर आदिवासियों के अधिकार व उनके स्वायत्तता के संरक्षण के लिए कई संवैधानिक प्रावधान व कानून बनाए गए, जैसे पांचवी व छठी अनुसूची, पंचायत उपबंधों का विस्तार (अनुसूचित क्षेत्र में) कानून (पेसा), वन अधिकार कानून आदि।

इन सबका मूल यही है कि आदिवासी अपने जीवन, संस्कृति व संसाधनों का प्रबंधन अपने पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था के अनुरूप कर सकते हैं, ताकि गैर-आदिवासी समूह व व्यवस्था उन पर हावी न हो पाएं, एवं सरकार उनकी सामूहिक अनुमति के बगैर उनके जल, जंगल, जमीन से संबंधित निर्णय नहीं ले सकती है।

हालांकि, आज तक किसी भी केंद्र या राज्य सरकार ने ईमानदारी के साथ इन कानूनों का पालन नहीं किया। लेकिन मोदी सरकार द्वारा हिंदू राष्ट्र स्थापित करने, संसाधनों के निरंकुश दोहन एवं निजी कंपनियों को संसाधनों को सौंपने के एजेंडा ने पिछले 11 सालों में आदिवासियों को और ज़्यादा हाशिये पर धकेल दिया है।

आदिवासी स्वायत्तता को ख़त्म करना एवं जल, जंगल, जमीन का दोहन

देश के 10 राज्यों के आदिवासी क्षेत्र पांचवी अनुसूची अंतर्गत अधिसूचित हैं, जबकि कई उत्तर-पूर्वी राज्यों के आदिवासी सघन क्षेत्रों में छठी अनुसूची व्यवस्था लागू है। पांचवी अनुसूची क्षेत्र में आदिवासियों के भूमि संरक्षण के लिए और शोषण के विरुद्ध विशेष नियम बनाए जा सकते हैं। पेसा कानून अंतर्गत पांचवी अनुसूचित क्षेत्रों में आदिवसियों की संस्कृति व संसाधनों पर स्वायत्तता के विशेष प्रावधान हैं। वहीं, छठी अनुसूची में संसाधनों और शासन व्यवस्था पर स्वायत्तता के और ज़्यादा मजबूत व प्रभावी प्रावधान हैं।

हाल में लद्दाख में हुई घटनाक्रम मोदी सरकार की आदिवासियों के स्वायत्तता के संवैधानिक अधिकारों को ख़त्म करने के तानाशाही रवैये को उजागर करती है। लद्दाख में जहां की 95 प्रतिशत आबादी आदिवासी हैं, लंबे समय से छठी अनुसूची व्यवस्था लागू करने की मांग रही है।

वर्ष 2019 में मोदी सरकार ने बंदूक की नोक पर जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाकर उसका विशेष राज्य का दर्जा ख़त्म किया और उसे दो केंद्र-शासित प्रदेशों – जम्मू-कश्मीर व लद्दाख – में बांट दिया। साथ ही, धारा 35-क को भी ख़त्म कर दिया था, जिसके तहत स्थानीय लोगों के भूमि, नौकरी आदि के लिए विशेष संरक्षण था।

हालांकि, लद्दाख के अनेक लोगों ने धारा 370 हटाने का समर्थन किया था, क्योंकि उन्हें उम्मीद थी कि उनके पूर्ण राज्य व छठी अनुसूची के दशकों की मांग अब पूरी होगी। केंद्र ने ऐसा वादा भी किया था। लेकिन अब स्थानीय लोगों का कहना है की उनके संसाधनों, नौकरी व शासन व्यवस्था पर उन्हीं का कोई नियंत्रण नहीं बचा। उदाहरण के लिए, लद्दाख के लोगों से सहमति लिए बिना पिछले साल से वहां एक बड़ी सोलर पावर परियोजना लगायी जा रही है, जिसका सीधा दुष्प्रभाव आजीविका और पर्यावरण पर पड़ेगा।

केंद्र ने लद्दाख के आदिवासियों द्वारा पूर्ण राज्य व छठी अनुसूची के लिए चल रहे शांतिपूर्ण आंदोलन को हाल में व्यापक दमन के साथ रोक दिया है। पुलिसिया हिंसा में चार लोगों की मौत भी हुई व अनेकों पर मामले दर्ज कर उन्हें गिरफ्तार किया गया। आंदोलन से जुड़े जाने-माने गांधीवादी पर्यावरणविद् सोनम वांगचुक के विरुद्ध तो राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के तहत मामला दर्ज कर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया है।

