(आलेख : राजेंद्र शर्मा)
बेशक, यह कहना तो शायद बहुत जल्दबाजी होगी कि बिहार में विशेष सघन पुनरीक्षण या एसआइआर की घोषणा के बाद से विपक्षी पार्टियों ही नहीं, बल्कि सामाजिक व जनतांत्रिक अधिकार संगठनों द्वारा भी ''वोट की चोरी'' के जरिए चुनाव में हेरा-फेरी की जो आशंकाएं जतायी जा रही थीं और जनता के बीच जाकर जतायी जा रही थीं, उनका अंतत: निराकरण हो गया है। फिर भी एसआइआर के ही मामले में सुप्रीम कोर्ट के 8 सितंबर के आदेश के बाद, इतना तो निश्चियपूर्वक कहा ही जा सकता है कि इन आशंकाओं के दरवाजे एक हद तक बंद कर दिए गए हैं। यह हुआ है सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के जरिए कि एसआइआर की प्रक्रिया पहचान के लिए प्रमाण के रूप में भारतीय चुनाव आयोग द्वारा जिन 11 दस्तावेजों को अधिसूचित किया गया है, आधार कार्ड / नंबर को उनके समकक्ष, 12वां दस्तावेज माना जाएगा।
सभी जानते हैं कि बिहार में विवादास्पद एसआइआर प्रक्रिया की शुरूआत का एलान करते हुए, चुनाव आयोग ने यह निर्धारित किया था कि मतदाता सूचियों के पुनरीक्षण के अब तक के सभी उदाहरणों के विपरीत, मताधिकार के सभी दावेदारों को नामांकन फॉर्म भरना होगा और जिनका समुचित नामांकन फार्म निर्धारित तिथि तक अधिकारियों को प्राप्त नहीं होगा, वे खुद-ब-खुद मताधिकार की दावेदारी से बाहर हो जाएंगे। पुन: जिन मतदाताओं का नाम 2003 की मतदाता सूचियों में नहीं था, उन्हें नामांकन फार्म के साथ अपनी पहचान के प्रमाण के रूप में उक्त 11 साक्ष्यों में से कोई एक पेश करना था। इन साक्ष्यों से आधार, स्वयं चुनाव आयोग द्वारा जारी किए गए मतदाता पहचान कार्ड और राशन कार्ड जैसे व्यक्ति की पहचान को प्रमाणित करने वाले ठीक उन्हीं साक्ष्यों को बाहर रखा गया था, जो सबसे ज्यादा लोगों के पास उपलब्ध हैं और सबसे ज्यादा उपयोग में आते हैं।
हैरानी की बात नहीं है कि विशेष सघन पुनरीक्षण के लिए तय की गयी इस प्रक्रिया विशेष और खासतौर पर उसके लिए सभी मतदाताओं से नये सिरे से फार्म भरवाए जाने और 2003 की मतदाता सूचियों में जिन लोगों का नाम नहीं था, उन सबसे उनकी स्थानीयता को दर्शाने वाले साक्ष्य मांगे जाने और सचेत रूप से आधार समेत सबसे आम-फहम दस्तावेजों के साक्ष्यों की इस सूची से बाहर रखे जाने से, व्यापक रूप से इस कसरत के मकसद को लेकर आशंकाएं पैदा हुई थीं। कहीं यह मतदाता सूचियों के पुनरीक्षण के नाम पर, चोर दरवाजे से राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर या एनआरसी लाने की यानी मतदाता सूची में स्थान दिए जाने को, नागरिकता की जांच के साथ जोड़ने की कोशिश तो नहीं थी? हमारे संविधान में नागरिकता का विषय, आम तौर पर चुनाव आयोग के विचार क्षेत्र में नहीं आता है। इसलिए, मतदाता सूची तैयार करने की प्रक्रिया को, नागरिकता जांच के साथ जोड़ना कतई असंवैधानिक है। वास्तव में, बिहार में एसआइआर प्रक्रिया को सर्वोच्च अदालत में दी गयी अनेक चुनौतियों में एक महत्वपूर्ण मुद्दा, इस प्रक्रिया की संवैधानिकता का है, जिस पर अदालत को अभी विचार करना ही है।
