अयोध्या सूफी संतों की नगरी है श्री राम जी की पावन भूमि

Update: 2020-01-27 14:04 GMT

आज एक बार फिर सबकी जुबान पर अयोध्या है, मगर इस बार धर्म की वजह से नही बल्कि शहर के एक 80 साल के बुजुर्ग के कर्म की वजह से चर्चा में है।

नाम शरीफ अहमद प्यार से जिले वाले शरीफ चाचा कहते है, तो जनमानस में इनका नाम ही शरीफ चाचा हो गया पेशे से एक साइकिल मैकेनिक हैं। लेकिन यह सिर्फ उनकी जिंदगी का आर्थिक जरिया है,न कि मकसद। अयोध्या के खिड़की अलीबेग मोहल्ले में रहने वाले शरीफ चाचा लावारिस लाशों के वारिश हैं। ऐसी लाशें जिनका कोई वारिस नहीं होता,उसे शरीफ चाचा अपना आसरा देते हैं। लाशों का उनके धर्म के अनुसार अंतिम संस्कार करते हैं और इस बात को अगर आंकड़ों की जुबानी कहें तो वे पिछले 25 वर्षों में अबतक 2500 लाशों को उसकी मानवीय गरिमा दे चुके हैं। वह मानवीय गरिमा जो इंसान होने के नाते सबका का हक है।

लेकिन शरीफ चाचा के ऐसा करने के पीछे एक बहुत ही मार्मिक कहानी भी है,जो व्यवस्था की संवेदनहीनता से उपजी है। दरअसल, शरीफ चाचा के बेटे मोहम्मद रईस जो कि किसी दवा कम्पनी में काम करते थे, किसी काम से सुल्तानपुर गये थे। जहां उनकी किसी ने हत्या कर लाश को फेंक दिया गया था। काफी खोजबीन के महीनों बाद इनको अपने बेटे की लाश मिली, यही वह मोड़ है,जहां से शरीफ चाचा ने तय किया कि वे लावारिश लाशों को उसका मानवीय हक जरूर देंगे। वे कहते हैं कि 'हर मनुष्य का खून एक जैसा होता है,मैं मनुष्यों के बीच खून के इस रिश्ते में आस्था रखता हूं। इसलिए मैं जब तक जिंदा हूं किसी भी मानव शरीर को कुत्तों के लिए या अस्पताल में सड़ने नहीं दूंगा'।

आज भारत सरकार शरीफ चाचा को पद्मश्री पुरुस्कार देने का फैसला किया है। जिसके लिए शरीफ चाचा के साथ साथ जिले का हर वो व्यक्ति बधाई का पात्र है,जो शरीफ चाचा की इस मुहिम में उनके साथ है। या हर समाजसेवी , नेता, पत्रकार जिसने शरीफ चाचा को राष्ट्रीय पहचान दिलाने में मदद की है।

धनंजय सिंह की रिपोर्ट 

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