एक ओर मोदी सरकार आदिवासियों के विकास का ढिंढोरा पीटती है, वहीं दूसरी ओर, लगातार निजी कंपनियों के फायदे के लिए उनके जल, जंगल, ज़मीन के दोहन का रास्ता खोल रही है। इसके लिए पेसा व वन अधिकार अधिनियम के प्रावधानों को निष्क्रिय करते हुए जल, जंगल, ज़मीन और खनन से संबंधित कानूनों में संशोधन किया जा रहा है।

2014 में सरकार बनते ही भूमि अधिग्रहण कानून 2013 में संशोधन का अध्यादेश पारित किया गया था। 2013 के कानून में अधिग्रहण के लिए लोगों की सहमति एवं सामाजिक प्रभाव व पर्यावरण प्रभाव के आकलन को अनिवार्य बनाया गया था। लेकिन मोदी सरकार ने इन दोनों प्रावधानों को हटा दिया। आदिवासियों व अन्य किसान समूहों के व्यापक विरोध के बाद केंद्र को इन बदलावों को निरस्त करना पड़ा।

लेकिन इसके बाद केंद्र ने चालाकी से इन बदलावों को कई भाजपा-शासित राज्यों, जैसे झारखंड में राज्य सरकार द्वारा लागू करवा लिया। इसके अलावा, झारखंड में आदिवासियों के भूमि अधिकार के लिए सुरक्षा कवच माने जाने वाले सीएनटी-एसपीटी कानूनों में रघुवर दास सरकार ने 2016-17 में संशोधन की कोशिश की थी। लेकिन व्यापक जन विरोध के बाद सरकार को पीछे हटना पड़ा।

मोदी सरकार की जंगलों के संसाधनों, भूमि और क्षेत्र में खनन की संभावनाओं पर विशेष नज़र है। वन अधिकार कानून व पेसा को अनदेखी कर 2020 में मोदी सरकार ने कोयले के लिए व्यावसायिक खनन व्यवस्था लागू कर निजी कंपनियों के लिए संसाधनों को लूटने के दरवाज़े को और बड़ा कर दिया। 2023 में सरकार ने वन संरक्षण कानून में संशोधन कर आदिवासियों व वन पर निर्भर अन्य समुदायों की सहमति के प्रावधानों को कमज़ोर कर दिया एवं निजी कंपनियों के हाथों में सौंपने की व्यवस्था कर दिया।

यह महज़ संयोग नहीं है कि 2023 में छत्तीसगढ़ विधान सभा चुनाव जीतने के बाद ही भाजपा सरकार अडानी की खनन परियोजना के लिए रातों-रात हंसदेव जंगल को ख़त्म कर समतल करने में लग गई। झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा व अन्य आदिवासी सघन क्षेत्रों में खनन व विभिन्न सरकारी व निजी परियोजनाओं के लिए बिना लोगों की सहमति के ही जंगलों का दोहन करना आम बात हो गई है। उदाहरण के लिए, ओडिशा के रायगड़ा में वेदांता और कोरापुट में अडानी का बॉक्साइट खनन परियोजना, छत्तीसगढ़ के बस्तर और महाराष्ट्र के गडचिरोली में लौह अयस्क खनन परियोजना एवं झारखंड के हजारीबाग में अडानी का कोयला खनन परियोजना।

आदिवासी क्षेत्रों को पुलिस राज में बदलना

आदिवासियों पर पुलिसिया दमन का शर्मनाक और अंतहीन इतिहास रहा है। पिछले 11 सालों में इसने विकराल रूप ले लिया है। माओवाद खात्मे के नाम पर आदिवासी क्षेत्रों में बिना लोगों की सहमति के सुरक्षा बलों के अनेकों कैंप स्थापित किए गए हैं, अधिकांश ग्राम सभा की सहमति के संवैधानिक प्रावधानों को ताक पर रख के। आदिवासी बंदूकों के साये में जीने को मज़बूर हो गए हैं। उनकी दैनिक आज़ादी पर पाबंदी लग गई है। अपने पर्व के लिए हाट बाज़ार से महज़ चावल खरीद के लाने पर भी सुरक्षा कर्मी रोक कर सवाल करते हैं।