बहरहाल, एसआइआर प्रक्रिया को लेकर विचार की प्रक्रिया में, शुरूआत से ही सर्वोच्च न्यायालय का यह स्पष्ट रुख था कि पहचान के लिए स्वीकार्य दस्तावेजों में चुनाव आयोग को आधार जैसे दस्तावेजों को शामिल करना चाहिए, जिससे इस प्रक्रिया में लोगों को ज्यादा परेशान नहीं होना पड़े। दुर्भाग्य से चुनाव आयोग भी शुरूआत से आधार आदि दस्तावेजों को स्वीकार नहीं करने पर अड़ा हुआ था। इन हालात में, जब अदालत आदेश के बजाए, सुझाव की विनम्र भाषा का प्रयोग करते हुए, चुनाव आयोग से आधार आदि को शामिल करने की सलाह पर रुक गयी, चुनाव आयोग ने इस सलाह को जैसे अनसुना ही कर दिया। दूसरी ओर, चूंकि अदालत इस संबंध में एकदम स्पष्ट थी कि आधार जैसे दस्तावेजों को अस्वीकार करने की चुनाव आयोग की जिद के पीछे कोई वास्तविक तर्क था ही नहीं, उसने इस प्रकरण की अलग-अलग सुनवाइयों में, कम से कम तीन बार, तरह-तरह से अपने इस मंतव्य को दोहराया कि चुनाव आयोग इन दस्तावेजों को स्वीकार करे। यहां तक कि एसआइआर की प्रक्रिया में पूरे 65 लाख लोगों के नाम बिल्कुल अपारदर्शी तरीके से काटे जाने के पहलू पर अपने फैसले में भी अदालत ने, जिन लोगों के नाम इस तरह काटे गए थे, उनकी अर्जियों पर पुनरीक्षण की प्रक्रिया के हिस्से के तौर पर विचार किये जाने का आदेश देते हुए, दस्तावेज के रूप में आधार के स्वीकार किए जाने के स्पष्ट आदेश भी दिये थे।
लेकिन, चुनाव आयोग ने इसके बाद भी अपनी जिद नहीं छोड़ी। उसने तिकड़मबाजी से सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को विफल करने की कोशिशें जारी रखीं। अदालत के उक्त निर्णय की पृष्ठभूमि में, जब चुनाव आयोग की मशीनरी में शामिल कुछ अधिकारियों ने आधार को प्रमाण के रूप में स्वीकार करने की कोशिश की, चुनाव आयोग ने न सिर्फ इसे गलत बताया, बल्कि संबंधित अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई भी की। और जिन मतदाताओं ने आधार का साक्ष्य के रूप में उपयोग करते हुए, मतदाता सूची में अपना नाम शामिल किए जाने की मांग की, उनके द्वारा पेश किए गए साक्ष्य को नामंजूर ही कर दिया गया। हैरानी की बात नहीं है कि 8 सितंबर की ताजातरीन सुनवाई में अदालत में इन मामलों को उठाया गया और एसआइआर की प्रक्रिया को चुनौती देने वाली पार्टियों के वकीलों ने इसे सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना बताते हुए, अदालत से बलपूर्वक आग्रह किया कि आधार के संबंध में अपने मंतव्य का पालन सुनिश्चित करे। ठीक इसी पृष्ठभूमि में सुप्रीम कोर्ट को इस बार अपना स्वर बदलना पड़ा और आधार के संबंध में अपने मंतव्य के लिए, पहले की तरह सुझाव की भाषा का प्रयोग छोड़कर, आदेश की भाषा का प्रयोग करना पड़ा।
जाहिर है कि इसके बाद चुनाव आयोग के पास आधार को अन्य ग्यारह प्रमाणों की तरह, बारहवां प्रमाण मानने से बचने की कोई गुंजाइश नहीं रह गयी है। यानी बिहार के 90-95 फीसदी मतदाता, आधार के सहारे अपनी पहचान तथा पते को प्रमाणित करने की शर्त काफी आसानी से पूरी कर सकते हैं। यह, एसआइआर प्रक्रिया के माध्यम से, मतदाताओं की एक अच्छी-खासी संख्या को मताधिकार से ही वंचित किए जाने की संभावनाओं के दरवाजे, बहुत हद तक बंद कर देता है। याद रहे कि एसआइआर प्रक्रिया के जरिए, मतदाता