भारत में बाढ़ त्रासदी और उसके कारण

Update: 2020-08-15 08:13 GMT


भारत में तीन प्रकार के मौसम होते हैं - गर्मी, बरसात और सर्दी ।गर्मी के मौसम में यहां की जनता गर्मी से त्राहि त्राहि करती है । सर्दी के मौसम में सर्दी की ठिठुरन लोगों की हड्डियां तक गला देगी, ऐसा आभास होता है और बरसात के मौसम में सब कुछ जलमग्न हो जाएगा, पानी सब कुछ बहा ले जाएगा, ऐसा प्रतीत होता है । इस प्रकार के दृश्य हर साल उपस्थित होते हैं। लेकिन त्रासदी बीतते ही लोग फिर उसे भूल जाते हैं, और दुबारा उन्हें उस स्थिति का सामना न करना पड़े, इसका जतन नही करते हैं। इस समय बरसात का मौसम चल रहा है, पूरब हो या पश्चिम, उत्तर हो या दक्षिण, समतल मैदान हो या पहाड़ी इलाके, सब जगह आई बाढ़ से हाहाकार मचा हुआ है। आज मेरे लेख का विषय यह है कि हर वर्ष बरसात की मात्रा कम होती जा रही है, इतनी बाढ़ के बावजूद जल स्तर निरंतर गिर रहा है। आखिर बाढ़ की भीषण त्रासदी के कारण क्या हैं ? आज इस लेख में इसे प्रभावित करने वाले तथ्यों पर विचार कर रहा हूँ ।

मनुष्य की लालच - जैसे जैसे भोग की प्रवृत्ति में इजाफा हो रहा है, मनुष्य की लालच बढ़ती जा रही है। पैसा कमाने में वह इतना अंधा हो गया है कि वह जिस डाल पर बैठा है, उसी को काट रहा है। पहले हम नगरों और कस्बों में रहने वालों की बात कर लेते हैं। शहरों का निर्माण ही जंगलों को काट कर बसाया जाता है। आजकल तो खेतों को बेच कर नगरों का विस्तार किया जा रहा है। जंगल तो बचे ही नही हैं। जहां तक मनुष्य का वश चला है, या तो उसे काट कर खेत बना लिया या घर बना लिया। खैर यहां तक भी गनीमत है। जब किसी नगर या कस्बे की बसाहट होती है, तो रोजमर्रा और बरसात के पानी निकलने के नालियों और बड़े बड़े नालों का निर्माण किया जाता है । लेकिन लोगों की बढ़ती लालच के कारण नालियां संकरी हो जाती हैं। नालों पर लोग घर बना लेते हैं। कहीं कहीं तो नालों के ऊपर लोगों ने घर बना लिए हैं, जिसकी वजह से वे विलुप्त हो गए हैं। और कहीं कहीं लालच में उसके अधिकांश भाग पर निर्माण कर लिया है, जिसकी वजह से नाले नालियों में तब्दील हो गए हैं। गर्मी और सर्दी में तो इनमे से पानी निकल जाता है, लेकिन बरसात में जरा सी बारिश होते ही पूरा पानी नालियों में समाहित न हो पाने की वजह से सड़कों पर फैल जाता है, और बहने लगता है। जिससे सड़कें नाली में तब्दील हो जाती है। अधिक बारिश होने पर सड़कों पर खड़ी गाड़ियां डूबने और तैरने लगती हैं, जैसा दृश्य इन दिनों शहरों में हुई बारिश से दिखाई पड़ रहा है ।

इसके अलावा शहर को कंक्रीटों और पत्थरों से इस कदर पाट दिया जाता है कि कहीं कहीं तो एक बूंद भी पानी जमीन के अंदर रिस कर नही जा पाता है। जबकि गर्मी से जली हुई जमीन बारिश में पानी सोखने के लिए तैयार रहती है । शहरों की बसाहट से उसका संपर्क ही मिट्टी से नही हो पाता है । इस कारण नगरों और कस्बों में तेजी से जल स्तर में गिरावट दर्ज की जा रही है।