पिछले कुछ सालों में बस्तर में सैकड़ों कैंप स्थापित हुए हैं। एक आकलन के अनुसार वहां प्रत्येक 9 आदिवासी पर एक सुरक्षा बल कर्मी है। झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम के कोल्हान और सारंडा जंगल के चंद हज़ार एकड़ के क्षेत्र में ही कम-से-कम 25 कैंप स्थापित किए गए हैं।

गृह मंत्री अमित शाह बार-बार बोल रहे हैं कि मार्च 2026 तक माओवादियों को ख़त्म कर दिया जाएगा। लेकिन ख़त्म तो आदिवासी हो रहे हैं। जनवरी 2024 में बस्तर में केंद्र सरकार ने राज्य के साथ मिलकर ‘ऑपरेशन कगार’ शुरू किया, जिसमें अब तक लगभग 500 लोग, अधिकांश आदिवासी मारे गए हैं। मारे जाने वालों में माओवादी भी हैं और अनेक सामान्य नागरिक भी। इन हत्याओं के लिए सुरक्षा बलों को करोड़ों का इनाम मिला है।

केवल सशस्त्र आंदोलन के विरुद्ध ही सरकार का ऐसा रवैया नहीं है, बल्कि विस्थापन, जबरन खनन, जबरन कैंप निर्माण और बढ़ते सैन्यकरण के विरुद्ध आदिवासियों के शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक विरोध को भी कुचला जा रहा है। बस्तर के आदिवासी युवाओं का संगठन -- मूलवासी बचाओ मंच – लगातार जबरन कैंप व विस्थापन के विरुद्ध संघर्ष कर रहा था। मंच को प्रतिबंधित करते हुए मंच के युवा नेताओं को यूएपीए समेत विभिन्न फर्जी आरोपों पर गिरफ्तार कर लिया गया है।

धीरे-धीर कई क्षेत्रों में माओवाद तो रहा नहीं, लेकिन कैंप अस्थायी से स्थायी बन गए हैं। सरकार की प्राथमिकता का आकलन इससे किया जा सकता है कि कैंपों की स्थापना के विपरीत आदिवासी क्षेत्रों में अनेक विद्यालयों को युक्तियुक्तकरण के नाम पर बंद कर, दूर किसी विद्यालय के साथ विलय कर दिया गया है। यह भी किसी से छुपा नहीं है कि सुरक्षा बलों के कैंप लगने के कुछ दिनों में ही अक्सर खनन या किसी कॉरपोरेट परियोजना का आगाज़ होता है।

हालांकि, हाल के दिनों में लगातार कई शीर्ष माओवादी नेता व कैडर सरेंडर कर रहे हैं, लेकिन आदिवासियों के मूल मुद्दों के प्रति सरकार का उदासीन रवैया जस-का-तस है।

आदिवासी अस्तित्व पर हिंदुत्व का प्रहार

जहां एक ओर संसाधनों के दोहन और कॉरपोरेट हित के लिए आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों को ख़त्म किया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर आदिवासी समाज पर हिंदुत्व का प्रहार लगातार बढ़ा है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की हिंदुत्व विचारधारा के अनुसार आदिवासी हिंदू वर्ण व्यवस्था के निचले पायदान पर खड़े वनवासी हैं.

1952 में आरएसएस द्वारा वनवासी कल्याण आश्रम स्थापित करने के बाद लगातार आदिवासियों में हिंदुत्व का फैलाव किया जा रहा है। इसके लिए वनवासी कल्याण आश्रम समेत अन्य हिंदुत्व संगठन कई हथकंडे अपनाते हैं : जैसे आदिवासियों के बीच हिंदू धर्म व संस्कृति का प्रचार, आदिवासियों की संस्कृति, पूजा स्थल आदि पर धार्मिक कब्ज़ा करना, ईसाई आदिवासियों के विरुद्ध अन्य आदिवासियों को भड़काना आदि।

आदिवासियों में धर्म के नाम पर विभाजन पैदा करने और उनको हिंदुत्व की ओर आकर्षित करने के लिए इन संगठनों की एक प्रमुख मांग रही है ईसाई आदिवासियों को अनुसूचित जनजाति सूची से हटाने की। यह प्रक्रिया पिछले दशक में और तीव्र हो गई है.