सूचियों की सत्तानुकूल छंटाई का यह खतरा बहुत ही वास्तविक है। यह संयोग ही नहीं है कि बिहार में, जहां से इस एसआइआर प्रक्रिया की शुरूआत हुई है, एक ओर अगर समूचा विपक्ष इस प्रक्रिया पर, उसके तहत बड़ी संख्या में मतदाताओं के नाम काटे जाने, इस प्रक्रिया के हिस्से के तौर पर जल्दबाजी में तैयार की गयी कच्ची या ड्राफ्ट मतदाता सूचियों में गड़बड़ियों तथा त्रुटियों की भरमार पर लागातार सवाल उठा रहा है और इन सवालों को जनता के बीच भी लेकर जा रहा है, तो दूसरी ओर सत्ताधारी गठजोड़ न सिर्फ इन गड़बड़ियों, त्रुटियों तथा बड़ी संख्या में नाम काटे जाने पर चुप्पी साधे हुए है, बल्कि विशेष रूप से भाजपा तो जोर-शोर से, और आलोचकों पर हमला कर, चुनाव आयोग की तमाम करनियों-अकरनियों का बचाव करने में ही लगी हुई है।
यहां तक कि आरएसएस भी खुलकर विवादास्पद एसआइआर के बचाव में उतर आया है। हाल ही में जोधपुर में संपन्न आरएसएस से संबद्घ संगठनों की तीन दिनी सालाना बैठक के बाद, उसके प्रवक्ता सुनील आंबेकर ने कहा कि, 'कार्यकुशल चुनावी प्रक्रियाएं जनतंत्र की रीढ़ होती हैं और एसआइआर जैसी पहलें इस आधार को मजबूत करने में मदद करती हैं।' सचाई यह है कि बढ़ती ''बाहरी'' घुसपैठ की जिस तरह की निराधार आशंकाओं तथा डैमोग्राफी में बदलाव की चिंताओं को, मोहन भागवत के पिछले ही दिनों के तीन दिवसीय महत्वाकांक्षी व्याख्यान में स्वर दिया गया था और उससे पहले प्रधानमंत्री मोदी द्वारा अपने स्वतंत्रता दिवस के संबोधन में उछाला गया था, उन्हें ही और पहले से स्वर देते हुए, एसआइआर प्रक्रिया के अंतर्गत बड़़ी संख्या में मतदाताओं के नाम काटे जाने को, रोहिंगिया, बंगलादेशी घुसपैठियों आदि की मौजूदगी का संकेतक बताने की कोशिश की जा रही थी। यह सब चुनाव आयोग के नाम पर, कथित सूत्रों के हवाले से किया जा रहा था। यह दूसरी बात है कि सूत्रों और इशारों में धारणाएं बनाने का यह खेल शुरू करने के बाद, नाम काटे जाने के औपचारिक कारण के स्तर पर, चुनाव आयोग ऐसे दावों से पीछे ही हट गया।
नरेंद्र मोदी के निजाम में वैसे तो तमाम संवैधानिक निकायों, संस्थाओं तथा एजेंसियों को घसीटकर, उनकी मान्य भूमिकाओं से काफी दूर पहुंचा दिया गया है। पर चुनाव आयोग, संविधान में सौंपी गयी अपनी भूमिका से जितनी दूर चला गया है, वह हैरान कर देने वाला है। जो चुनाव आयोग बड़ी संख्या में हाशियावर्ती मतदाताओं की छंटाई के अपने आग्रह को पूरा करने के लिए, आधार को पहचान का साक्ष्य मानने से इंकार करने पर आखिर-आखिर तक बजिद था, उसी चुनाव आयोग के बंगलूरु सेंट्रल के महादेवपुरा विधानसभाई क्षेत्र में एक लाख से ज्यादा वोटों की हेराफेरी के आरोपों पर मुंह सिलकर बैठ जाने के बाद, अब उसी कर्नाटक में अलंद विधानसभाई क्षेत्र में, 2023 के विधानसभाई चुनाव से पहले लगभग 6 हजार मतदाताओं के नाम फर्जीवाड़े के जरिए कटवाए जाने के दोषियों की सीआइडी जांच, चुनाव आयोग द्वारा पुलिस द्वारा मांगा गया डॉटा न देने के जरिए, दो साल से रोक कर रखे जाने का मामला सामने आया है। क्या यही चुनाव आयोग का काम है?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका 'लोकलहर' के संपादक हैं।)