(आलेख : बादल सरोज)
इस सप्ताह शुरुआत राजनाथ सिंह ने की। उन्हें कुछ लोग उनकी पार्टी के रेवड़ में अलग तरह की – कम मरखनी, कम कटखनी प्रजाति -- का मानते हैं। शायद इसलिए कि राजनीति में अनेक पदों पर रहने के अनुभवों के अलावा वे पढ़े-लिखे भी माने जाते हैं, उनकी डिग्रियां असली हैं, कम-से-कम अभी तक उनको लेकर कोई शकोशुबहा नहीं है। भौतिकशास्त्र के व्याख्याता भी रहे हैं और अक्सर अटल बिहारी वाजपेई के अंदाज में बोलने की भी सायास, किन्तु असफल कोशिश करते रहते हैं। जो भले और भोले लोग अटल जी को अलग निराकार, निर्गुण कोटि का भाजपाई मानते थे, वे ही इनमें भी भिन्नता देखते हैं। तो इस बार शुरुआत इन्हीं ने की, यूं भी कह सकते हैं कि इन्हीं से करवाई गयी।
गुजरात के वडोदरा में एक सभा में उन्होंने रहस्योदघाटन-सा करते हुए दावा किया कि : “देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू पब्लिक फंड का इस्तेमाल करके बाबरी मस्जिद को फिर से बनवाना चाहते थे, लेकिन सरदार पटेल ने नेहरू के प्लान को कामयाब नहीं होने दिया।” विडम्बना यह थी कि इस तरह की साफ़-साफ़ विभाजनकारी बातें वे उस सभा में बोले, जिसे ‘एकता रैली’ बताया गया था। इस बयान के बाद, इसके खंडन में आये अनेक दस्तावेजी सबूतों, जिनकी कोई सफाई इनकी तरफ से नहीं आई, को छोड़ भी दें, तो अत्यत सरल-सी बात यह थी कि जिस कालखंड का वे जिक्र कर रहे थे, तब तक बाबरी मस्जिद सलामत थी, लिहाजा उसके बनाने या बनवाने का सवाल ही नहीं उठता था।
मगर उन्हें इस सबसे क्या : उन्हें इस अज्ञानता के सार्वजनिक इजहार के साथ जो करना था, वह उन्होंने कर लिया : बाबरी मस्जिद के गिराने की याद दिलाते हुए ध्रुवीकरण की मथनी में एक झोंटा लगा दिया। मूर्खता को साधन की तरह इस्तेमाल करके असाध्य को साधने की कला, जिस कुनबे के राजनाथ सिंह हैं, उसने अच्छी तरह साधी हुई है। गुजरात में बोलते हुए भी वे इसी का उदाहरण प्रस्तुत कर रहे थे।
इसी का एक और नमूना डॉलर के मुकाबले रूपये की कीमत में लगातार, अनवरत जारी गिरावट को लेकर दिए गए कुतर्कों में दिखा। भाजपा सांसद मनोज तिवारी ने अनूठा तर्क दिया कि "हमारे देश के लोग अपनी ज़ेब मे रुपया लेकर घूमते हैं, रूपये से खरीदारी करते हैं। हमें डॉलर से कोई लेना-देना नहीं है, डॉलर महंगा हो या सस्ता, हमारे देश के लोगों पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।" अपने स्तरहीन अभिनय की तरह, उसी तरह की बेतुकी और सतही टिप्पणियों के लिए कुख्यात तिवारी जी को उनके ज्ञान की सीमा को देखते हुए कुछ छूट देने की सोची भी जा सकती है – मगर तब तक अच्छे-खासे शिक्षा संस्थान से अर्थशास्त्र की पढाई करने वाली और रुपये को अधोगति की तरफ ले जाने वाले विभाग की मुखियाइन, वित्त मंत्राणी निर्मला सीतारमण की उक्ति आ गयी, जिसमे उन्होंने इसे कोई ज्यादा चिंता करने की बात ही नहीं माना।
वे बोलीं कि "रुपया अपना लेवल खुद ही बना लेगा।" रूपये-डॉलर की कीमतों को लेकर विपक्ष में रहते हुए मोदी, भाजपा और स्वयं इनके द्वारा की गयी रसीली टिप्पणियों पर भी झाडू फेरते हुए निर्मला जी ने कहा कि तब आर्थिक हालात बिल्कुल अलग थे। भले ही रुपया कमजोर हुआ हो, लेकिन भारत की आर्थिक बुनियाद मजबूत है, इसलिए घबराने की जरूरत नहीं है।“
