कोरोना - पर्यावरण जागरूकता अभियान शहीद सम्मान सायकिल यात्रा के दौरान पिछले 10 दिनों से मैं नौगांवा और अमरोहा की अन्य विधानसभाओं में भ्रमण कर रहा हूँ । कोरोना - पर्यावरण पर चर्चा के बाद जब मैं लोगों को सवाल पूछने को कहता हूं, तो समाजवादी चिंतक और पत्रकार होने के नाते ज्यादातर लोग राजनीतिक सवाल करते हैं। चूंकि सवाल राजनीतिक होते है, इस कारण संवाद का एक सिलसिला शुरू होता है। और राजनीति के संबंध में लोगों का रुख पता चलता है। इस चर्चा के दौरान भाजपा को छोड़ कर अधिकतर लोग या तो अपनी पीड़ा व्यक्त करते हैं, या अपनी ही पार्टी के नेताओं की बुराई करते हैं। ज्यादातर लोग इस बात को स्वीकार कर चुके हैं कि यहां का उपचुनाव एक बार फिर हिन्दू मुस्लिम का ही चुनाव बन कर राह जाएगा। इस विधानसभा के एक बड़े मुस्लिम चेहरे और अखिलेश के करीबी माने जाने वाले एक मुस्लिम चेहरे की चर्चा लोग करते हैं । इस संवाद के दौरान हर जगह कुछ लोग उस चेहरे के समर्थन में खड़े हो जाते हैं और कुछ लोग उस चेहरे की खिलाफ अपनी भड़ास निकालते हैं । कुछ नेता ऐसे हैं, जो अंधेरे में अपनी तलवार भांजते हैं । बिना किसी ओड पेड़ के अपनी बात रखते हैं। ऐसे नौजवानों को सुनने के बाद ऐसा लगता है कि जैसे वे एक ही दांव में भाजपा उम्मीदवार को चित्त कर देंगे। दूसरे की राजनीतिक विरासत पर चोरी करने वाले ऐसे लोगों की चर्चा की यहां कि चर्चा अनावश्यक है । इसलिए इस लेख में मैं केवल जमीनी बातें कर रहा हूँ ।
सबसे पहले मैं यहां के जातीय संघटना की बात कर लेता हूँ। नौगांवा विधानसभा में कुल 400 से अधिक गांव हैं। जिसमें मुस्लिमों की संख्या लगभग 1 लाख 20 हजार है। यादवों की संख्या लगभग 23 हजार है। सैनी की संख्या लगभग 26 हजार है। जाटों की संख्या लगभग 30 हजार है। जाटवों की संख्या लगभग 40 हजार है। प्रजापति की संख्या लगभग 20 हजार है। गुर्जर लगभग 12 हजार हैं। चौहान लगभग 40 हजार हैं । पाल 20 हजार के करीब हैं । बालमीकि 5 हजार, ब्राह्मण 5 हजार, धीमर 5 हजार, बनिया एक हजार हैं । यदि इनका योग करते हैं तो यहां के कुल मतदाताओं की संख्या लगभग साढ़े 3 लाख बैठती है। यह विधानसभा पूरी तरह से ग्रामीण है । कस्बे के नाम पर केवल नौगांवा सादात है। जिसमें मुसलमानों की अच्छी खासी संख्या है।
अपनी कोरोना - पर्यावरण जागरूकता अभियान शहीद सम्मान सायकिल यात्रा के दौरान जब सवाल पूछने के दौरान संवाद की स्थिति होती है, तो मैं खुद वहां के लोगों से पूछता हूँ कि क्या यहाँ भी जातियों का विभाजन राजनीतिक दलों के समर्थक के अनुसार जाना जाता है ? उनका उत्तर हां होता है। प्रतिप्रश्न करने के बाद वे बताने लगते हैं कि मुस्लिम और यादव यहां भी समाजवादी पार्टी की समर्थक जातियों के रूप में जानी जाती है। जबकि सैनी, प्रजापति, गुर्जर, चौहान, पाल, बाल्मीकि, ब्राह्मण, धीमर, बनिया और लोकदल के पराभव के बाद जाट भी भाजपा समर्थक जाति बन गई है। जब इनका गणितीय आधार पर मैं अध्ययन करता हूँ, तो सपा समर्थक जातियों की संख्या करीब 1 लाख 43 हजार बैठती है । वहीं भाजपा समर्थक जातियों की संख्या करीब 2 लाख 27 हजार बैठती है। अगर बहुजन समाज पार्टी भी अपना कैंडिडेट उतारती है, तो करीब 40 हजार मतदाता उसके पक्ष में मतदान कर देता है।फिर भारतीय जनता के पास 1 लाख 87 हजार मतदाता बचता है। इस प्रकार जब हम मतों के हिसाब से देखते हैं, तो भाजपा करीब 40 हजार वोटों से बढ़त बनाये हुए है।
