बिहार चुनाव में RJD को मिले सबसे ज्यादा 23 फीसदी वोट, फिर वो बुरी तरह क्यों हार गई?

Update: 2025-11-15 08:54 GMT

पटना:

बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में तेजस्वी यादव महागठबंधन के मुख्यमंत्री कैंडिडेट थे, पर अपने पिता लालू प्रसाद यादव और मां राबड़ी देवी की पारंपरिक राघोपुर सीट से शुरुआती मतगणना में काफी पिछड़े हुए थे. अंत में उन्होंने जीत तो हासिल कर ली पर उनकी पार्टी आरजेडी को 2010 के बाद बिहार के चुनाव में सबसे करारी हार का सामना करना पड़ा. तब आरजेडी को केवल 22 सीटें हासिल हुई थीं. बेशक 2025 के विधानसभा चुनाव में आरजेडी को बहुत कम सीटों से संतोष करना पड़ेगा पर उसका वोट शेयर 22.76% रहा जो इस चुनाव में किसी भी पार्टी को मिले वोटों से कहीं अधिक है. सबसे अधिक सीटें जीतने वाली बीजेपी का वोट शेयर 20.90% रहा तो दूसरे पायदान पर रही जेडीयू का वोट शेयर 18.92% रहा. आखिर क्या वजह है कि वोट शेयर के मामले में नंबर-1 पर रही आरजेडी ने बहुत कम सीटें जीतीं?

महागठबंधन की दूसरी सबसे बड़ी सहयोगी पार्टी कांग्रेस के नेताओं बिहार चुनाव में मिली इस करारी हार के सबसे बड़े कारण के रूप में मतदाता सूची से हटाए गए करीब 65 लाख वोटर्स को बताया. वहीं कांग्रेस नेता पवन खेड़ा ने मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार पर लोकतंत्र को कमजोर करने का आरोप लगाया.

2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में क्या हुआ था?

हालांकि अगर 2020 के चुनावों के नतीजों को देखें तो आरजेडी ने तब 75 सीटें हासिल की थी और उसका वोट शेयर 23.5% था. यानी इस बार उसके वोट शेयर में भी करीब 0.75 प्रतिशत की कमी आई है.

दूसरी तरफ यह भी देखें कि बीजेपी का 2020 में वोट शेयर 19.8% था. मगर वो आरजेडी से केवल एक कम सीट जीती थी. इस बार बीजेपी के वोट शेयर में भी एक प्रतिशत से अधिक का इजाफा हुआ है, जिससे उसकी सीटें भी पिछली बार की तुलना में 14 बढ़ी हैं. वहीं एनडीए में बीजेपी की सहयोगी पार्टी जेडीयू को 2020 में 15.7% वोट शेयर हासिल हुए थे और उसकी सीटें 43 थी. 2025 में जेडीयू के वोट शेयर में बेतहाशा वृद्धि देखने को मिली है. पिछली बार की तुलना में जेडीयू के वोट शेयर में 3.22% का इजाफा हुआ है. यह इस चुनाव में उसके बढ़ी हुई सीटों में भी साफ झलक रहा है. इस बार जेडीयू को पिछली बार की तुलना में करीब दोगुनी 85 सीटें मिली हैं.

आमतौर पर चुनाव में किसी भी पार्टी के पक्ष में समर्थन का एक रुझान होता है. ऐसी स्थिति में पार्टी को हासिल वोट शेयर के एक अनुपात में सीटें भी मिलती हैं. चुनाव सर्वेक्षण एजेंसी लोकनीति-सीएसडीएस के मुताबिक वोट शेयर का सीटों में बदलना कई कारणों पर निर्भर करता है. साथ ही यह नतीजों का अनुमान लगाने का सबसे पेचीदा हिस्सा भी है. सीएसडीएस का कहना है कि अगर किसी पार्टी का वोट शेयर बढ़ता है तो यह जरूरी नहीं है कि उसकी सीटें भी बढ़ें, या किसी पार्टी का वोट शेयर घटता है तो उसकी सीटें भी घटें.

कुल मिलाकर किसी चुनाव में वोटों के सीटों में बदलने के कई अहम कारण हैं जिनमें चुनाव का बहुकोणीय होना या केवल दो गठबंधनों के आधार पर मतदाताओं का अपने मताधिकार का प्रयोग करना भी शामिल है. अगर हम बीजेपी के लोकसभा चुनावों में वोट शेयर की बात करें तो 1984 तक बीजेपी के वोट शेयर का सीटों में बदलने का अनुपात बहुत कम रहा.

1984 उसे 7.4 फीसद वोट मिले पर सीटें 0.4% रहीं. लेकिन जैसे ही उसके वोट शेयर ने 11% को पार किया उसकी सीटों में नाटकीय परिवर्तन देखने को मिला. 2014 में पीएम नरेंद्र मोदी के देश की सत्ता में आने से पहले बीजेपी का सबसे बेहतरीन प्रदर्शन 1998-99 में था. तब 24-26% वोट मिले थे और सीटें 34% थीं. बाद के वर्षों में लगातार इसमें बढ़ोतरी देखने को मिली. इसी तरह कांग्रेस को 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में करीब 20% वोट हासिल करने के बावजूद 10% से भी कम सीटें हासिल हुई थीं. यानी किसी पार्टी की हासिल की गई सीटें जमीन पर उसकी मौजूदगी समझने के लिए कोई मानक नहीं हैं.

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