इसके अलावा अगर कोई नगर या कस्बा छोटी या बड़ी नदी के किनारे बसा है, तो लोग नदी की सीमा में अतिक्रमण करके घर बना लेते हैं । कहीं कहीं तो यह भी देखने को मिलता है कि लोग नदी के भीतर की जमीन पर निर्माण कर लेते हैं। देखादेखी नदियों के जद में कालोनी की कालोनी बस जाती है, गर्मी और सर्दी में तो कोई बात नही। लेकिन बारिश में जरा सा पानी बरसा नही, कि ऐसी कालोनियां डूब जाती हैं। राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी के कारण और वोट की राजनीति के कारण सरकारें इनके खिलाफ कोई कार्रवाई नही करती हैं । इस समय नगरों और कस्बों में जो दृश्य देखने को मिल रहे हैं, उसका एक कारण यह भी है ।

इसके अलावा नगर और कस्बों में बाढ़ और डूबत में आने का एक और कारण है। मैं इस बात को स्वीकार नही करता कि बरसात के पूर्व नाली और नालों की सफाई नही करता। हर साल नगर निगम और नगर पालिकाओं को मैंने सफाई करते हुए देखा है। सफाई तो होती है, ऐन बारिश के पहले होती है। जिसकी वजह से इन नालों से निकले मलवे को उठाने का काम नही हो पाता है। जिससे वे बह कर फिर से नाले में चले जाते हैं। ऐसा कम होता है, लेकिन हर साल होता है। जिस कारण की मैं बात कर रहा हूँ, वह है शहरों से निकलने वाला कचरा। हालांकि उसे फेकने का नियमित रूप से होता है। बरसात में कचरा फेकने की क्रिया बाधित हो जाती है। नगरों और कस्बों से निकलने वाले हजारों टन कचरा बह कर नालियों से होता हुआ नालों में पहुच जाता है। गटर में भर जाता है, जिससे गटर चोक हो जाते हैं । और बरसात का पानी निकल नही पाता है। जो सड़कों पर फैल जाता है, या कभी कभी कालोनियों में भर जाता है, जिससे कालोनियां भर जाती हैं, वहां बाढ़ का दृश्य उपस्थित हो जाता है । यही कचरा आगे जाकर नदियों के मार्ग को भी अवरुद्घ कर देता है।

अब हम बात गावों की भी कर लेटर हैं । गावों की नालियों का हाल नगरों और कस्बों से भी अधिक बुरा है। गावों की नालियां इतनी सकरी होती हैं कि अगर अन्य मौसमों में एक बाल्टी पानी एक साथ गिरा दिया जाए, तो वह नालियों में समाहित नही हो पाता है। रोड पर फैल जाता है। फिर आप कल्पना कर सकते हैं कि गांव के लोगों की लालच और स्वार्थ का स्तर क्या है ? इसी प्रकार पहले नदियों, नालों, बाहों के मोटे मोटे करार हुआ करते थे। जिसे किसानों ने धीरे धीरे काट कर अपने खेत मे मिला लिया। उनके स्वार्थ के चरम देखिए। गांव के दबंगों ने अपने गांव के कल्याण के लिए बनाए गए तालाब, पोखरे, गड़हे भी पाट लिए। जिसमे बरसात का पानी इकट्ठा होता था। जो धीरे धीरे रिस कर जमीन के अंदर जाता और लाख ट्यूबेल से सिचाई करने के बावजूद बड़ी तेजी से नीचे नही जाता था। अब बड़ी तेजी से जा रहा है। नलकूप और ट्यूबेल बड़ी तेजी से पानी छोड़ रहे हैं। पांच दस साल के बाद एक बड़ी रकम खर्च करके फिर से बोर कराना पड़ता है । इसके अलावा गांव का पानी निकलने के लिए जो नारा बना होता था, वह भी विलुप्त हो गए हैं। उस पर भी लोगों ने या तो घर बना लिया है, या जोत लिया।