पिछले अध्ययनों में यह पाया गया है कि जिसकी सत्ता होती है, प्रति बूथ उसके पक्ष में 20 से लेकर 50 वोट अतिरिक्त पड़ जाते हैं । यहां कुल बूथों की संख्या 372 और उप बूथों की संख्या 117 है। इस आधार पर करीब 24 हजार वोट का भारतीय जनता पार्टी को अतिरिक्त फायदा होगा। यानी भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में 64 हजार मतों की बढ़ोतरी है। इस आधार पर पहले दो हालात भारतीय जनता के पक्ष में है।
इसके अलावा अगर भारतीय जनता पार्टी स्व विधायक व कैबिनेट मंत्री चेतन चौहान की अधिकारी पत्नी को टिकट देती है, तो मेरे अध्ययन के अनुसार उन्हें करीब 13 हजार वोट सहानुभूति के मिलेंगे। इस प्रकार यह भी हालात भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में है। अगर इन वोटों को मिला दें, तो 77 हजार वोटों की भारतीय जनता पार्टी को बढ़ोत्तरी है।
इसके अलावा यहां से जिसे भी टिकट मिलेगा, उसे सत्ता से चुनाव लड़ना पड़ेगा। और अगर हम उत्तर प्रदेश में सत्ता की बात करते हैं, तो यहां भारतीय जनता पार्टी सत्ता में है। और उसने मुख्यमंत्री की बागडोर योगी आदित्यनाथ को दे रखी है। जिनकी पहचान एक कट्टरवादी हिन्दू नेता की है। मुख्यमंत्री होते हुए जब भी वे चुनाव प्रचार करते हैं, तो हिंदुओं का ध्रुवीकरण जरूर होता है। और जब पश्चिमी उत्तर प्रदेश के संदर्भ में पिछले चुनावों पर नजर डालते हैं, तो ऐसा लगता है कि यहां के चुनाव को जब चाहे हिन्दू मुस्लिम में ध्रुवीकरण किया जा सकता है। जब जब हिंदुओं का ध्रुवीकरण हुआ है, भारतीय जनता पार्टी को बढ़त मिली है।
यहां के हिंदुओं से जब मैंने बात की, तो वे आज भी समाजवादी पार्टी की सरकार के दौरान घटी घटनाओं को अपने सीने में सुलगा रहे हैं। चूंकि अखिलेश यादव की सरकार रही, और उनके मूल वोटरों के साथ अन्याय हुआ, उसकी चुभन आज भी सपा मतदाताओं के मन मे टीसती रहती है। इसी कारण वह संवाद के समय उनकी चर्चा जरूर करता है। जिस तरह सर यहां यादव अधिकारियों को बेइज्जत किया गया, यहां का हिन्दू समाज आज भी भूला नही है। वह उसकी चर्चा तीन साल बीत जाने के बाद भी कर रहा है।
अमरोहा जिले की राजनीति में समाजवादी पार्टी में मुसलमानों का बोलबाला है। अधिक संख्या के कारण उन्हें ही टिकट मिलता है, और वही जीतते और मंत्री भी बनते हैं। इस कारण उनकी ही चलती है। जिन्हें भी मदद चाहिए, उन्हीं के दरवाजे पर हाजिरी लगानी पड़ती है।
वैसे देखने मे यह भी आया कि यहां की जिला अध्यक्षी हिंदुओं को दी जाती है। लेकिन उसे भी यह पद किसी न किसी मुस्लिम नेता की रहमत पर ही मिलती है। इसलिए उसके प्रति सहानुभूति का कार्नर होना स्वाभाविक होता है। यहां की जनता ने बताया कि यहां चार धाकड़ नेता हैं, जो जिला अध्यक्ष बनवा लेता है, वह तो मदद करता है, मदद करना वुसकी मजबूरी है। लेकिन बाकी के तीन नेता उसकी राह में रोड़े अटकाते हैं । इस तरह वह स्वेच्छा से कुछ नही कर पाता है।
अखिलेश यादव सरकार के दौरान इस जिले से दो कैबिनेट मंत्री और दो और लाल बत्ती मिली थी, ये चारों लोग मुस्लिम समुदाय के लोग थे । जिसकी वजह से मुस्लिम को छोड़ कर सभी हिन्दू, विशेषकर खुद को उपेक्षित महसूस करते रहे। साथ मे किसी के काम न आ पानेके कारण अपनी ही जाति के लोगों के आये दिन उन्हें ताने सुनने पड़ते हैं । ऐसे में ये लोग कैसे वोट डलवा लेंगे, यह एक टेढ़ी खीर है।
