आज कल मैं कोरेना - पर्यावरण जागरूकता अभियान शहीद सम्मान सायकिल यात्रा के तहत मध्य उत्तर प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों का भ्रमण कर रहा हूँ । इस यात्रा के दौरान यह देखने को मिल रहा है कि ग्रामीण क्षेत्रों में कोरेना संक्रमण से जो ऐतिहात बरतना चाहिए, वह ग्रामीण लोग नही बरत रहे हैं । इतना अवश्य है कि लोगों के घर-द्वार पर बैठने की जो परंपरा थी, वह जरूर खंडित हुई है। कोरेना के नाम पर लोग एक दूसरे से व्यापक दूरी बनाए हुए हैं, कहने का तात्पर्य यह है कि लोग एक दूसरे के घर नही आ जा रहे हैं । अगर कोई काम होता है, तो दूर से बात कर रहे है। बुजुर्ग पीढी के लोग जहां मुंह और नाक ढकने के लिए जहां गमछे का उपयोग कर रहे हैं, वही युवा पीढी के लोग कहीं कही मास्क लगाए हुए दिख जाते है । हालांकि कोरेना संक्रमण की चर्चा तो हर जगह हो रही है । इससे यह कहा जा सकता कि लोगों में जागरूकता आई है । जागरूकता का श्रेय इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया को ज्यादा जाता है ।
लेकिन आज गांव का स्वरूप पूरी तरह बदल गया है । अब कहीं कही ही कच्चे घर दिखाई पड़ते हैं। खपरैल का घर इक्का दुक्का ही बचे हैं । यह भी देखने मे आ रहा है कि कच्चे घर उन्ही के बचे हुए। जिनके घर बाहर कोई कमाने वाला नही है । घास फूंस के छप्परों का भी यही हाल है ।उसकी जगह अब टीन के पत्तरों ने ले लिया है ।
गांव वालों के पहरावे में अंतर आया है । अब गांव की कोई कुवांरी लड़की साड़ी नही पहनती है । सभी लड़कियां शहर की लड़कियों की तरह सलवार सूट ही पहनती हैं । साड़ी पहनने का प्रचलन तो शादी के बाद ही बचा है। उसमें भी नौकरीपेशा और कामकाजी शादीशुदा महिलाएं तो अक्सर घर पर सलवार सूट ही पहनती हैं । साड़ी का इस्तेमाल तभी करती हैं , जब कभी बाहर जाना होता है । गांव में शिक्षा का भी स्तर बढ़ा है। साक्षर तो लगभग सभी हो गए हैं ।
लेकिन गांव में रह कर बच्चे उस स्तर की शिक्षा ग्रहण नही कर पाते हैं, जिस स्तर की शिक्षा की आज जरूरत है । जिस स्तर की शिक्षा आज प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए जरूरी है । परिश्रम से अंक न अर्जित करने के कारण उनके पास प्रणाम पत्र तो मिलता है लेकिन उस स्तर की शिक्षा के अनुरूप मानसिक और बौद्धिक परिवर्तन परिलक्षित नही होता है । इससे शिक्षा मात्र दिखावे की वस्तु रह जाती है ।
देखने मे तो गांव काफी आलीशान दिखाई दे रहे है। वहां के लोग सभ्य दिखाई पड़ रहे हैं । लेकिन प्राकृतिक संसाधनों औए भौतिक संसाधनों के प्रति जो सजगता और सहजता दिखाई पड़नी चाहिए, वह नही दिखाई पड़ रही है । अभी बीस साल पहले तक नीम के पेड़ द्वार की शान होते थे । लेकिन अब या तो शोदार पौधे लगाए जाते हैं या पेड़ लगाए ही नही जाते । जिसकी वजह से हाइजीन और प्रचुर मात्रा में ऑक्सीजन के प्रबंध का प्रयोग जो ऋषियों मुनियों ने किया था । वह समाप्त होता जा रहा है । हमारी संस्कृति दिखावे की ओर जा रही है ।इसकी वजह से पेड़ पौधे लगाने की जो हर व्यक्ति की, हर घर की परंपरा रही। वह समाप्त होती जा रही है । आज मैं कानपुर देहात के मुख्यालय के पास स्थित गांव मुरीदपुर में रुका था। मैंने शाम और सुबह पूरे गांव का भ्रमण करके देखा कि अधिकांश घर पर द्वार बचा नही है । अगर द्वार नही है, पेड़ लगाने का सवाल ही नही उठता । यानी दो प्रतिशत घरों की छोड़ दें , तो किसी के दरवाजे पर पेड़ नही है । इस कारण गावों में जो अतिरिक्त ठंडक का एहसास होता है। मौसम के सुहावनेपन का जो एहसास होता था, वह कम होने लगा है। अब गांव भी शहरों की राह पर चल चुके हैं । आलीशान कोठी बनाने और उसकी बाउंड्री करा कर उसे पैक करने का प्रचलन की वजह से गांवों की स्वाभाविक हरियाली समाप्त हो गई है । इस तरह दिन प्रति पर्यावरण का क्षरण हो रहा है। पहले पेड़ लगाना पारिवारिक और नैतिक जिम्मेदारी हुआ करती थी, अब यह भी जिम्मेदारी सरकार की हो गई है। सामाजिक जागरूकता का अभाव होने के कारण सरकार द्वारा चलाये गए अभियान की सफलता प्रतिशत 35 से भी कम होता है ।
