कांग्रेस ने शीला दीक्षित को भले ही यूपी में सीएम का उम्मीदवार घोषित कर चुनावी वैतरणी पार करने का रास्ता निकाला हो, लेकिन इतिहास पर नजर डालें तो चेहरे कभी सफलता की गारंटी नहीं रहे।
चेहरों से ज्यादा सारा खेल सियासी और सामाजिक समीकरणों का रहा है। समीकरण फिट बैठे तो चेहरे हीरो बन गए। समीकरण गड़बड़ाए तो हीरो से जीरो बन गए। चर्चा तो बने, लेकिन चुनौती नहीं बन पाए। जाहिर है शीला दीक्षित हों या संजय सिंह अथवा किसी पार्टी का कोई और नेता, सिर्फ चेहरे के सहारे यूपी के चुनावी समर में सफलता मिलना तय नहीं है।
अतीत का घटनाक्रम इसकी बानगी है। भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने यूपी के पार्टी के चेहरों को थका व पिटा मानते हुए 2012 के विधानसभा चुनाव में मध्य प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती को आगे किया।
उन्हें मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित तो नहीं किया, लेकिन वे सारे संकेत दे दिए जिनसे यह संदेश चला जाए कि भाजपा सत्ता में आई तो उमा भारती ही मुख्यमंत्री होंगी। उमा यूपी वाली कही जाएं, इसके लिए न सिर्फ उनके लिए लखनऊ में आवास खरीदा गया बल्कि वे यहां से मतदाता भी बनीं।
भगवा रणनीतिकारों की कोशिश उमा के जरिए कल्याण सिंह की नाराजगी से बिगड़े सामाजिक समीकरणों को भाजपा के अनुकूल बनाना था लेकिन सरकार बनाना तो दूर, पार्टी 50 विधायकों के आंकड़े तक भी न पहुंच पाई।
समीकरण फिट तो चमके, गड़बड़ाया तो अनफिट
कभी बोफोर्स तो कभी मंडल और कभी कमंडल में उलझी सूबे की सियासत ने जितनी करवटें पिछले दो दशक में लीं, पहले कभी नहीं लीं। सिर्फ आपातकाल के बाद 1977 में हुए चुनाव या एक-दो बार कांग्रेस में हुई बगावत की घटनाओं को छोड़कर।
दो दशक पहले एक तरह से प्रदेश में कांग्रेस ही सत्ता में रहती थी, पर बोफोर्स तोप घोटाला के साये में 1989 में हुए चुनाव में यूपी में कांग्रेस को जो धक्का लगा, उससे वह अभी तक उबर नहीं पाई है।
यही वह दौर था जिसमें चेहरे चमके और फिर उनके दलों की सियासत उनके इर्द-गिर्द घूमी। चेहरों से करामात की उम्मीद भी पाली जाने लगी, पर गहराई से देखें तो इसके पीछे इन नेताओं से ज्यादा महत्वपूर्ण भूमिका इनकी पार्टियों की सोशल इंजीनियरिंग की थी। जिसके साथ उस समय के समीकरणों से ऐसा तालमेल बैठा कि ये चेहरे हीरो हो गए।
दो दशक पहले एक तरह से प्रदेश में कांग्रेस ही सत्ता में रहती थी, पर बोफोर्स तोप घोटाला के साये में 1989 में हुए चुनाव में यूपी में कांग्रेस को जो धक्का लगा, उससे वह अभी तक उबर नहीं पाई है।
यही वह दौर था जिसमें चेहरे चमके और फिर उनके दलों की सियासत उनके इर्द-गिर्द घूमी। चेहरों से करामात की उम्मीद भी पाली जाने लगी, पर गहराई से देखें तो इसके पीछे इन नेताओं से ज्यादा महत्वपूर्ण भूमिका इनकी पार्टियों की सोशल इंजीनियरिंग की थी। जिसके साथ उस समय के समीकरणों से ऐसा तालमेल बैठा कि ये चेहरे हीरो हो गए।