जिस युग मे हम जी रहें है, उसमें आदर्श की बातें सिर्फ मुख की शोभा बढ़ाने की वस्तु बन कर रह गई है। एक बार जब कोई अलग हो जाता है, तो फिर एक नही होता । यही सच है, समाज मे जब दो भाई अलग अलग हो जाते हैं, और जब उन्हें अपने गलती का एहसास होता है, फिर भी वे एक नही होते हैं। जब एक ही माँ की संतान, जिनकी रग में एक ही बाप का खून संचरित होता है, वे एक नही होते है
ऐसे में लाखों रुपये खर्च करके पार्टी खड़ी करने, अपने सभी मंसूबों को दरकिनार करके फिर से विलय करने की बात कोई त्यागमूर्ति ही कर सकता है । 74वें स्वतंत्रता दिवस को एक ऐसे ही त्यागमूर्ति के दर्शन हुए। वह कोई और नही, पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के चाचा और सपा संस्थापक के हनुमान शिवपाल सिंह हैं। चौधरी चरण सिंह पीजी कालेज, जिसमें पढ़ाने का मुझे अवसर मिला था, में हर बार की तरह इस बार भी प्रबंधक की हैसियत से ध्वजारोहण करने आये। वैसे भी इस दिन एक एक भारतीय नागरिक का मन और वाणी देशप्रेम से ओतप्रोत हो जाती है। ध्वजारोहण के बाद जो कुछ हुआ, उससे इतिहास बनाने की क्षमता है। प्रगतिशील समाजवादी पार्टी लोहिया के राष्ट्रीय अध्यक्ष शिवपाल सिंह ने मीडिया से बातचीत करते हुए कहा कि समाजवादी पार्टी के पुराने दिन लौटाने के लिए वे बड़ा से बड़ा त्याग करने को तैयार हैं । इसके लिए अगर समाजवादी पार्टी में अपनी पार्टी प्रगतिशील समाजवादी पार्टी लोहिया को विलय करने के लिए भी तैयार है।
उनके बयान को इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और कुछ पोर्टलों ने प्रमुखता के साथ प्रकाशित किया। जिस सुनकर, पढ़ कर पूरे दिन समाजवादी हलकों में चर्चा होती रही । मेरे पास भी कई फोन आये, कई लोगों ने मैसेज करके हकीकत जानने की इच्छा व्यक्त की।
गौरतलब है कि समाजवादी पार्टी को खड़ा करने में शिवपाल सिंह का काफी योगदान रहा है। सपा संस्थापक और उनके बड़े भाई मुलायम सिंह ने उन्हें संगठन का महारथी बनाया। इसे समाजवादी पार्टी और प्रगतिशील समाजवादी पार्टी लोहिया, दोनों के कार्यकर्ता और नेता स्वीकार करते है। शिवपाल सिंह की अखिलेश यादव से प्रत्यक्ष कोई भी लड़ाई नही थी, अगर पार्टी कार्यालय के मंच पर जो कुछ हुआ, उसे छोड़ दें, तो दोनों के रिश्ते सामान्य रहे। सरकार के समय कुछ फाइलों के निस्तारण में देरी को लेकर जरूर कुछ सवाल उठे थे, लेकिन वे भी उतने गंभीर सवाल नही थे, जिससे दोनों के रिश्तों में दरार पड़े। दोनों के रिश्तों में जो दरार पड़ी, वह एक सुनियोजित साजिश थी। दोनों नेताओं के इर्द गिर्द रहने वाले कुछ विरोधी ताकतों के हाथों की कठपुतली बन गए थे, और उनके इशारे पर खेल रहे थे। अपने राजनीतिक इतिहास में अच्छे अच्छों को पटकनी देने वाले मुलायम सिंह खुद को विवश पा रहे थे। लाख कोशिश के बाद भी पार्टी को टूटने से नही बचा पाए। उसका कारण साफ था, एक ओर उनके कलेजे का टुकड़ा था और दूसरी ओर उनकी दाहिनी भुजा माने जाने वाले शिवपाल सिंह थे। मुलायम सिंह ने अपने बाद जिस राजनीति की कल्पना की थी, उसमें प्रोफेसर रामगोपाल, शिवपाल सिंह और अखिलेश यादव तीनों थे। उनका मानना था कि वैचारिक सम्पुट प्रोफेसर रामगोपाल से आये, उसे शिवपाल सिंह और अखिलेश यादव संगठन और सरकार की बनाने और चलाने में उपयोग करें । इसलिए मुलायम सिंह विवश थे। इस कारण तत्कालीन परिस्थितियों में वे न तो अखिलेश