अपनी बिटिया के सुखमय जीवन के लिए स्वेच्छा से शुरू हुई दहेज प्रथा आज समाज के शिष्टाचार में परिवर्तित हो गई । अब इस पर थोड़ा बहुत दबे स्वर में विरोध वही व्यक्ति करता है । जिसे अपनी बिटिया ब्याहनी होती है । लेकिन विरोध के साथ साथ वह सभी जरूरी सामान के साथ अपनी हैसियत से अधिक दहेज भी जुटाने की व्यवस्था में लगा रहता है । आज समाज उस स्थिति में पहुंच गया है कि वह दहेजमुक्त विवाह की कल्पना करना छोड़ दिया है । इसके विपरीत दहेज ही व्यक्ति की हैसियत का द्योत्तक बन गया है । जो अपनी बिटिया को जितना अधिक दहेज देता है, उसे उतना ही बड़ा आदमी माना जाता है । उसकी समाज से लेकर चट्टी चौराहे पर खूब चर्चा होती है । जो जितना अधिक दहेज देता है, उसकी लोग उतनी ही प्रशंसा करते हैं ।
इस समय मैं कोरेना पर्यावरण जागरूकता अभियान शहीद सम्मान सायकिल यात्रा पर मैनपुरी जिले के गांव गांव भ्रमण कर रहा हूँ । कोरेना और पर्यावरण की चर्चा के दौरान आज कुछ महिलाओं ने अचानक लड़कियों, उनके विवाह और दहेज की भी चर्चा करना शुरू कर दिया। करीब एक दर्जन महिलाओं ने जो सत्य उद्घाटित किया, वह बेहद चौकाने वाले तथ्य रहे । उन्होंने बताया कि आज शहर ही नही, गावों में भी लोग इसलिये लड़की पैदा नही करना चाहते हैं, क्योंकि उसके विवाह के लिए इतना अधिक दहेज कहाँ से लाएंगे । दहेज को ही उन महिलाओं के भ्रूण जांच और उसकी हत्या को भी दोषी माना। उन्होंने कहस कि जब तक दहेज प्रथा की प्रतिपूर्ति के लिए मुंहमांगी रकम देने की बाध्यता नहीं थी, तब तक लड़का हो या लड़की लोग लिंग परीक्षण कराते ही नही थे । लड़का हो, या लड़की पैदा होने देते। लड़का हो लड़की, दोनो के पैदा होने पर घरों में खुशी का माहौल रहता । कभी कभार अगर किसी ने उसका विरोध भी किया, तो घर के बड़े बुजुर्ग डांट कर चुप करा देते कि सभी अपना नसीब लेकर पैदा होते हैं। भगवान जिसे जमीन पर भेजता है, उसके खाने और अन्य चीजों का इंतजाम भी करके भेजता है । फिर सभी मिल कर खुशी मनाते । बचपन मे जितना दुलार बेटे का होता, उससे कम दुलार बिटिया का नही होता । लालन पालन में भी किसी प्रकार का भेद नही किया जाता। लेकिन जैसे जैसे दहेज प्रथा अनिवार्य हुई ।तबसे दोनों के लालन पालन में भी भेद किया जाने लगा । प्यार दुलार में भी अंतर आने लगा । शिक्षा दीक्षा मे भी अन्तर आने लगा । गांव की महिलाओं ने बताया कि लड़कियों की गिरती संख्या के कारण ही अब झुंड के झुंड कुँवारे लड़के दिखाई देते हैं । लेकिन विवाह योग्य लड़कियों की संख्या में लगातार कमी आ रही है। अगर लड़की के नैन नक्श ठीक हैं, गोरी चिट्टी है, तो उसने इंटर तक पढ़ाई की नही, कि उसके रिश्ते तय हो जाते हैं । उन महिलाओ ने बताया कि अपनी लड़कियों को ज्यादा यानी उच्च शिक्षा वही दिलाते हैं, जिनके पास पढ़ाने के बाद, उसे नौकरी दिलाने के साथ खूब दहेज देने की भी हैसियत होती है ।
चर्चा के दौरान यह भी बात सामने आई कि जो लोग दहेज देते हैं, या लेते हैं । उनकी लड़कियां ससुराल जाने के बाद न तो सास की सेवा करती हैं, न ससुर को टाइम से भोजन देती हैं । ना ही घर का काम करना चाहती हैं । गाय भैस का गोबर उठाना, उसे चारा पानी देना, उसका दूध निकालना, घर से लेकर पशुओं के रहने के स्थान पर झाड़ू से बुहारने जैसे कामों में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं होती है । भले ही वे यह सब काम अपने मायके में करती रही हों, लेकिन ससुराल आने के बाद वे बिल्कुल नही करती हैं । अधिक दहेज देने के कारण कई माता पिता तो अपनी बिटिया को वहां जाकर काम धाम करने के लिए मना कर देते हैं । कई लड़कियां जब यह देखती है कि उनके पिता ने किस तरह से व्यवस्था करके दिया है । ऐसी लड़कियां जानबूझ कर घर के काम मे कोई दिलचस्पी नही लेती ।
