थानों से गायब होता जा रहा है 'परित्राणाय साधूनां' का श्लोक — पुलिस और पीड़ित के मध्य रोज हो रहा कुकूर झौ झौ

Update: 2025-07-05 05:31 GMT


आनन्द प्रकाश गुप्ता

थानों की दीवारों से धीरे-धीरे मिटता जा रहा है वह श्लोक, जिसने कभी पुलिस को सिर्फ वर्दीधारी बल नहीं, बल्कि धर्म और न्याय के रक्षक के रूप में स्थापित किया था:

> "परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे॥"

आज थानों में एसी लग गए, दीवारें चमक रही हैं, कैमरे सज गए, थाना प्रभारियों के ऑफिस से लेकर उनके सरकारी आवास तक सब मॉर्डनाइस हो गया। मगर जनता के दर्द सुनने की जगह वही पुरानी है — बंद दरवाजों के पीछे मुंसी जी का रौब झाड़ने वाला दरबार।

पीड़ित और फरियादी आज भी दरबार में घुटनों के बल घुसते हैं, साहब का मूड देखकर सांस रोकते हैं। अफसरों की भाषा में शालीनता का चलन बढ़ रहा है वहीँ मुंशी जी का अभी भी वही पुराने जमाने का लहजा — "हम जेलर हैं, कानून हमारे हाथ में है!" तभी तो थानों में रोज कुकुर झौ-झौ मचती है, कोई चीखता है, कोई रोता है, और बड़े साहब के दरबार में भीड़ घटने के बजाय हर दिन बढ़ती जा रही है।

थानों को मॉर्डन बनाने की होड़ में पुलिस ने अपनी आत्मा गिरवी रख दी। श्लोक जो कभी पुलिसकर्मी को याद दिलाता था कि उनका धर्म सिर्फ अपराधियों को मारना नहीं, बल्कि समाज में नैतिकता और धर्म की स्थापना करना है — अब दीवारों से साफ कर दिया गया।

वरिष्ठ नागरिक और पूर्व अधिकारी कहते हैं, "कहीं ऐसा तो नहीं कि चमकदार शीशों और एयर कंडीशनर के पीछे से पुलिस ने वह दृष्टि तो नहीँ खो दी है, जो उसे जनता की रक्षा का संकल्प दिलाती थी?"

पुलिस विभाग अपनी सफाई में कहना है कि गाइडलाइंस और आधुनिक जरूरतों के मुताबिक बदलाव जरूरी हैं।" पर सवाल यह है कि क्या आधुनिकीकरण का मतलब परंपरा और आदर्शों को दफन करना है?

योगी सरकार आने पर लोगों को उम्मीद थी कि थानों में फिर से धर्म और आदर्शों की गूंज सुनाई देगी। लेकिन अब वही लोग मायूस हैं। पुलिस की नई इमारतों में हाइटेक सुविधा भले आ गई हो, पर न्याय और भरोसे की खुशबू कहां गई?

क्या फिर लौटेगा वह श्लोक? या पुलिस थानों से ही नहीं, अपने दिलों से भी 'धर्म' और 'कर्तव्य' को विदा कर चुकी है?

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