इसके अलावा यहां के समाजवादी मुस्लिम नेताओं के संबंध में जब मैंने जानकारी इकट्ठा की, तो पता चला कि कई ऐसे नेता हैं, जिनकी धाक है, उनके ऊपर कई कई केस हैं । जो चुनाव के दिन रेड कार्ड घोषित कर दिए जाएंगे। यहां का शत प्रतिशत मुसलमान व्यवसायी है। जो अपना व्यापार चलाने की एवज में कुछ भी कर सकता है। सरकार का जब दबाव पड़ेगा, तो प्रशासन ऐसे तमाम लोगों को मात्र एक घुड़की के अपने पक्ष में कर लेगा। या तो उन्हें वोट डालने नही जाने देगा। ऐसे में अमरोहा जिले की इस विधानसभा उप चुनाव में सारी की सारी परिस्थितियां भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में हैं । उसके उप चुनाव जीतने के ज्यादा अवसर हैं ।
ऐसा नही है कि उसके लिए सारी परिस्थितियां अनुकूल ही हैं। समाजवादी पार्टी के लिए भी अनुकूल हो सकती है, लेकिन उसके लिए उसे धरातलीय ज्ञान की जरूरत है। कुछ इरादे प्रकट करने और वायदे करने की जरूरत है। कुछ निर्णय की जरूरत है। यानी चुनाव जीतने के लिए हमारे जैसे अनुभवी और महारथी की उपस्थिति में रणनीति बनाने की जरूरत है। प्रदेश भर के नेताओं की भीड़ जुटाने के बजाय, यहां के ही लोगों पर भरोसा करने की जरूरत है।
अपनी कोरोना पर्यावरण जागरूकता अभियान शहीद सम्मान सायकिल यात्रा के दौरान मैं करीब सवा सौ गावों से गुजरा, जिसमें से 69 गावों में वृहद चर्चा की, शेष गावों में आंशिक यानी करीब आधे घंटे ही चर्चा की। उसी आधार पर मैंने यह विश्लेषण प्रस्तुत किया है। आज भी ऊज़ किसान पशुपालक की आंखों में मैंने आंसू देखे, जिसकी एक लाख की भैंस उसके सामने लोग उठा ले गए, उसकी गायें लोग खोल ले गए। वह पुलिस थाने से लेकर अधिकारियों और नेताओं के दरवाजे भटकता रहा, और उसे इंसाफ न मिला । अपनी सरकार समझने की भूल कर बैठे यादवों की इज्जत से खेलते रहे, और उसकी एफआईआर तक दर्ज नही हुई। उसकी ही सरकार में उसे झूठे केस में दलित ऐक्ट में फंसाया गया, और सपा के नेताओं ने फंसाया, उसे अपनी एक एक यातना याद है, कैसे वह समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार को वोट दे देगा।
साथ ही समाजवादी पार्टी के लिए एक और चुनौती है सपा के पूर्व विधायक अशफाक पठान । जिनसे उनकी सियासत की जमीन छीन ली गई। जो घायल होकर घूम रहा है। सभी को मालूम है कि पठान किसी के सपोर्ट में अपनी जान दे सकता है, और अपनी पर आ जाये, तो किसी की जीत छीन भी सकता है। महात्मा गांधी के जीवन मे एक पठान आया, जिसने गफलत में जान से मारने का का भी प्रयास किया और सच्चाई मालूम होने पर उन्हें बचाने का काम किया। उसने दोनो बार हथियार उठाये, लेकिन उसके मायने अलग अलग रहे। इसी तरह से सपा के पूर्व विधायक अशफाक खां भी उपचुनाव भले न जीत सकते हों, लेकिन किसी भी सपा उम्मीदवार को चुनाव हारने की हैसियत तो रखते ही है।
जिसका फायदा भारतीय जनता पार्टी को मिलेगा । क्योंकि सपा के पूर्व विधायक अशफ़ाक खां अपनी विधानसभा में काफी लोकप्रिय है।
प्रोफेसर डॉ. योगेन्द्र यादव
पर्यावरणविद, शिक्षाविद, भाषाविद,विश्लेषक, गांधीवादी /समाजवादी चिंतक, पत्रकार, नेचरोपैथ व ऐक्टविस्ट