स्वामी विवेकानन्द का जन्म भारत की सांस्कृतिक पुकार का ईश्वरीय उत्तर : अखिलेश
अवसान दिवस पर आयोजित हुई गोष्टी में वक्ताओं ने विवेकानन्द के जीवन पर डाला प्रकाश
उठो, जागो और तब तक न रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाये का नारा आज युवाओं में प्रासंगिक
बहराइच। भारत की आध्यात्मिक चेतना का वैश्विक मंच पर लोहा मनवाने वाले, नवजागरण के अग्रदूत, युवाओं के प्रेरणास्रोत और सनातन संस्कृति के अमर ध्वजवाहक, राष्ट्रपुत्र स्वामी विवेकानंद जी की अवसान दिवस के अवसर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कार्यालय राजेंद्र भवन में विचारगोष्ठी का आयोजन किया गया। इस अवसर पर स्वामी विवेकानंद जी के चित्र पर पुष्पांजलि अर्पित कर श्रद्धा सुमन समर्पित किए गए तथा उनके जीवन, विचार और राष्ट्र के प्रति उनके अवदान पर व्यापक विमर्श हुआ।
मुख्य वक्ता के रूप में उपस्थित वरिष्ठतम प्रचारक,क्षेत्र शारीरिक शिक्षण प्रमुख अखिलेश ने स्वामी विवेकानंद के तपस्वी जीवन, राष्ट्रोत्थान में उनके महान योगदान और युवाओं को दी गई दिशा पर सारगर्भित प्रकाश डाला। उन्होंने स्वामी जी के ओजस्वी वचनों और जीवन के विभिन्न आयामों को उपस्थितजनों के समक्ष प्रेरणादायक ढंग से प्रस्तुत किया।
गोष्ठी की अध्यक्षता प्रांत सामाजिक समरसता प्रमुख राजकिशोर ने की। उन्होंने स्वामी विवेकानंद जी के श्रेष्ठ चरित्र, आत्मिक तेज, लौकिक करुणा और उनकी राष्ट्रनिष्ठ संन्यास परंपरा पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए कहा कि विवेकानंद जी केवल एक संत नहीं, अपितु भारत की आत्मा के उद्घोषक थे। उनके जीवन का प्रत्येक क्षण जनकल्याण, सामाजिक चेतना और आत्मोन्नति के लिए समर्पित था।
राष्ट्रपुत्र स्वामी विवेकानन्द जी के जीवन परिचय पर प्रकाश डालते हुए मुख्य वक्ता अखिलेश ने कहा कि स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 को प्रातःकाल सूर्योदय से कुछ समय पूर्व हुआ था। उनका जन्म ही भारत की सांस्कृतिक पुकार का ईश्वरीय उत्तर था। उनके बचपन में ही ऐसी विलक्षण झलकियाँ थीं जो यह स्पष्ट करती थीं कि वे सामान्य बालक नहीं, अपितु शिवतत्त्व के प्रतिनिधि हैं। उनकी माता भुवनेश्वरी देवी उन्हें शिव का अंश मानती थीं और जब उनका स्वभाव उद्दंड हो जाता तो "शिव-शिव" कहकर उनके ऊपर जल छिड़कतीं जिससे वे शांत हो जाते।
अखिलेश ने कहा कि रामकृष्ण परमहंस से दीक्षा प्राप्त कर उन्होंने आत्मसाक्षात्कार प्राप्त किया और 25 वर्ष की आयु में संन्यास धारण कर ‘स्वामी विवेकानंद’ बने। उनका प्रारम्भिक नाम नरेन्द्र था। उन्होंने गहन भारत भ्रमण कर जन-जन की दयनीय दशा देखी और निश्चय किया कि संन्यास केवल साधना नहीं, सेवा का माध्यम भी हो सकता है।
1893 में अमेरिका के शिकागो में आयोजित विश्व धर्म महासभा में जब उन्होंने "सिस्टर्स एंड ब्रदर्स ऑफ अमेरिका" कहकर श्रोताओं को संबोधित किया, तो सभागार तालियों से गूंज उठा। उनके व्याख्यान ने सिद्ध किया कि हिन्दू धर्म एक जीवंत, सार्वभौमिक, और सहिष्णु परंपरा है, जो समस्त मानवता को आत्मिक उन्नति का मार्ग दिखाता है।
1897 में रामकृष्ण मिशन की स्थापना कर उन्होंने सेवा को ही ईश्वर-आराधना का मार्ग बताया। 1899 में जब कोलकाता प्लेग की चपेट में आया, तब उन्होंने अपने दुर्बल शरीर की चिंता किए बिना स्वयं पीड़ितों की सेवा कर यह सिद्ध किया कि धर्म का सच्चा स्वरूप करुणा और कर्म में है।
गोष्ठी में वक्ताओं ने यह भी रेखांकित किया कि स्वामी विवेकानंद का विचार “उठो, जागो और तब तक न रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए” आज के युवा वर्ग के लिए भी उतना ही प्रासंगिक है जितना स्वाधीनता संग्राम के काल में था। उनका जीवन एक जीवंत प्रेरणास्त्रोत है, जिसमें संयम, साधना, सेवा और संघर्ष का समन्वय है।
4 जुलाई 1902 को उन्होंने ध्यानावस्था में ही देह का परित्याग कर ब्रह्म में लीन हो जाना स्वीकार किया। उनका अल्प जीवन काल केवल 39 वर्षों का था, परंतु उन्होंने जो कार्य सम्पादित किए, वे युगों तक भारत की चेतना को दिशा देते रहेंगे।
आज की यह गोष्ठी न केवल उनके चरणों में श्रद्धा का समर्पण है, बल्कि एक संकल्प है कि हम उनके विचारों को अपने आचरण में उतारें और भारत को फिर से आत्मिक महाशक्ति के रूप में स्थापित करें।
गोष्टी कार्यक्रम में नगर कार्यवाह शिवम,जिला सम्पर्क प्रमुख जय सुख लाल,सह जिला सम्पर्क प्रमुख अमर सिंह,जॉइन आरएसएस जिला सम्पर्क प्रमुख उत्तम सिंह,सचिन श्रीवास्तव सहित कई स्वयंसेवक एवं कार्यकर्ता बन्धु उपस्थित रहे।