वर्तमान समय में सेवानिवृत्ति के पश्चात सेवा विस्तार का चलन धीरे-धीरे सामान्य होता जा रहा है। सरकारें एवं संगठन यह तर्क देते हैं कि किसी अनुभवी अधिकारी अथवा विशेषज्ञ की सेवाओं का लाभ अतिरिक्त अवधि तक प्राप्त करने से प्रशासनिक कार्यकुशलता में वृद्धि होती है तथा महत्वपूर्ण परियोजनाओं में निरंतरता बनी रहती है। निस्संदेह, कुछ परिस्थितियों में यह तर्क उचित भी प्रतीत होता है। किन्तु इस व्यवस्था के कुछ दुष्परिणाम भी हैं, जिनकी अनदेखी न्याय और समान अवसर के सिद्धांत के विपरीत है।
सेवा विस्तार दिए जाने की स्थिति में वरिष्ठता पंक्ति में अगली कतार में खड़े अधिकारी प्रभावित होते हैं। जिन अधिकारियों ने वर्षों तक अपनी निष्ठा और परिश्रम से सरकारी सेवा की है, उन्हें स्वाभाविक पदोन्नति अथवा उच्च पद पर कार्य करने का अवसर नहीं मिल पाता। यह उनके लिए केवल निराशा ही नहीं, बल्कि किसी हद तक उत्पीड़न का कारण भी बन सकता है। यह स्थिति उनके मनोबल को तोड़ती है और शासन-प्रशासन की कार्यसंस्कृति को भी प्रतिकूल रूप से प्रभावित करती है।
विचारणीय तथ्य यह है कि सेवा विस्तार की प्रक्रिया यदि वास्तव में आवश्यकता-आधारित है, तो इसे पारदर्शी और न्यायपूर्ण होना चाहिए। यदि किसी विशेष पद पर अधिकारी को विस्तार दिया जाता है, तो उसी पद के लिए कतार में खड़े अन्य अधिकारियों पर भी समान रूप से विचार किया जाना चाहिए। अन्यथा यह व्यवस्था केवल चुनिंदा व्यक्तियों के लिए “पुरस्कार” और शेष के लिए “तिरस्कार” का प्रतीक बन जाएगी।
यह सर्वमान्य सत्य है कि किसी भी प्रक्रिया का उद्देश्य व्यक्ति विशेष को लाभ पहुँचाना नहीं, बल्कि संस्थागत कार्यकुशलता और संगठनात्मक न्याय सुनिश्चित करना होना चाहिए। यदि किसी नीति या प्रक्रिया से योग्य अधिकारियों को अपनी योग्यता और वरिष्ठता के बावजूद अवसर न मिले, तो निस्संदेह उस नीति में सुधार की आवश्यकता है।
अतः सेवा विस्तार की वर्तमान व्यवस्था पर गहन पुनर्विचार की आवश्यकता है। यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि यह नीतिगत अपवाद हो, न कि सामान्य प्रवृत्ति। साथ ही, प्रभावित होने वाले अधिकारियों के अधिकार और आत्मसम्मान की रक्षा के लिए स्पष्ट दिशा-निर्देश बनाए जाएँ। तभी सेवा विस्तार की प्रक्रिया न्यायपूर्ण एवं संतुलित रूप में समाज और शासन के लिए लाभकारी सिद्ध हो सकेगी।