पहले नदियों के किनारे पेड़ हुआ करते थे। झाड़ झंखाड़ हुआ करते थे। नदियों का मजबूत करार हुआ करता था। जिससे बरसात के दिनों में भी नदियों का करार नही टूटता था। न खेतों और गांव की गाद ही बह कर नदियों में जाती थी। न भूमि कटाव ही बड़े पैमाने पर होता था। जिसकी वजह नदियों का प्रवाह तेज होता था। वह गहरी बनी रहती थी और साल भर उसमें पानी भी रहता था, जो साल भर सिचाई और जानवरों के पीने, नहाने और कपड़ा धोने के काम आता था। गावों में बरसात के पानी की जो व्यवस्था थी कि पानी पहले तालाब और पोखरों, पोखरी में जाता था, वहां भरने के बाद बाहों से होता हुआ नदियों में जाता। इससे खेतों और गावों की मिट्टी की गाद इन पोखरों, तालाबों मर इकट्ठा हो जाती और नदियों में केवल पानी जाता। गांव वालों के लालच से यह व्यवस्था नष्ट हो गई। जिसकी वजह से खेतों और गांव की मिट्टी सीधे नदियों में जाने लगी और नदियां गादों से भरने की वजह से उथली होने लगी। इस कारण थोड़ी ही बारिश में नदियां उफान पर आ जाती हैं और आसपास के गावों को अपने चपेट में ले लेती हैं । आजकल नदियों के किनारे बसे गावों के जलमग्न होने की जो स्थिति है, उसका प्रमुख कारण यही है।व

इसके अलावा बरसात से पूर्व यह भी देखने मे आता है कि सरकारें गांव का पानी निकालने के लिए नालों की सफाई करा देती हैं। जो बरसात में पानी निकालने के बजाय बाढ़ का सबब बन जाता है । इन्हीं नालों से पानी गांव में घुस आता है। नदियों का पानी गांव के आसपास बढ़ जाता है । जिसकी वजह से महीनों गॉंव के गांव बाढ़ में डूबे रहते हैं । नदी के किनारे काट कर कुछ किलोग्राम फसल के बदले कई बीघे की फसल नष्ट हो जाती है, फिर भी लोग सबक नही लेते।

गांव, नगर और कस्बों सहित भारत को बाढ़ की त्रासदी से बचाने के लिए ऋषियों, मुनियों द्वारा बनाई गई व्यवस्था को फिर से लागू करना होगा। नदियां गादों से भर न जाये, इसके लिए बाहों, गड़ाहों, तालाब, पोखरों को फिर से पुनर्जीवित करना होगा। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने ने इस दिशा में एक निर्देश देकर डीएम की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट का आदेश भी डीएम की फाइलों में सुशोभित हो रहा है। इसके अलावा नगरों और कस्बों के लिए विशेष योजना बनायी जानी चाहिए। और नदियों के किनारे या नालों पर बस्तियां किसी भी हालत में नही बसने देना चाहिए। योजनाओं को सही तरीके से समय से क्रियान्वित करना चाहिए। जो भाग डूबत में आ सकते हों, उनके पुनर्वास के लिए योजना बना कर रखना चाहिए। जिससे बाढ़ के समय उनका पुनर्वास किया जा सके ।

केंद्र और उत्तर प्रदेश सहित सभी सरकारों की सख्ती के साथ इस दिशा में कदम उठाना चाहिए। जिससे इस समस्या का स्थायी समाधान किया जा सके । लेकिन बिहार की स्थिति भिन्न है। नेपाल और ऊपरी भाग से आने वाले पानी के लिए अपनी सीमा के अंदर कहीं डैम बनाना चाहिए। जिस पर जल विद्युत परियोजना का निर्माण कर उसका उपयोग बिजली बनाने में करना चाहिए। तभी उसे तबाही से बचाया जा सकता है । पहाड़ी क्षेत्रों में बाढ़ और कटाव रोकने के लिए पहाड़ों पर स्थित वनों को काटने से रोकना चाहिए। विकास के नाम पर न तो उन्हें नष्ट करना चाहिये और न ही उनके प्राकृतिक स्वरूप से छेड़छाड़ करना चाहिए। तभी भूस्खलन रोका जा सकता है। बाकी पहाड़ी क्षेत्रों के बहाव की गति पेड़ पौधों और वनों से ही रोकी जा सकती है। फिर भी वहां प्रवाह की गति मैदानी इलाकों की अपेक्षा अधिक रहेगी। यहां भी समय रहते सावधानी बरतने के लिए प्रशासन और सरकारी स्तर पर प्रयास होना चाहिए। जिससे जान माल की सुरक्षा की जा सके।

 प्रोफेसर डॉ. योगेन्द्र यादव

पर्यावरणविद, शिक्षाविद, भाषाविद,विश्लेषक, गांधीवादी /समाजवादी चिंतक, पत्रकार, नेचरोपैथ व ऐक्टविस्ट

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