भोजन विकल्पों और धार्मिक स्वतंत्रता पर बड़ा सवाल — रेलवे की खाद्य नीति पर उठे गंभीर प्रश्न, आयोग ने कार्रवाई को कहा

Update: 2025-11-27 11:17 GMT

 

रिपोर्ट : अनुराग तिवारी

भारतीय रेलवे, दुनिया के सबसे बड़े सार्वजनिक परिवहन नेटवर्क में से एक, प्रतिदिन लाखों यात्रियों को यात्रा का अनुभव देता है — जिसमें सेवा, भोजन और सुविधाएं भी शामिल हैं। ऐसे में, भोजन से जुड़े फैसले सिर्फ प्रबंधन के स्तर का मामला नहीं, बल्कि सार्वजनिक जवाबदेही का प्रश्न भी हैं। हाल ही में उठे इस विवाद ने इसी संवेदनशील बिंदु को सामने ला दिया है।

शिकायत के अनुसार, ट्रेनों में केवल हलाल प्रक्रिया से तैयार मांस परोसा जाता है। यह मुद्दा, साधारण खाद्य विकल्पों का नहीं बल्कि धार्मिक स्वतंत्रता, समानता और गैर-भेदभाव जैसे मूल अधिकारों का प्रश्न बन गया है। इसी शिकायत को आधार बनाते हुए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) ने रेलवे से स्पष्टीकरण मांगा है और दो सप्ताह के भीतर कार्रवाई रिपोर्ट माँगी है — जो दर्शाता है कि आयोग ने इसे सिर्फ एक शिकायत नहीं, बल्कि संवैधानिक और मानवाधिकार स्तर पर गंभीर विषय के रूप में लिया है।

क्या सार्वजनिक सेवाओं में धार्मिक दृष्टिकोण लागू हो सकता है?

रेलवे की ओर से अनौपचारिक बयान आया है कि “हलाल-सर्टिफाइड भोजन परोसने की कोई आधिकारिक नीति नहीं है।”

यदि ऐसा है — तो पहला सवाल उठता है :

यदि कोई नीति नहीं, तो व्यवहार में केवल एक ही प्रकार की प्रक्रिया क्यों दिख रही है?

और अगर यह सिर्फ सप्लायर संबंधी व्यवस्था है, तो सप्लायर चुनने के मानक क्या हैं?

क्योंकि सरकारी व्यवस्था में कोई प्रक्रिया डिफ़ॉल्ट बन जाती है, तो वह नीति के रूप में प्रभाव डालती है — चाहे लिखित हो या नहीं। और जब सार्वजनिक सेवा में भोजन का सिर्फ एक ही धार्मिक तौर-तरीका दिखाई देता है, तो यह विकल्प, स्वतंत्रता और समानता के अधिकार का सवाल खड़ा करता है।

आजीविका का मुद्दा — क्या यह सिर्फ धार्मिक विवाद है?

शिकायत में स्पष्ट आरोप है कि इससे उन समुदायों की आजीविका प्रभावित होती है — खासकर उन हिंदू दलित व्यापारियों की, जो झटका पद्धति या नैतिक-शारीरिक बलिदान रूप से जुड़ी मांस परंपराओं से आजीविका चलाते हैं। यदि रेलवे की सप्लाई चेन अनजाने में भी किसी विशिष्ट धार्मिक सर्टिफिकेशन पर निर्भर हो जाती है, तो यह आर्थिक बहिष्करण के रूप में उभर सकता है।

यह सिर्फ एक धार्मिक मुद्दा नहीं — यह रोज़गार न्याय और अवसर समानता का भी प्रश्न है।

भारतीय संविधान क्या कहता है?

Article 14 — Equality before law

Article 19 — Freedom of choice & profession

Article 25 — Freedom to practice religion

प्रश्न यह है —

क्या एक सार्वजनिक सेवा किसी विशेष धार्मिक प्रक्रिया को अप्रत्यक्ष रूप से लागू कर सकती है?

क्या ऐसा करना ‘सभी धर्मों के लिए समान सम्मान’ की भावना के अनुरूप है?

रेलवे की जिम्मेदारी -

यह महत्वपूर्ण है कि रेलवे :

पारदर्शी रूप से अपने भोजन मानकों, सप्लायर्स और नीतियों को सार्वजनिक करे।

विकल्प आधारित प्रणाली पर विचार करे।

यात्रियों की धार्मिक और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को समझे.

जो सवाल जवाब मांगते हैं -

1️⃣ जब रेलवे कहता है कि ऐसी कोई नीति नहीं — तो फिर व्यवहार में यह प्रैक्टिस कैसे बनी?

2️⃣ क्या यात्रियों को विकल्प का अधिकार नहीं होना चाहिए?

3️⃣ क्या सार्वजनिक संस्थान किसी प्रकार का धार्मिक प्रमाणपत्र आधारित भोजन चुन सकते हैं?

4️⃣ क्या ऐसी व्यवस्था अनजाने में भी सामाजिक-आर्थिक भेदभाव पैदा कर सकती है?

5️⃣ क्या भविष्य में रेलवे हलाल बनाम झटका या शाकाहारी-मांसाहारी विकल्प की तरह समानांतर विकल्प देगा?

यह विवाद धार्मिक लड़ाई का मंच नहीं, बल्कि यह समझने का अवसर है कि सार्वजनिक सेवाओं में पारदर्शिता, संवेदनशीलता और समानता कितनी अनिवार्य है।

एनएचआरसी की हस्तक्षेप से उम्मीद है कि यह प्रश्न अब सिर्फ बहस नहीं, बल्कि उत्तरों तक पहुँचेगा।

अब सबकी निगाहें रेलवे की रिपोर्ट पर होंगी — क्योंकि वहाँ से तय होगा कि यह विवाद नीति सुधार का मोड़ बनेगा या भ्रम का एक और अध्याय.

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