(आलेख : सवेरा, अनुवाद : संजय पराते)
जैसे-जैसे 79वाँ स्वतंत्रता दिवस नज़दीक आ रहा है, भारत एक दोराहे पर आकर खड़ा हो गया है। हमारा संविधान स्वतंत्रता संग्राम की विरासत को संजोए हुए हैं।लेकिन एक तरफ़ ऐसी शक्तिशाली ताकतें हैं, जो हमारे संविधान को तहस-नहस करने पर तुली हैं। ये हैं आरएसएस, उसकी राजनीतिक शाखा भाजपा और कई अन्य आनुषांगिक संगठन, जिन्हें सामूहिक रूप से संघ परिवार कहा जाता है। पिछले 11 वर्षों से केंद्र सरकार और कई राज्य सरकारों पर नियंत्रण रखते हुए, ये ताकतें संविधान के तीन स्तंभों -- धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र और संघवाद -- को कमज़ोर करने और उसकी जगह समाज के एक अंधकारमय, मध्ययुगीन दृष्टिकोण पर आधारित एक फ़ासीवादी हिंदू राष्ट्र स्थापित करने के लिए जी-जान से जुटी हैं। सरकार में होने से मिली ताकत का इस्तेमाल भाजपा/आरएसएस ने उन कानूनों और नीतियों में बड़े पैमाने पर बदलाव करने के लिए किया है, जिनका मक़सद हिंदू वर्चस्ववादी ढाँचे का निर्माण करना, धार्मिक अल्पसंख्यकों को हाशिए पर डालना, क्रूर जाति व्यवस्था को मज़बूत करना और लोकतंत्र का दमन करना है। सरकार के बाहर, विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल आदि जैसे संघ परिवार के संगठनों ने इस एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए खुली हिंसा और धमकी का सहारा लिया है।
लेकिन दूसरी ओर, इसके विरोध में एक लहर सी उठ रही है। इस प्रतिरोध की सबसे बड़ी अभिव्यक्ति हाल ही में 9 जुलाई की आम हड़ताल में देखी गई, जिसका आह्वान ट्रेड यूनियनों और किसान संगठनों ने किया था और जिसे दर्जनों अन्य जन संगठनों और आंदोलनों का समर्थन प्राप्त था। यह हड़ताल न केवल विभिन्न आर्थिक और लोकतांत्रिक मांगों के लिए थी, बल्कि धार्मिक कट्टरता, जातिगत उत्पीड़न और अन्य प्रतिगामी विचारधाराओं द्वारा भड़काए गए विभाजन के खिलाफ भारत की जनता की एकता का भी प्रतीक थी। इससे पहले, 2024 के आम चुनावों के दौरान भी, यह लड़ाई भाजपा के 400 से ज़्यादा लोकसभा सीटें जीतने के अभियान ('अबकी बार चार सौ पार') के विरोध की लहर में परिलक्षित हुई थी, जिसे संविधान परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त करने के रूप में सही रूप से देखा गया था। इसके साथ ही, अपनी विनाशकारी आर्थिक नीतियों के खिलाफ पैदा हुए आक्रोश के कारण भाजपा ने लोकसभा में अपना बहुमत खो दिया और उसे अपना शासन जारी रखने के लिए विभिन्न अवसरवादी दलों पर निर्भर होना पड़ा है। इन नीतियों ने लाखों लोगों को कम वेतन पर कठिन परिश्रम और बेरोजगारी के लिए मजबूर किया है, ताकि भारत का एक अति-धनी वर्ग और भी अमीर बन सके।
इस प्रकार, यह लड़ाई शुरू हो गई है। लेकिन आम जनता के एक बड़े तबके में व्याप्त नफ़रत, उन्मादपूर्ण अंधत्व और अंधराष्ट्रवाद के ज़हर को मिटाने के लिए इस संघर्ष को अभी एक लंबा और कठिन रास्ता तय करना है। इस क्षरण की गहराई को पहचानना और इससे बेहतर ढंग से लड़ना ज़रूरी है।
मोदी सरकार द्वारा धर्मनिरपेक्षता का परित्याग
हालांकि इसमें कोई संदेह नहीं था कि एक आरएसएस प्रचारक के नेतृत्व वाली सरकार कभी भी धर्मनिरपेक्षता का समर्थन नहीं करेगी, फिर भी मोदी सरकार और उनकी पार्टी की राज्य सरकारों ने धर्मनिरपेक्षता के कमजोर संस्करण -- सभी धर्मों के प्रति सहिष्णुता और समानता -- प्रदर्शित करने का ढोंग भी त्याग दिया है। विधायी और नीतिगत उपायों की एक श्रृंखला के माध्यम से, इसने व्यवस्थित रूप से मुस्लिम समुदाय को हाशिए पर धकेला और दबाया है और देश पर एक हिंदू वर्चस्ववादी राजनीति थोपने की कोशिश की है।
