(डॉ प्रमोद कुमार शुक्ला, समन्वयक, राजीव गांधी स्टडी सर्किल ,गोरखपुर)
भारत के आजादी के नायक ,एवं प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु जी के पुण्यतिथि पर आयोजित एक वेब बैठक की अध्यक्षता करते हुए, डॉ प्रमोद कुमार शुक्ला, समन्वयक, राजीव गांधी स्टडी सर्किल, गोरखपुर, ने कहा भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में भागीदारी के चलते नेहरु को नौ बार जेल भेजा गया और उन्होंने अपने जीवन के 3259 दिन (लगभग 9 साल) जेल में बिताए। भारत के पहले प्रधानमंत्री होने के नाते उन्होंने समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र सरीखे मूल्यों के आधार पर स्वतंत्र आधुनिक भारत को ढालने का काम किया।
साम्यवाद से प्रेरित और समाजवादी विचारधारा के पैरोकार पंडित नेहरू ने भारत की आर्थिक नीतियों में भी अपनी छाप छोड़ी और देश-काल-परिस्थितियों को देखते हुए समाजवादी अर्थव्यवस्था की तरफ कदम बढ़ाने के लिए मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाया। नवरत्न कंपनियों की स्थापना की, और एक बड़े सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को आगे बढ़ाया। योजना आयोग की स्थापना और पंचवर्षीय योजनाओं को आधार बनाकर भारत को आर्थिक मजबूती प्रदान की। शिक्षा के क्षेत्र में आईआईटी, आईआईएम जैसे अतुलनीय संस्थाओं की स्थापना करने वाले नेहरू जी का जोर वैज्ञानिक सोच और तार्किक पर समझ रहा है। वे चाहते थे कि भारत की शिक्षा व्यवस्था यहां की सामाजिक रूढ़िवादी सोच से हटकर वैज्ञानिक दृष्टिकोण और तार्किकता पर आधारित हो।
इन मूल्यों को लेकर अपने असम्मत रवैये के चलते उन्हें कई बार न सिर्फ अपने साथी राजनीतिज्ञों बल्कि करीबी लोगों की आलोचना भी झेलनी पड़ी। फेक न्यूज और प्रोपोगंडा मशीनरी के दौर में नेहरु सरीखे व्यक्तित्वों के बारे में फैलाये गए झूठ और असलियत में फर्क करना बेहद मुश्किल हो गया है। दुर्भाग्यपूर्ण है की आधुनिक भारत के निर्माण में महत्वपूर्ण और सकारत्मक भूमिका अदा करने वाले नेहरु को देश की हर समस्या का जड़ बताया जा रहा है। शायद यह जनसामान्य तक तथ्यपरक इतिहास की सही जानकारी नहीं पहुंचने का नतीजा है कि ज्यादातर भारतवासी जवाहरलाल नेहरु के प्रति फैलाई जाने वाली भ्रांतियों को सच मानकर उन पर यकीन कर लेते हैं। जरूरी है की देश की जनता को अपने पहले प्रधानमंत्री का सीधे, उनकी किताबों और लेखों से मूल्यांकन करना चाहिए।लोकतांत्रिक समाजवाद में विश्वास रखने वाले नेहरू जी के विचार उनकी स्वलिखित तीन पुस्तकों [एन ऑटो बायोग्राफी (1936), ग्लिम्प्सेस ऑफ वर्ल्ड हिस्ट्री (1931) एवं डिस्कवरी ऑफ इंडिया (1944)] एवं अन्य लिखित दस्तावेजों से समझने को मिलते हैं। लोकतंत्र और संसदीय व्यवस्था में उनकी गहरी आस्था और विश्वास का इससे नायाब उदाहरण कोई नहीं हो सकता कि वे संसद में विपक्षी सांसदों के साथ-साथ अपनी ही पार्टी के सांसदों-मंत्रियों को अपनी और अपनी सरकार की आलोचना करने के लिए प्रेरित करते थे। उन्हें भली-भांति पता था कि लोकतंत्र में मजबूत विपक्ष का होना कितना जरूरी है और वे यह भी जानते थे कि भारत अभी-अभी एक नए आजाद और संप्रभु गणराज्य के रूप में अस्तित्व में आया है इसलिए यहां एक मजबूत विपक्ष का अभाव है। भारत की जनता का कांग्रेस पार्टी और उसके 'करिश्माई' नेताओं में अटूट विश्वास है, जो आगे चलकर भारत और उसके नए लोकतांत्रिक ढांचे के लिए खतरा बन सकता है| इसी दूरदर्शी और अधिनायकवाद-विरोधी सोच के चलते नेहरू जी ने एक मजबूत विपक्ष खड़ा करने की ठानी। उन्होंने भारत में मीडिया की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के भरसक प्रयास किए। वे चाहते थे कि विपक्षी पार्टियों के लोग ही नहीं बल्कि उनकी अपनी पार्टी के भीतर से भी लोग उनकी वाजिब आलोचना करने से ना कतराएं। यही नहीं उनकी हमेशा कोशिश रही की संविधान की रचना करने वाली संविधान सभा में सभी विचारधाराओं को जगह मिले, इसीलिए अनेक वैचारिक असहमतियो के बावजूद भी वे चाहते थे कि भीमराव अंबेडकर भी संविधान सभा में रहें और श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी। उनके व्यक्तित्व में आलोचनाओं का महत्व इस हद तक शुमार था कि वे अपने सबसे प्रिय 'बापू' की आलोचना करने और अपनी आलोचना को स्वीकार करने में जरा भी नहीं कतराते थे। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर और नेहरूवादी विचारक सुनील खिलनानी ने 2002 में इकनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में प्रकाशित अपने लेख "नेहरुज़ फेथ" में नेहरु के व्यक्तित्व के इसी पहलू पर प्रकाश डालते हुए लिखते हैं कि 1937 में नेहरु ने अपने छद्म नाम 'चाणक्य' से मॉडर्न रिव्यू में स्वयं की आलोचना करते हुए एक लेख लिखा। इस लेख में चाणक्य (नेहरु) लिखते हैं कि "जवाहरलाल में तानाशाह बनाने के सरे लक्षण मौजूद हैं। उनमें दूसरों के प्रति असहिष्णुता है और कमजोर और अकुशल लोगों के प्रति वे निन्दात्मक दृष्टि रखते हैं।" यह वह दौर था जब सबसे करीबी लोग ही एक दूसरे के सबसे बड़े आलोचक हुआ करते थे। गांधी नेहरू के और नेहरू गांधी के, पटेल नेहरू के और नेहरू पटेल के, टैगोर गांधी के और गांधी टैगोर के, यही उनके आपसी संबंधों की खूबसूरती भी थी। नेहरू जी ने कभी अपनी आलोचनाओं को ना तो अपने स्वाभिमान पर चोट की तरह लिया और ना ही कभी अपने ऊपर हावी होने दिया। वे सीखते चले गए और शायद इसीलिए उनकी सोच-समझ, उनके विचार समय के साथ और बेहतर होते गए और उनका व्यक्तित्व समय के साथ और निखरता गया।इतनी तेजी और स्थिरता के साथ उभरते हुए भारत में उनकी भूमिका को देखते हुए उन्हें दुनिया भर में 'स्टेट्समैन" कहा जाने लगा।