भगवान श्रीराम की जन्मभूमि अयोध्या इन दिनों एक बार फिर सुर्खियों में है। चाहे अखबार के पन्ने हों, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की डिबेट और समाचार हों, या आम जनता के बीच संवाद हो, सभी की चर्चा के केंद्र में प्रभु श्रीराम हैं । उनकी जन्मभूमि है। आगामी 5 अगस्त, 2020 को देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सहित कुछ विशिष्ट अतिथियों की उपस्थिति में सनातनी परंपरा के अनुसार होने वाला भूमिपूजन है
भारत के सुप्रीम कोर्ट में लंबे समय तक चले केस के बाद हुए निर्णय पश्चात यह मंदिर बनने जा रहा है, इस कारण कहीं भी किसी प्रकार ल विरोध नही है। वैसे भी भारत मे भगवान श्रीराम को लेकर कभी विरोध रहा ही नही । भगवान राम तो यहां की संस्कृति हैं। लोगों के रोम रोम में समाए हुए हैं । आज भी गांव में अभिवादन करते समय लोग राम राम ही करते हैं । इस समय मैं कोरोना - पर्यावरण जागरूकता अभियान शहीद सम्मान सायकिल यात्रा पर हूँ। ज्यादातर ग्रामीण क्षेत्रों से होकर गुजरता हूँ। मेरी एक आदत है कि रास्ते चलते समय मैं लोगों को प्रणाम करते चलता हूँ। जिसका जवाब अधिकांश लोग राम राम कह कर देते हैं। इस कारण मैं भी अक्सर लोगों से राम राम ही करता हूँ और लोग उसका जवाब भी राम राम कह कर देते है ।इसके अलावा जब ऐसे संतों को देखता हूँ, जो राजा राम के अस्तित्व को भले ही स्वीकार न करते हों, लेकिन वे भी उच्चारण तो राम का ही करते हैं। भले ही वे इसके साथ यह भी घोषणा करते हों कि वे जिस राम को पुकारते हैं, उसके मुख माथा नही है, न ही उसे किसी रूप से अभिहित किया जा सकता है। इस बात को तो भगवान श्रीराम को राजा राम के रूप में भी मानते हैं । वे जिस राम में श्रद्धा रखते हैं, उसके दो रूप हैं । पहला रूप मर्यादा पुरुषोत्तम राम का है। जिसमे वे मनुष्य की भांति व्यवहार करते हैं। लेकिन मनुष्य रूप में भी अपने कृत्यों से वे भगवान स्वरूप का भी आभास कराते हैं । इस प्रकार हम देखते हैं कि भगवान श्रीराम सबके आराध्य हैं। चाहे वे ब्राह्मण हों, क्षत्रिय हों, पिछड़े हों या अनुसूचित जाति व जनजाति के लोग हों । भगवान श्रीराम में सबसे आस्था आज भी पिछड़ों की है । अगर हम ग्रामीण इलाकों में बने मंदिरों की गणना करें, तो सबसे अधिक मंदिर पिछड़ों ने ही बनवाये हैं । और सबसे अधिक पूजा अर्चना भी पिछड़ो द्वारा की जाती है। खैर मैं इस आधार पर भी आस्था के पर्याय भगवान राम के विभक्तिकरण के पक्ष में नही हूँ । वे देश की जनता के श्रद्धा और विश्वास में समाए हुए हैं । इस कारण वे विश्लेषण से परे हैं ।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का भी बचपन से ही राम नाम से नाता रहा। बचपन मे उनकी देखरेख करने वाली रंभा ने उन्हें भयमुक्त करने के लिए रामनाम का ही मंत्र दिया। जो आगे चल कर उनके जीवन का मंत्र ही बन गया। वे अनवरत उनके नाम का जप करते रहे । राम नाम पर श्रद्धा इतनी बलवती हुई कि वे इस बात का दावा करते रहे कि राम नाम मे इतनी शक्ति है कि उसके जप मात्र से भयंकर से भयंकर रोग रोग भी ठीक किये जा सकते हैं । उनका विश्वास भगवान श्रीराम में इस हद तक था। यही नही, उनका सबसे प्रिय भजन भी राम नाम से सबंधित रहा। दंगों के समय वे इसी भजन को गाते निर्भय होकर आगे बढ़ते रहे। वह भजन है - रघुपति राघव राजा राम, पतित पावन सीताराम। ईश्वर अल्लाह तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान। यह भजन आज भी इतना लोकप्रिय है कि आज भी गांधी जयंती से लेकर उनके हर कार्यक्रम में गाया जाता है। छोटे छोटे बच्चे भी गांधी जी नाम आते, इसी गीत को गुनगुनाते हैं ।