भाजपा तीन तलाक या वक्फ संपत्तियों जैसे कुछ मुद्दों पर मुसलमानों के "हितों" को आगे बढ़ाने की बात करने का दिखावा तो करती है, लेकिन असल में ये मुस्लिम समुदाय से जुड़े कानूनों को कमज़ोर करने की सोची-समझी योजनाएँ ही हैं। यह सबके लिए एक ही कानून -- हिंदू कानून -- रखने के व्यापक दृष्टिकोण का हिस्सा है।
शिक्षा का भगवाकरण: मोदी सरकार द्वारा लाई गई राष्ट्रीय शिक्षा नीति उन्हीं मूल्यों और राष्ट्रवाद की बातों से ओतप्रोत है, जिसमें घिसे-पिटे हिंदुत्ववादी विचारों की बू आती है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि अपनी सरकार के माध्यम से भाजपा, स्कूल और विश्वविद्यालय के छात्रों को पढ़ाए जाने वाले इतिहास का व्यापक पुनर्लेखन सुनिश्चित कर रही है। स्कूली पाठ्य पुस्तकों से मुगल काल के अध्ययन को या तो हटा दिया है या सीमित कर दिया है और उसे आरएसएस के इस काल्पनिक दृष्टिकोण के अनुरूप ढाल दिया गया है कि वह पूरा काल हिंदू गुलामी के अलावा कुछ नहीं था। इतिहास का पुनर्लेखन आरएसएस का एक प्रमुख कार्य रहा है और मोदी के सत्ता में आने के बाद, वह इसे बदले की भावना से कर रहा है। शिक्षा के सभी स्तरों पर विभिन्न शैक्षणिक पदों पर नियुक्तियाँ इस तरह से की जा रही हैं कि संघ परिवार के समर्थक इसमें नियुक्त हो सकें। यह भाजपा सरकार द्वारा संस्थानों पर दीर्घकालिक कब्ज़ा है, जिसका उद्देश्य न केवल अपने समर्थकों को खुश करना है, बल्कि यह सुनिश्चित करना भी है कि उनकी विचारधारा का हर स्तर पर, हर कक्षा में प्रचार हो।
मताधिकार से वंचित करना : मोदी सरकार ने 2019 में नागरिकता (संशोधन) अधिनियम (सीएए) पारित किया है, जिससे पड़ोसी देशों से गैर-मुस्लिम प्रवासियों को फास्ट ट्रैक नागरिकता की अनुमति मिली है। इसे राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) बनाने के साथ जोड़ने की कोशिश की गई, जिससे मुसलमानों की नागरिकता चली जाती और वे मताधिकार से वंचित हो जाते। इसके खिलाफ जनाक्रोश के कारण सरकार को एनआरसी से पीछे हटना पड़ा। हाल ही में, चुनाव आयोग ने बिहार में मतदाता सूची का एक विशेष गहन पुनरीक्षण अभियान शुरू किया है, जिसमें आम लोगों से उनकी नागरिकता की वैधता स्थापित करने के लिए सभी प्रकार के दस्तावेज मांगे गए हैं। लक्ष्य तथाकथित बांग्लादेशी घुसपैठिए थे। माना जा रहा है कि बंगाल इस अभ्यास का अगला लक्ष्य होगा। संघ परिवार की मशीनरी द्वारा प्रेरित होकर, घुसपैठियों को बाहर निकालने के नाम पर बंगाली मुस्लिम प्रवासियों को देशव्यापी निशाना बनाया गया है।
कानूनों में बदलाव : भाजपा ने 2024 के लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान समान नागरिक संहिता (यूसीसी) का मुद्दा उठाया था और इसे लागू करने का वादा किया था। भाजपा के नेतृत्व वाली विभिन्न राज्य सरकारों ने भी इसके लिए प्रारंभिक कदमों को उठाने की घोषणा की थी। उत्तराखंड सरकार ने तो राज्य के लिए एक तरह का यूसीसी पारित कर दिया, जिसमें कुछ अजीबोगरीब प्रावधान भी शामिल हैं, जिनमें लिव-इन रिलेशनशिप के खिलाफ भी कुछ प्रावधान शामिल हैं। यूसीसी का मुद्दा आरएसएस की लंबे समय से चली आ रही मांग है और (कश्मीर से अनुच्छेद-370 को हटाने और अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के साथ) मुस्लिम समुदाय के अधिकारों को निशाना बनाने का एक हथियार है। यह हथियार मुस्लिम समुदाय के खिलाफ नफरत फैलाने के साथ-साथ कई अन्य संबंधित मिथकों को, जैसे कि मुस्लिमों की आबादी हिंदुओं से अधिक हो जाने आदि को, बढ़ावा देने का काम करता है।