गावों में भी घर घर मे बिजली का कनेक्शन लगा हुआ है । घर घर मे सबमर्सिबल लग गए हूं । अब कुएं से पानी खींचने या हैड पाइप से पानी निकालने के बजाय एक बटन दबा कर पानी निकाला जा रहा है । मेरा सबमर्सिबल या बिजली कनेक्शन से विरोध नही है । लेकिन दिन रात जो बल्ब जल रहे हैं, उससे है। बिना मतलब के जो भूगर्भ जल बह रहा है, उससे है। मैंने देखा कि एक बार सबमर्सिबल चालू करके लोग छोड़ देते हैं । जिससे जहां एक ओर भूगर्भ जल का अपव्यय होता है। वही दूसरी ओर विद्युत ऊर्जा का भी अपव्यय होता है । फिर कहते हैं कि बिजली नही आ रही है । फिर कहते हैं कि भूगर्भ जल का स्तर बफ तेजी से गिर रहा है ।मैंने इस संबंध में जब कई किसानों से बात की, तो उन्होंने स्वीकार किया कि अब हमारा ट्यूबवेल कम पानी दे रहा है। लगता है, दो चार साल में पानी छोड़ देगा। कुछ लोगों ने यह भी स्वीकार किया कि पहले उक्त ट्यूबेल खूब पानी देता था, अब पानी छोड़ रहा है। । मैंने जब सबमर्सिबल चला कर छोड़ देने की उनकी प्रवृत्ति की चर्चा की, तो उन्होंने कहा कि यह इसकी वजह से हो रहा है ।
यही नही, कई गावों में मैंने सौर पैनल भी लगे देखे। लेकिन आजकल वे जल ही नही रहे हैं । खराब पड़े हैं। सौर पैनल से प्रकाश उन्हें मिलता है । लेकिन उसे ठीक रखने या ठीक कराने की उनकी कोई जवाबदेही ही नही है। ऐसा जान पड़ता है। उनके दिमाग मे यह भरा हुआ है कि इसे सरकार ने लगवाया है। इसलिए इसे लगाने के साथ साथ ठीक कराने की भी जिम्मेदारी सरकार की है ।
इसी तरह अन्य प्राकृतिक और भौतिक संसाधनों के प्रति ग्रामीण क्षेत्रों में घोर लापरवाही देखने को मिली । उन्हें मालूम ही नही है कि यह उनका नैतिक कर्तव्य है और न ही उन्हें कोई इतमीनान से समझाने ही वाला हूं । सरकार की ओर से योजनाएं तो बहुत चलाई जा रही हैं । लेकिन उन योजनाओं के प्रति लोगों के नैतिक कर्तव्य क्या है? इस दिशा में कोई प्रयास नही किया जाता है ।
जबकि योजनायें चलाने के साथ सरकार का यह भी कर्तव्य बनता है कि वह कम से कम ग्रामीण क्षेत्रों में उनके रख रखाव और उपयोगिता के संबंध में जागरूक भी करे। अन्यथा उनके द्वारा सहूलियत दी जा रही है । उसकी वजह से प्राकृतिक और भौतिक संसाधनों का दुरुपयोग हो रहा है ।
पर्यावरण संरक्षण के लिए सरकार द्वारा पेड़ लगाने का अभियान चलाया गया । सरकारी विभागों ने पेड़ भी लगा दिए । बरसात का मौसम होने के कारण सभी पेड़ लग भी जाते हैं । लेकिन बाद में उनकी संख्या एक चौथाई भी नही बचती । इसके लिए सरकार को लोगों को जागरूक करने के साथ साथ जिम्मेदारी भी तय करना होगा। चाहे वह जिम्मेदारी जन प्रतिनिधि स्तर पर तय की जाए या व्यक्ति स्तर पर । उससे कहा जाए कि इसे पानी देना और रख रखाव भी करना है । भले ही ऐसे लोगों को भी हर माह मुफ्त अनाज योजना से क्यों जोड़ना पड़े । जागरूक करने के साथ साथ अगर सरकार लोगों को प्रोत्साहन के रूप में कुछ देती है, तो लोग बड़ी जिम्मेदारी से अपने कर्तव्य का निर्वहन करेंगे ।
प्रोफेसर डॉ. योगेन्द्र यादव
पर्यावरणविद, शिक्षाविद, भाषाविद,विश्लेषक, गांधीवादी /समाजवादी चिंतक, पत्रकार, नेचरोपैथ व ऐक्टविस्ट