के प्रति कठोर हो पा रहे थे, और न शिवपाल यादव के प्रति। आखिर उनकी अनुपस्थिति में विरोधी हस्तियों के हाथों खेल रहे लोग अपने मकसद में कामयाब हो गए। समाजवादी पार्टी टूट गई। इस घटना के पहले मजबूत मानी जाने वाली समाजवादी पार्टी को विरोधियों ने कमजोर बताया और फिर से समाजवादी पार्टी की सरकार बनाने का जो सपना था, वह चूर चूर हो गया। सब कुछ बिखर गया, सब कुछ समाप्त हो गया। एक सच्चा युवा, ईमानदार युवा, जाति और संप्रदाय से ऊपर उठ कर सोचने वाले, बिना किसी भेदभाव के राजनीति करने वाले अखिलेश यादव को विधानसभा चुनाव के परिणाम के बाद गहरा सदमा लगा। हार की समीक्षा शुरू की गई, किंतु जल्द ही उस पर भी विराम लग गया। संगठन भी जस का तस चलता रहा। पूरी पार्टी, जमीनी कार्यकर्ता टूट गया। उसके सपने बिखर गए। जो आज तक उस सदमे से बाहर नही निकल पाया है। कोरोना काल की वजह से जो तेजी आनी थी, नही आ पाई । लेकिन इस कोरोना काल मे शिवपाल सिंह और अखिलेश यादव दोनों को आत्मचिंतन करने का मौका मिला। दोनो को यह महसूस हुआ कि अलग अलग रह कर चुनावी वैतरणी नही पार की जा सकती है। एक बार फिर दोनों ओर से सद्भावना के बोल फूटे। शिवपाल यादव ने सिर्फ कहा, लेकिन अखिलेश यादव ने उसे कार्यों में परिणित कर विधानसभा की उनकी सदस्यता समाप्त करने की याचिका वापस ले ली । हालांकि अपना दिल बड़ा करते हुए अखिलेश यादव ने इसका श्रेय नेताजी मुलायम सिंह यादव को दिया। लेकिन यह सभी जान गए कि अखिलेश यादव के हृदय की जो शिवपाल यादव के प्रति पीर थी, वह पिघल चुकी है। शिवपाल सिंह ने उनके इस कदम को सराहा, अखिलेश को धन्यवाद दिया और खुद उनसे लोहिया भवन के उद्घाटन के निमंत्रण के साथ मिले, समारोह में आमंत्रित किया
अभी तक वह समारोह तो नही हुआ, इसी बीच 15 अगस्त को हेवरा कालेज में एक बड़ा बयान देकर शिवपाल सिंह ने फिर सबको चौका दिया। हालांकि उनके इस बयान पर अखिलेश यादव की कोई प्रतिक्रिया नही आई है। आई हो, तो मेरे संज्ञान में नही है । लेकिन पिछली प्रतिक्रियाओं में अखिलेश यादव ने जो संकेत दिये हैं, वे सकारात्मक हैं। शायद उन्हें भी इस बात का ऐहसास नही रहा होगा कि शिवपाल सिंह जैसा नेता बैकफुट पर जाकर अपनी पार्टी का विलय कर सकता है।
चाहे समाजवादी पार्टी हो, या प्रगतिशील समाजवादी पार्टी लोहिया हो, दोनो ही राजनीतिक दलों में ऐसे लोगों की भरमार है, जो शिवपाल सिंह और अखिलेश यादव को एक होते देखना चाहते हैं, प्रसपा का समाजवादी पार्टी में विलय चाहते हैं । जिस बड़े बड़े त्याग की बात शिवपाल सिंह कर रहे हैं, उसमें वे कोई पद भी नही लेना चाहते, इसका भी संकेत है। यानी पूरी तरह से अखिलेश यादव का नेतृत्व स्वीकार करना चाहते हैं। अखिलेश यादव जो भी पद या काम दे दें, उसका ईमानदारी से निर्वहन करना चाहते हैं । अब एक बार फिर गेंद अखिलेश यादव के पाले में है। जैसा कि अब अखिलेश यादव का नया स्वभाव बना है, काफी सोच विचार कर ही वे कदम उठाएंगे। लेकिन एक बार फिर कहना चाहता हूं कि अगर वाकई शिवपाल सिंह प्रसपा के विलय करने और अखिलेश यादव का नेतृत्व स्वीकार कर उनके निर्देशन में कार्य करने की दिशा में कदम उठाते है, तो वे भविष्य में त्यागमूर्ति के रूप में याद किये जायेंगे।
प्रोफेसर डॉ. योगेन्द्र यादव
पर्यावरणविद, शिक्षाविद, भाषाविद,विश्लेषक, गांधीवादी /समाजवादी चिंतक, पत्रकार, नेचरोपैथ व ऐक्टविस्ट