झारखंड समेत अन्य राज्यों के आदिवासियों की एक बड़ी आबादी अपनी स्वतंत्र धार्मिक व्यवस्था (जैसे झारखंड में सरना धर्म) की औपचारिक पहचान के लिए लगातार संघर्ष कर रही है। वहीं, दूसरी ओर, हिंदुत्व संगठन ‘सरना-सनातन एक’ जैसे नारे के साथ इनकी स्वतंत्र धार्मिक पहचान को हिंदू व्यवस्था का हिस्सा बनाने में लगे हुए हैं।

अयोध्या में राम मंदिर बनने के दौरान भाजपा नेताओं व हिंदुत्व संगठनों द्वारा झारखंड के कई सरना स्थलों (आदिवासियों के पूजा स्थल) से मिट्टी जमा करके मंदिर के निर्माण के लिए भेजा गया था। साथ ही, सुनियोजित तरीके से आदिवासियों को तीर्थ के लिए अयोध्या भी ले जाया गया।

जनगणना में धर्म के कॉलम में आदिवासी धर्म के एक अलग कोड की मांग लंबे समय से रही है। वर्तमान में जनगणना में केवल 6 धर्मों -- हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध व जैन – की ही अलग से गिनती की जाती है। हालांकि, ‘अन्य’ में भी दर्ज करने का विकल्प रहता है। लेकिन इसके प्रति सचेत न होने के कारण अधिकांश आदिवासी जो इन 6 धर्मों के नहीं है, जनगणना कर्मी द्वारा उन्हें अक्सर हिंदू में ही डाल दिया जाता है।

झारखंड सरकार ने 2020 में आदिवासियों के अलग धर्म कोड की मांग पर विधानसभा से प्रस्ताव पारित करके केंद्र को भेजा था। केंद्र ने 2026 में होने वाली जनगणना में जाति की गिनती तो जोड़ ली, लेकिन आदिवासियों के लिए अलग धर्म कोड नहीं जोड़ा है। भाजपा के नए भारत में आदिवासियों को अपने स्वंतत्र पहचान के साथ नहीं, बल्कि सनातन पहचान के साथ ही जीना है।

केवल पूर्वी व मध्य भारत ही नहीं, बल्कि पूर्वोत्तर राज्यों में भी आरएसएस के हिंदुत्व एजेंडा को और बल मिला है। वहां हिंदुत्व संगठनों द्वारा सनातन को आदि धर्म के रूप में प्रस्तुत कर व ईसाई आदिवासियों को बाहरी धर्म के साथ जोड़कर विभिन्न आदिवासी-मूलवासी समुदायों को हिंदुत्व के एजेंडा में शामिल किया जा रहा है। इसका सबसे भयावय उदाहरण है मणिपुर में हुई हिंसा एवं इस केंद्र सरकार की चुप्पी।

मणिपुर में आदिवासी-मूलवासी समुदायों (कुकी, नगा व मेईतेई) के आपसी टकराव के इतिहास को भाजपा के हिंदुत्व आधारित शासन ने और व्यापक कर दिया। भाजपा शासित केंद्र व राज्य सरकार महीनों तक मूकदर्शक बने बैठे रहे और हिंसा को होने दिया गया।

आदिवासी बनाम कॉरपोरेट राज

आदिवासी लगातार उनके अधिकारों के उल्लंघन और संसाधनों के दोहन का स्थानीय स्तर पर विरोध कर रहे हैं। आदिवासियों का एक बड़ा हिस्सा हिंदुत्व का भी विरोध कर रहा है। लेकिन यह भी सच है कि पिछले दो दशकों में आदिवासियों में भाजपा की चुनावी पैठ काफी बढ़ी है। हालांकि देश की 543 लोकसभा सीटों में 8 प्रतिशत सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित है, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर आदिवासियों की मजबूत राजनैतिक आवाज़ की कमी दिखती है।

दूसरी ओर, झारखंड में आदिवासी मुद्दों पर चुनाव जीतने वाली झामुमो गठबंधन सरकार भी आदिवासी अधिकारों के प्रति उदासीन है। ऐसी परिस्थिति में इतिहास से सीख लेकर आदिवासियों को ही संगठित होकर अपने अस्तित्व को बचाना होगा और मज़बूत राजनैतिक हस्तक्षेप भी करना होगा।

(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं और झारखंड में जन मुद्दों पर संघर्ष करते हैं।)

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