ब्राह्मण विधायकों की बैठक पर चेतावनी, कुर्मी महासभा की तस्वीरों से पंकज चौधरी घिरे
लखनऊ। कभी उत्तर प्रदेश की राजनीति में ब्राह्मणों की तूती बोलती थी. पर मंडल राजनीति के आने से ही ओबीसी राजनीति सभी दलों में हावी हो गई. आज बीजेपी ही नहीं, कांग्रेस में भी ओबीसी नेतृत्व को आगे रखना मजबूरी है. बीजेपी अध्यक्ष पंकज चौधरी ने एक बार सार्वजनिक रूप से ब्राह्मण विधायकों की मीटिंग पर नाराजगी जताते हुए जातिगत मीटिंग्स पर कड़ी चेतावनी जारी की है. लेकिन, इस पर ब्राह्मणों की ओर से सोशल मीडिया पर आरोप लगाया जा रहा है कि पंकज चौथरी खुद कुर्मी महासभा की बैठक को संबोधित कर चुके हैं और दिल्ली में अपने आवास पर कुर्मी महासभा के लोगों से मुलाकात करने की फोटो सोशल मीडिया पर पोस्ट कर चुके हैं, इसलिए उन्हें दूसरी जातियों को रोकने का कोई हक नहीं है.
उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक बार फिर जातीय संतुलन और नेतृत्व को लेकर बहस तेज हो गई है। कभी प्रदेश की सत्ता और नीति-निर्धारण में निर्णायक भूमिका निभाने वाले ब्राह्मण समाज के राजनीतिक प्रभाव में आई कमी को लेकर असंतोष खुलकर सामने आने लगा है। मंडल राजनीति के बाद ओबीसी राजनीति के वर्चस्व ने प्रदेश की सियासी दिशा बदल दी है और आज स्थिति यह है कि भारतीय जनता पार्टी ही नहीं, बल्कि कांग्रेस जैसी पार्टियों में भी ओबीसी नेतृत्व को आगे रखना राजनीतिक मजबूरी बन चुका है।
इसी पृष्ठभूमि में हाल ही में बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष पंकज चौधरी का एक बयान विवाद की वजह बन गया। उन्होंने ब्राह्मण विधायकों की कथित बैठक पर नाराजगी जताते हुए सार्वजनिक तौर पर कहा कि पार्टी में जातिगत आधार पर बैठकों और लामबंदी को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। उन्होंने स्पष्ट चेतावनी दी कि ऐसी गतिविधियां संगठनात्मक अनुशासन के खिलाफ मानी जाएंगी।
हालांकि, इस बयान के बाद सोशल मीडिया पर तीखी प्रतिक्रियाएं देखने को मिलीं। ब्राह्मण समाज से जुड़े कई लोगों और समर्थकों ने पंकज चौधरी पर दोहरा मापदंड अपनाने का आरोप लगाया। आरोप है कि पंकज चौधरी स्वयं कुर्मी महासभा की बैठकों को संबोधित कर चुके हैं और दिल्ली स्थित अपने सरकारी आवास पर कुर्मी महासभा से जुड़े लोगों से मुलाकात की तस्वीरें भी सोशल मीडिया पर साझा कर चुके हैं। ऐसे में सवाल उठाया जा रहा है कि यदि एक जाति विशेष के मंचों से संवाद अनुशासनहीनता है, तो दूसरी जातियों के कार्यक्रमों में भागीदारी को कैसे उचित ठहराया जा सकता है।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह विवाद केवल एक बयान या एक बैठक तक सीमित नहीं है। इसके पीछे गहरी सामाजिक और राजनीतिक बेचैनी है। ब्राह्मण समाज के भीतर यह भावना मजबूत हो रही है कि पार्टी और सरकार में उनका प्रतिनिधित्व और प्रभाव पहले की तुलना में लगातार कम हुआ है। वहीं, बीजेपी की रणनीति सामाजिक इंजीनियरिंग के तहत ओबीसी और गैर-यादव वर्गों को मजबूत करने पर केंद्रित रही है, ताकि व्यापक चुनावी आधार बना रहे।
विशेषज्ञों के अनुसार, मंडल राजनीति के बाद उत्तर प्रदेश में सत्ता की धुरी बदल चुकी है। पहले जहां ब्राह्मण नेतृत्व को नीति और सत्ता का प्रमुख आधार माना जाता था, वहीं अब ओबीसी वर्ग चुनावी गणित का केंद्र बन चुका है। इसी वजह से राजनीतिक दल सार्वजनिक तौर पर जातीय राजनीति से दूरी दिखाने की कोशिश करते हैं, लेकिन व्यवहार में विभिन्न जातीय समूहों से संवाद बनाए रखना भी उनकी मजबूरी है।
फिलहाल, पंकज चौधरी के बयान और उस पर आई प्रतिक्रियाओं ने बीजेपी के भीतर छिपे जातीय असंतोष को उजागर कर दिया है। आने वाले समय में यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि पार्टी इस असंतुलन को कैसे साधती है—क्या सभी जातीय संगठनों से समान दूरी का संदेश दिया जाएगा या फिर संगठनात्मक और राजनीतिक संवाद के बीच की रेखा को और स्पष्ट किया जाएगा।
राजनीतिक जानकारों का कहना है कि यदि इस मुद्दे को समय रहते संतुलित नहीं किया गया, तो यह असंतोष सोशल मीडिया से निकलकर जमीनी राजनीति में भी असर दिखा सकता है, जिसका प्रभाव आगामी चुनावी समीकरणों पर पड़ना तय है।