दीनदयाल उपाध्याय भारतीय जनसंघ के नेता और भारतीय राजनीतिक एवं आर्थिक चिंतन को वैचारिक दिशा देने वाले पुरोधा थे। यह अलग बात है कि उनके बताए सिद्धांतों और नीतियों की चर्चा साम्यवाद और समाजवाद की तुलना में बेहद कम हुई है। वे उस परंपरा के वाहक थे जो नेहरु के भारत नवनिर्माण की बजाय भारत के पुनर्निर्माण की बात करती है। भारत में ज्ञान के प्रसार-प्रचार एवं संचार की प्रणाली के रूप में कथा और उपदेश पद्धति को पुरातनकाल से स्वीकार्यता प्राप्त है। भगवद् गीता में श्रीकृष्ण ने गीता का ज्ञान उपदेश की पद्धति से दिया तो भगवान बुद्ध ने भी ज्ञान के प्रसार का माध्यम उपदेश को ही बनाया।
आज के दौर में जब संचार के विविध माध्यम उपलब्ध हैं और बात को आम लोगों तक पहुंचाने के विविध तरीके भी खोज लिए गए हैं, बावजूद इसके भारत के आमजन के मानस पटल पर 'उपदेश अथवा कथा' पद्धति के प्रति जो विश्वास का भाव है, वो अन्य किसी भी पद्धति के प्रति नहीं है। इस लिहाज से अगर देखें तो दीनदयाल शोध संस्थान द्वारा की जा रही यह शुरुआत पूर्णतया भारतीय भावना के अनुरूप है। 16-18 दिसंबर तक भोपाल में चलने वाले इस आयोजन में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान सहित तमाम और दिग्गज यजमान की भूमिका में होंगे और पेशे से अधिवक्ता एवं संघ के प्रचारक अलोक कुमार कथावाचक की भूमिका में होंगे। इस कथा कार्यक्रम के माध्यम से क्या बताया जाएगा यह तो दो दिवसीय कार्यक्रम में ही पूरी तरह से पता चल जाएगा, लेकिन यह भी गलत नहीं है कि दीनदयाल उपाध्याय के समग्र व्यक्तित्व एवं उनके चिंतन दृष्टि की व्यापकता को दो दिन में समेट पाना आसान नहीं है। उनके विचारों, लेखों, चिंतनशीलता पर वर्षों शोध एवं चर्चा की जा सकती है।
एकात्म मानववाद के रूप में पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी ने भारत की तत्कालीन राजनीति और समाज को उस दिशा में मुड़ने की सलाह दी है, जो सौ फीसदी भारतीय है। एकात्म मानववाद के इस वैचारिक दर्शन का प्रतिपादन पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने मुंबई में 22 से 25 अप्रैल, 1965 में चार अध्यायों में दिए गए भाषण में किया। इस भाषण में उन्होंने एक मानव के संपूर्ण सृष्टि से संबंध पर व्यापक दृष्टिकोण रखने का काम किया था। वे मानव को विभाजित करके देखने के पक्षधर नहीं थे। वे मानवमात्र का हर उस दृष्टि से मूल्यांकन करने की बात करते हैं, जो उसके संपूर्ण जीवनकाल में छोटी अथवा बड़ी जरूरत के रूप में संबंध रखता है। दुनिया के इतिहास में सिर्फ 'मानव-मात्र' के लिए अगर किसी एक विचार दर्शन ने समग्रता में चिंतन प्रस्तुत किया है तो वो एकात्म मानववाद का दर्शन है।