भाजपा के नेतृत्व वाली विभिन्न राज्य सरकारों ने धर्मांतरण के खिलाफ नए कानून पारित किए हैं, हालाँकि जबरन धर्मांतरण पर रोक लगाने वाले कानून पहले से मौजूद हैं। इन नए कानूनों की परिभाषाएँ अस्पष्ट हैं और ये किसी भी व्यक्ति को संदिग्ध धर्मांतरण प्रयासों के लिए दूसरों के खिलाफ शिकायत दर्ज करने की अनुमति देते हैं। इसके कारण धार्मिक समारोहों या यहाँ तक कि व्यक्तियों पर, स्थानीय पुलिस के साथ मिलकर संघ परिवार के संगठनों द्वारा संचालित हमलों की बाढ़ आ गई है। इन हमलों में विशेष रूप से ईसाइयों को निशाना बनाया गया है।
अवैध तोड़फोड़: उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार राज्य के मुस्लिम समुदाय को परेशान करने और उन्हें आतंकित करने में अग्रणी रही है। विरोध प्रदर्शनों के दौरान सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुँचाने में शामिल पाए जाने वाले व्यक्तियों पर दंडात्मक जुर्माने का प्रावधान करने वाला कानून पारित करने के बाद, इसने इसे मुस्लिम परिवारों को निशाना बनाने के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया है, खासकर सीएए विरोधी प्रदर्शनों के बाद। इसके द्वारा शुरू किया गया एक और उपाय दंगों सहित अपराधों में कथित रूप से शामिल लोगों के घरों को ध्वस्त करना था। इसका इस्तेमाल फिर से मुस्लिम परिवारों को निशाना बनाने के लिए किया गया। बाद में मध्य प्रदेश जैसी कई भाजपा शासित सरकारों ने भी इसी कार्यप्रणाली की नकल की। इस प्रक्रिया में कई दर्जन घर ध्वस्त कर दिए गए। इन परिस्थितियों में, सर्वोच्च न्यायालय को फिर से नोटिस, सुनवाई आदि सहित किसी भी तोड़-फोड़ के लिए सख्त दिशा-निर्देश बनाने पड़े हैं।
अनुष्ठान आयोजित करना : प्रधानमंत्री स्वयं विभिन्न अवसरों पर खुले आम हिंदू अनुष्ठान करते रहे हैं और टीवी चैनलों के कैमरे हर पल उनका सीधा प्रसारण करते रहे हैं। इसमें नए संसद भवन का उद्घाटन, फिर अयोध्या में राम मंदिर का उद्घाटन और देश के विभिन्न हिस्सों के साथ-साथ विदेशों में भी विभिन्न मंदिरों के दर्शन शामिल हैं। इस वर्ष की शुरुआत में इलाहाबाद/प्रयागराज में महाकुंभ का पूरा आयोजन भाजपा के नेतृत्व वाली उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा किया गया था, जिसमें प्रधानमंत्री और अन्य भाजपा नेताओं के विशाल होर्डिंग पूरे क्षेत्र में लगाए गए थे।
नफरत भरे भाषण : प्रधानमंत्री और केंद्रीय मंत्रियों, और राज्य स्तरीय समकक्षों ने लगातार चुनाव अभियानों के दौरान नफरत भरे भाषणों की बाढ़ ला दी है। मुस्लिम समुदाय को खुलेआम निशाना बनाकर और हिंदुत्व का समर्थन करते हुए, ये नफरत भरे भाषण स्पष्ट रूप से कानूनों का उल्लंघन करते हैं, लेकिन न तो चुनाव आयोग और न ही पुलिस ने उन्हें जवाबदेह ठहराया है। यह एक विडंबना है कि देश के सर्वोच्च पदों पर आसीन व्यक्ति खुले आम अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्यों को गालियाँ दे रहे हैं और धमका रहे हैं, या बहुसंख्यक समुदाय को लव जिहाद, भूमि जिहाद आदि जैसे विभिन्न काल्पनिक अपराधों के नाम पर उनके खिलाफ मोर्चा खोलने का आह्वान कर रहे हैं।