इतना ही नहो, 1921 फरवरी में जब वे अयोध्या आये, तो वे श्रीराम जन्मभूमि मंदिर स्थित भगवान श्रीराम का दर्शन करने भी गए। जिसका वर्णन उन्होंने खुद ही मार्च 1921 में प्रकाशित नवजीवन में किया है।महात्मा गांधी इस अंतराल में स्वदेशी और खादी आंदोलन चला रहे थे, इसलिए अयोध्या स्थित उनके समर्थकों की दिली इच्छा थी कि महात्मा गांधी मंदिर के पुजारी से अनुरोध करें कि वे भगवान श्रीराम, माता सीता की मूर्ति को खादी वस्त्रों से आभूषित करे। उनका ऐसा मानना था कि अगर ऐसा हो गया, तो सम्पूर्ण भारत मे, विशेषकर उत्तर भारत मे तो खादी के क्षेत्र में क्रांति आ जायेगी। अपने समर्थकों के कहने पर महात्मा गांधी ने पुजारी से अनुरोध किया कि वे भगवान श्रीराम और माता सीता को खादी का वस्त्र धारण किया करें । लेकिन उन्होंने नवजीवन में छपे अपने लेख में इस बात का भी जिक्र किया है कि जब वे भगवान श्रीराम का दर्शन करने राम जन्मभूमि स्थल पर पहुचे, तो देखा कि वहां भगवान श्रीराम और माता की छोटी सी मूर्ति रखी गई है, जिसे मलमल और चमकीले सिल्क के वस्त्र पहनाए गए हैं । महात्मा गांधी के अनुरोध के बाद उपस्थित पुजारी ने कोई उत्तर नही दिया, इस कारण महात्मा गांधी ने नवजीवन में छपे अपने लेख में इस बात की शंका जाहिर की है कि शायद ही उसने उन्हें खादी पहनाया हो। लेकिन इसी लेख में महात्मा गांधी तुलसीदास के एक प्रसंग का उल्लेख करते हुए लिखते है कि अगर मुझे भी भगवान श्रीराम की भक्ति उस स्तर तक प्राप्त होती तो वे खादी वस्त्र धारण करने के लिए भगवान श्रीराम के समक्ष अनशन करते और जब तक वे खादी वस्त्र धारण करने की सहमति नही दे देते, तब तक अनशन नही तोड़ते। इसी लेख में तुलसीदास जी के उस प्रसंग का उल्लेख किया है कि एक बार वे एक कृष्ण मंदिर में पहुच जाते हैं और कहते हैं कि जब इन मूर्तियों में भगवान राम के दर्शन नही होंगे, तब तक वे नही झुकेंगे। कहा जाता है कि उसी क्षण सारी मूर्तियां भगवान राम के रूप में परिवर्तित हो गई, और इसके बाद गोस्वामी तुलसीदास ने उन मूर्तियों को नमन किया।
महात्मा गांधी ने भगवान राम की जन्मभूमि स्थित मूर्तियों को खादी वस्त्र पहनाने का जो संकल्प लिया, वह कभी पूरा नही हो सका।
अब मैं इस मंदिर के दूसरे व्यक्ति की चर्चा कर रहा हूँ, जो बाबरी मस्जिद के ढांचा गिराए जाने के कारण काफी विवादास्पद रहे। उनका नाम मुलायम सिंह है । वे उस समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। उनके इस कृत्य पर काफी आरोप प्रत्यारोप हो चुका है। मैं बात उनके उस संकल्प की कर रहा हूँ, जो उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा था। उन्होंने कहा था कि अगर कोर्ट मंदिर बनाने का आदेश दे देगा, तो वे खड़े होकर मंदिर बनवाएंगे। हालांकि आज उनकी सरकार नही है। दूसरे वे काफी बुजुर्ग हो चुके हैं, पार्टी की कमान इस समय उनके पुत्र अखिलेश यादव के हाथ मे है। अब वे अपने हिसाब से पार्टी चला रहे हैं। लेकिन एक बात जरूर देखने को मिल रही है कि राम मंदिर के सबंध में कोई भी नकारात्मक विचार न तो सुनने में आ रहे हैं, न ही पढ़ने में। लेकिन मेरा मानना है कि आज भी मुलायम सिंह के प्रति श्रद्धा रखने वाले हैं । वे मुलायम सिंह के इस संकल्प की बात तो करते हैं, लेकिन उसकी पूर्ति के लिए कोई कदम नही उठा रहे हैं । ऐसे में जब मंदिर निर्माण का निर्णय कोर्ट का है, मंदिर निर्माण में सक्रिय भागीदारी के बाद भी उन पर किसी प्रकार का आक्षेप नही लगता। उल्टे इस बात की चर्चा होती कि समाजवादी पार्टी के नेता, जो संकल्प लेते हैं, उसे पूरा करते हैं ।
खैर, 5 अगस्त को भव्य श्रीराम मंदिर के निर्माण की आधारशिला रखने का कार्यक्रम होने जा रहा है। मंदिर निर्माण के लिए जो लोग मुक्त हस्त से दान दे रहे हैं, अगड़े, पिछड़े, अनुसूचित सभी की भागीदारी देखी जा रही है। कोरोना संकट काल की महामारी और उसके प्रभाव से चौपट हुए व्यापार और चली गई नौकरी के बाद भी लोग दान देने में किसी भी प्रकार का चिंतन नही कर रहे हैं ।
प्रोफेसर डॉ. योगेन्द्र यादव
पर्यावरणविद, शिक्षाविद, भाषाविद,विश्लेषक, गांधीवादी /समाजवादी चिंतक, पत्रकार, नेचरोपैथ व ऐक्टविस्ट