दीनदयाल जी समाजवाद और साम्यवाद को कागजी और अव्यावहारिक सिद्धांत के रूप में देखते थे। उनका स्पष्ट मानना था कि भारतीय परिप्रेक्ष्य में ये विचार न तो भारतीयता के अनुरूप हैं और न ही व्यावहारिक ही हैं। भारत को चलाने के लिए भारतीय दर्शन ही कारगर वैचारिक उपकरण हो सकता है। चाहे राजनीति का प्रश्न हो, चाहे अर्थव्यवस्था का प्रश्न हो अथवा समाज की विविध जरूरतों का प्रश्न हो, उन्होंने मानवमात्र से जुड़े लगभग प्रत्येक प्रश्न की समाधानयुक्त विवेचना अपने वैचारिक लेखों में की है। भारतीय अर्थनीति कैसी हो, इसका स्वरूप क्या हो, इन सारे विषयों को पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने 'भारतीय अर्थनीति विकास की दिशा' में रखा है।
शासन का उद्देश्य अन्त्योदय की परिकल्पना के अनुरूप होना चाहिए, इसको लेकर भी उनका रुख स्पष्ट है। समाजवादी नीतियों से प्रेरित तत्कालीन सरकारों ने व्यापार जैसे काम को भी अपने हाथ में ले लिया जो कि राज्य के लिए बेहद घातक साबित हो रहा है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय इसके खिलाफ थे। उनका स्पष्ट मानना था कि शासन को व्यापार नहीं करना चाहिए और व्यापारी के हाथ में शासन नहीं आना चाहिए। साठ के दशक में जो चिंताएं उन्होंने अपने लेखों के माध्यम से प्रस्तुत की थीं, वो चार दशक के बहुधा समाजवादी नीतियों वाले शासन प्रणाली में समस्या की शक्ल में दिखने लगी हैं। वे उस दौरान लायसेंस राज में भ्रष्टाचार की चिंता से शासन को अवगत कराते रहे। आज हमारी व्यवस्था किस कदर भ्रष्टाचार की चपेट में है, यह सभी को पता है।
दीनदयाल उपाध्याय के बचपन की कहानी
कहते हैं कि जो व्यक्ति प्रतिभाशाली होता है उसने बचपन से प्रतिभा का अर्थ समझा होता है और उनके बचपन के कुछ किस्से ऐसे होते हैं जो उन्हें प्रतिभाशाली बना देते हैं. उनमें से एक हैं दीनदयाल उपाध्याय जिन्होंने अपने बचपन से ही जिन्दगी के महत्व को समझा और अपनी जिन्दगी में समय बर्बाद करने की अपेक्षा समाज के लिए नेक कार्य करने में समय व्यतीत किया.
पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितंबर, 1916 को ब्रज के मथुरा ज़िले के छोटे से गांव जिसका नाम "नगला चंद्रभान" था, में हुआ था. पं. दीनदयाल उपाध्याय (Pandit Deendayal Upadhyaya) का बचपन घनी परेशानियों के बीच बीता. दीनदयाल के पिता का नाम 'भगवती प्रसाद उपाध्याय' था. इनकी माता का नाम 'रामप्यारी' था जो धार्मिक प्रवृत्ति की थीं. दीनदयाल जी के पिता रेलवे में काम करते थे लेकिन जब बालक दीनदयाल सिर्फ तीन साल के थे तो उनके पिता का देहांत हो गया और फिर बाद में 7 वर्ष की कोमल अवस्था में दीनदयाल माता-पिता के प्यार से वंचित हो गए.
दीनदयाल उपाध्याय का संघर्ष
दीनदयाल उपाध्याय जी (Pandit Deendayal Upadhyaya) ने माता-पिता की मृत्यु के बाद भी अपनी जिन्दगी से मुंह नहीं फेरा और हंसते हुए अपनी जिन्दगी में संघर्ष करते रहे. दीनदयाल उपाध्याय जी को पढ़ाई का शौक बचपन से ही था इसलिए उन्होंने तमाम बातों की चिंता किए बिना अपनी पढ़ाई पूरी की. सन 1937 में इण्टरमीडिएट की परीक्षा दी. इस परीक्षा में भी दीनदयाल जी ने सर्वाधिक अंक प्राप्त कर एक कीर्तिमान स्थापित किया.