इन महिलाओं ने यह भी बताया कि जब लोग दहेज ले लिए तो फिर वह क्यों काम करेगी । उन्होंने यह भी बताया कि ऐसी ही लड़कियां ही अपने पति को अपना पति नही समझती हैं । उन्हें अपना नौकर समझती हैं । इसके अलावा जब वह देखती है कि जिस बर्तन में खाना पके रहा है, वह उसके माता पिता का दिया हुआ है । जिस बर्तन में सब खाना खा रहे हैं, वह भी उसके माता पिता का दिया हुआ है । जब वह बैठक में जाती है, तो सोफे, कुर्सी से लेकर टीवी तक उसके माता पिता द्वारा दिया हुआ देखती है । जिस बेड और बिस्तर पर वह सोती है, वह उसके माता पिता का दिया हुआ है। जिस गाड़ी पर लोग घूमते हैं, या चलाते हैं, वह भी उनके माता पिता का दिया हुआ है । इसी तरह उस समय घर की एक एक एक चीज जो उस समय उपयोग में लाई जाती है, वह सब उसके मायके से आया हुआ देखती है । उस समय जो लोग आते हैं, वे भी सब उसके मायके से मिले दहेज की ही चर्चा करते हैं । इस प्रकार उसके उपयोग में आने वाली एक एक चीज जब उसके माता पिता की दी गई होती है, फिर उस पर अपने सास ससुर से भावात्मक लगाव कैसे होगा।
उन महिलाओं ने चर्चा के दौरान यह भी बताया कि लेकिन गांव के लोग दहेज की रकम चुकता करने में ही परेशान रहते हैं पूरा जीवन उनका दहेज की रकम भरते भरते बीत जाता है। जब तक एक पीढ़ी की बिटिया की दहेज की रकम पूरी होती है, तब तक दूसरी पीढ़ी की बिटिया तैयार हो जाती हैं। फिर वह उसकी शादी के लिए जरूरी दहेज राशि और सामान के व्यवस्था में लग जाता है । उसका जीवन इसी में बीत जाता है । इस संबंध में जब मैंने पूछा कि वह इतनी राशि का इंतजाम कहाँ से करता है । तो उन्होंने कहा कि खेती पाती अब बहुत महंगी हो गई है । कि बहुत थोड़ी ही बचत हो पाती है । बीज से लेकर खाद पानी, कीटनाशक, कटाई, मड़ाई तक पैसा ही पैसा लगता है। जिसकी वजह से उतनी ही बचत हो पाती है, जिससे घर का खर्च चल सके । लेकिन फिर भी खर्च और कहा
खानपान में कटौती और कंजूसी करने के बाद थोड़ी बहुत बचत हो जाती है। जो दहेज के लिए ली गई उधारी पूरा करने ।के चली जाती है। घर मे अगर गाय भैस बकरी न हों, वह दूध न दें, तो महीने में तीन हफ्ते किसान के घर में लोग नमक रोटी ही खाएं । यह हालत है किसान परिवार की ।
उन महिलाओं ने बातचीत में यह भी बताया कि आज गांव से लेकर शहर तक सामाजिक और पारिवारिक वातावरण में जो तनाव महसूस किया जा रहा है, उसके पीछे किसी न किसी रूप में सामाजिक शिष्टाचार में रूप में प्रतिष्ठित दहेज प्रथा ही है। जिस लड़की के पिता ने भारी भरकम दहेज दिया है, वह अपने पति को परमेश्वर क्यों मानेगी । वह तो उसे नंगा भूखा जानती है । जितना भी चीज उसके पति द्वारा उपयोग में लाया जाता है, वह सब उसके मायके का ही होता हैं। इसलिए वह अपने पति को वह सम्मान नही दे पाती है । जिसकी वह और समाज अपेक्षा करता है । इसी प्रकार व अपनी ननद और सास ससुर को भी अपनी बहन, माता पिता की तरह आदर और सम्मान नही दे पाती है । दहेज के कारण उसके स्वभाव में रूखापन आ जाता है । आत्मीयता समाप्त हो जाती है। दहेज के कारण आये अहंकार की वजह से वह जिद्दी हो जाती है, और धीरे धीरे पूरा परिवार उसकी जिद और आक्रामक रुख के कारण नतमस्तक हो जाता है । तमाम सामाजिक - पारिवारिक विसंगतियां उत्पन्न हो जाती है । जिसका समाधान तभी सम्भव है, जब वैवाहिक रस्म बिना दहेज के संपन्न होने लगे ।
अब इस पर समाज को चिंतन करना है कि उसे स्वस्थ समाज और परिवार बनाना हो, जीवन को सुखी और शांतिमय बनाना हो, श्रमशील समाज और परिवार बनाना हो तो समाज की इस कुप्रथा को समाप्त करना होगा । दहेज की जगह शिक्षा और गुण के साथ श्रम को वरीयता प्रदान करना होगा । दहेजमुक्त समाज की संरचना से भ्रूण हत्या तो रुकेगी ही, बढ़ते लिंग अनुपात का अंतर भी समाप्त हो सकेगा ।
प्रोफेसर डॉ. योगेन्द्र यादव
पर्यावरणविद, शिक्षाविद, भाषाविद,विश्लेषक, गांधीवादी /समाजवादी चिंतक, पत्रकार, नेचरोपैथ व ऐक्टविस्ट