अपराधियों का संरक्षण : केंद्र और राज्य सरकारें सांप्रदायिक हमलों के दौरान हत्या, बलात्कार और आगजनी जैसे जघन्य अपराधों के आरोपी या दोषी ठहराए गए अपराधियों और बम विस्फोटों में शामिल अपराधियों का खुले आम बचाव कर रही हैं। भाजपा के नेतृत्व वाली गुजरात सरकार ने बिलकिस बानो मामले में शामिल 11 दोषियों को रिहा कर दिया, जिसमें 2002 के मुस्लिम विरोधी नरसंहार में भीड़ ने उनके परिवार पर हमला किया था, उनके साथ बलात्कार किया था और उनकी तीन साल की बेटी की भी हत्या कर दी थी। इसके खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय ने हस्तक्षेप किया और आदेश दिया कि रिहा किए गए सभी दोषियों को वापस जेल भेजा जाए। ओडिशा में, नवनिर्वाचित भाजपा सरकार ने ग्राहम स्टेन्स हत्याकांड के एक दोषी को आसानी से रिहा कर दिया, लेकिन जन आक्रोश के बाद मुख्य आरोपी दारा सिंह को रिहा नहीं करने पर मजबूर होना पड़ा। ऐसे कई मामले सामने आए हैं, जहाँ गौरक्षकों को ज़मानत पर रिहा कर दिया गया या उनके खिलाफ आपराधिक मामले अपर्याप्त अभियोजन के कारण लटके रहे। कई मामलों में भाजपा या संघ परिवार के नेताओं ने उनकी रिहाई के बाद इन अपराधियों को 'नायकों' के रूप में माला पहनाई है। आरोपियों के बरी होने का सबसे ताज़ा उदाहरण मालेगांव विस्फोट मामला है, जहाँ पूर्व सांसद प्रज्ञा सिंह समेत हिंदुत्व कार्यकर्ताओं के एक समूह को अभियोजन पक्ष द्वारा पर्याप्त सबूत पेश न करने के कारण बरी कर दिया गया। इन सब बातों ने संघ परिवार के उन गुंडों को दंड से मुक्ति का एक मज़बूत एहसास दिलाया है, जो गौरक्षा, त्योहारों के जुलूसों, मस्जिदों पर हमलों और मुस्लिम समुदाय के खिलाफ अन्य जघन्य कृत्यों के नाम पर हिंसा में लिप्त रहे हैं। केंद्र और राज्य सरकारों ने कानून के समक्ष समानता के संवैधानिक निर्देश के प्रति अपनी सभी प्रतिबद्धताओं को दरकिनार करते हुए हिंदुत्व ब्रिगेड का खुलकर साथ दिया है।
सामाजिक क्षति
ऊपर संक्षेप में बताया गया है कि किस तरह भाजपा ने मुस्लिम और ईसाई समुदाय को निशाना बनाने के लिए क़ानूनों और सरकारी नीतियों/निर्णयों को हथियार बनाया है। संघ परिवार ने समाज में इसे और घातक परिणामों के साथ आगे बढ़ाया है। संघ परिवार द्वारा गढ़े गए सभी काल्पनिक नारे -- लव जिहाद, गौरक्षा, हिजाब, ज़मीन जिहाद, तथाकथित बांग्लादेशी प्रवासी आदि -- और अल्पसंख्यक समुदायों को बदनाम करने के लिए प्रचारित सभी झूठों को संघ परिवार से जुड़े विभिन्न निगरानी समूहों और आनुषांगिक संगठनों ने अपना लिया है। अक्सर, देश भर में अनगिनत जगहों पर हिंसक हमले, उकसावे और दंगे जैसे हालात पैदा हुए हैं। एनसीआरबी के आंकड़े बताते हैं कि मोदी के शासन के पहले आठ वर्षों (2014-22) में 6067 सांप्रदायिक घटनाएँ हुईं जिनमें 10,000 से ज़्यादा लोग हताहत हुए। इस अवधि में मुसलमानों और दलितों की भीड़ द्वारा हत्या की 80 से अधिक घटनाएं हुईं, जिनमें से अधिकतर गोरक्षा के नाम पर की गईं। ये आंकड़ें हिमशैल का एक छोटा सा हिस्सा भर है।
इसके अलावा, संघ परिवार के सोशल मीडिया तंत्र के ज़रिए मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों के बारे में झूठ और मिथकों का पूरा जाल दिन-रात फैलाया जाता है। ऐसे समय में जब फ़र्ज़ी ख़बरें सर्वव्यापी हो गई हैं और यहाँ तक कि ज़्यादातर मुख्यधारा के टीवी चैनल भी इसे प्रचारित करते हैं, नफ़रत और ज़हर की इस निरंतर बौछार का भोले-भाले लोगों पर असर पड़ा है,
यह एक भयावह स्थिति है, लेकिन इसीलिए हालिया आम हड़ताल जैसे एकजुट संघर्षों के महत्व को कम करके नहीं आंका जा सकता। साथ ही, वैकल्पिक मीडिया और जनता के संघर्षों द्वारा उपलब्ध कराए गए मंचों के माध्यम से संघ परिवार के वैचारिक हमले का मुकाबला भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।
(लेखक राजनैतिक टिप्पणीकार हैं। अनुवादक अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं। संपर्क : 94242-31650)