एस.डी. कॉलेज, कानपुर से उन्होंने बी.ए. की पढ़ाई पूरी की और यहीं उनकी मुलाकात श्री सुन्दरसिंह भण्डारी, बलवंत महासिंघे जैसे कई लोगों से हुई जिनसे मिलने के बाद उनमें राष्ट्र की सेवा करने का ख्याल आया. सन 1939 में प्रथम श्रेणी में बी.ए. की परीक्षा पास की लेकिन कुछ कारणों से वह एम.ए. की पढ़ाई पूरी नहीं कर पाए.
हालांकि पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने नौकरी न करने का निश्चय किया और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के लिए काम करना शुरू कर दिया. संघ के लिए काम करते-करते वह खुद इसका एक हिस्सा बन गए और राष्ट्रीय एकता के मिशन पर निकल चले.
वे विकेन्द्रित व्यवस्था के पक्षधर थे। वे तमाम सामाजिक क्षेत्रों के राष्ट्रीयकरण के खिलाफ थे, जिनका राष्ट्रीयकरण तत्कालीन कांग्रेस सरकारों द्वारा धड़ल्ले से किया जा रहा था। वे जानते थे कि यह देश मेहनतकश लोगों का है, जो अपनी बुनियादी जरूरतों के लिए राज्य पर आश्रित कभी नहीं रहे हैं। लेकिन समाजवादी नीतियों से प्रभावित कांग्रेस की सरकारों ने सत्ता की शक्ति का दायरा बढ़ाने की होड़ में समाज की ताकत को राष्ट्रीयकरण के बूते अपने शिकंजे में ले लिया। शिक्षा जैसी बात, जिसके सरकारीकरण का दीनदयाल जी ने विरोध किया है, उसका भी पूर्णतया सरकारीकरण कर दिया गया। आज सरकारी स्कूलों की हलात क्या है, ये किसी से छिपा नहीं है। शिक्षा देने का काम सरकार के हाथों में जाना बंदर के हाथ में उस्तरा देने जैसा साबित हुआ है। यह काम समाज पर छोड़ा जा सकता था, लेकिन समाजवादी नीतियों के अंध उत्साह ने उनकी एक न सुनी।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय उन्हीं क्षेत्रों में सरकार को उतरने के लिए बोल रहे थे जिन क्षेत्रों में समाज अथवा निजी क्षेत्र जोखिम नहीं लेते। लेकिन तत्कालीन सरकारों द्वारा इसके प्रतिकूल काम किया गया। आज पचास साल बाद हमारी व्यवस्था समाजवादी नीतियों के चक्रव्यूह में ऐसे उलझ चुकी है कि उसमें से इसे निकालना अथवा निकालने की सोचना भी बेहद कठिन नजर आता है। सरकार आश्रित प्रजा तैयार करने की समाजवादी नीति ने इन सत्तर वर्षों में हमें इतना पंगु बना दिया है कि हम स्वच्छता के लिए भी प्रधानमंत्री पर आश्रित हैं! प्रधानमंत्री मोदी जब स्वच्छता की बात करते हैं तो दरअसल वो इस देश की सात दशक में तैयार समाजवादी नीतियों की व्यवस्था पर एक प्रश्न खड़ा करते हैं। अब क्या हम स्वच्छता के लिए भी सरकार पर निर्भर रहेंगे?
ऐसे में समाजवाद और साम्यवाद जैसी नीतियां भारत के लिए अव्यावहारिक हैं, यह बात पंडित दीनदयाल जी पचास साल पहले बता गए थे, जो आज सच साबित हो रही हैं। हम राज्य और सरकार के प्रति दिन-प्रतिदिन इतने आश्रित होते जा रहे हैं कि कल को अपने मुंह निवाला डालने के लिए भी हम सरकार से अपेक्षा करेंगे। समाजिक पंगुता के इस खतरे से बचने के लिए हमें दीनदयाल उपाध्याय के चिंतन पर ही लौटना होगा। मानव के कल्याण का वही रास्ता शेष है।