हालांकि यह दावा वे तब कर रही थीं, जब आईएमएफ ने उनकी अगुआई वाले वित्त मंत्रालय के जीडीपी इत्यादि के आंकड़ों को गलत और अविश्वसनीय करार देते हुए उन्हें ‘सी’ ग्रेड की श्रेणी में डाल दिया था। उनके बोलते ही उनके बाकी अनुचर भी ज्ञान देने उतर पड़े। रिज़र्व बैंक के गवर्नर संजय मल्होत्रा ने रुपये की गिरावट को अनुल्लेखनीय घटना बताते हुए इसे आपदा में अवसर के मोदी सिद्धांत के तहत घरेलू मुद्रा को अपना स्तर खोजने की अनुमति देने वाला अवसर बताया, तो नीति आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष राजीव कुमार जैसे कुछ विद्वान अर्थशास्त्रियों ने तो अर्थशास्त्र की अब तक की सारी समझदारियों को ही ताक पर रख दिया और कहा कि ‘कमजोर रुपया वास्तव में अर्थव्यवस्था के लिए लाभदायक होता है, क्योंकि यह निर्यात को बढ़ावा देता है और अधिक रोजगार पैदा करता है’, का सिद्धांत भी ठेल दिया।
मगर इस प्रतियोगिता में बाजी केंद्रीय मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने मारी। मिथकों के अर्जुन की तरह उन्होंने सीधे निशाने पर वार करने की बजाय निशाना ही बदल दिया और एलान कर दिया कि डॉलर के मुकाबले उतार-चढ़ाव फालतू की बात है, असल में तो भारतीय रुपये की ताकत बढ़ रही है। वे यहीं तक नहीं रुके, उन्होंने रुपये की इस ‘मजबूती’ का श्रेय भारत की बढ़ती अर्थव्यवस्था के आकार और अन्य देशों के साथ बढ़ते व्यापार को दिया है। यह भी बताया कि 35 से अधिक देशों ने व्यापार के लिए भारतीय रुपये के उपयोग की अनुमति दी है, जिससे विदेश यात्रा करने वाले भारतीयों के लिए स्थानीय मुद्रा या अमेरिकी डॉलर में मुद्रा बदलने की आवश्यकता कम हो गई है।
अब इतने आला दर्जे की ‘बुद्धिमत्ताओं’ को ऐसे ही तो नहीं छोड़ा जा सकता : इनका स्मारक बनाकर मूर्त रूप देना भी बहुत जरूरी था, सो खुद सरकार ने हाथ बढाया और प्रधानमंत्री का हाल मुकाम बदल कर उसे सेवा तीर्थ नम्बर वन का नाम दे दिया। नौ साल में यह तीसरा नामकरण था ; पहले रेसकोर्स रोड से लोककल्याण मार्ग हुआ और अब तो तीरथ ही बन गया। आखिर नेहरू से मुकाबला भी तो करना है।
आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री के नाते उन्होंने बड़े-बड़े सार्वजनिक उद्योगों, निर्माणों और बांधों और चंडीगढ़, दुर्गापुर, भिलाई जैसे शहरों को भारत का आधुनिक तीर्थ बताया था – अब उनमे से ज्यादातर का मोदी जी अपने मित्र कारपोरेटों द्वारा भोग लगवा ही चुके हैं। मगर सेवा अभी अधूरी है, सो उसे पूरी करने के लिए मोदी ने खुद का पता ही सेवा तीर्थ वह भी नम्बर वन कर दिया। इसी की तुक में राजभवनों को भी लोकभवन बनाने की घोषणा भी कर दी गयी। ताज्जुब नहीं कि बात और आगे तक जाए और सांसदों, विधायकों, पार्षदों, पंचों, सरपंचों के घरों-मकानों को भी छोटे-मोटे देवताओं या उनके गणों के नाम का तीर्थस्थल बता दिया जाए।
जिस दिल्ली में तीर्थ बनाया जा रहा था, उसकी मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता ने भी ताल से ताल मिलाई और दिल्ली की गलघोंटू हवा और प्रदूषण से मुकाबले के लिए नयी शोध लेकर आ गयीं। उनका दावा रोचक था कि जहां सबसे ज्यादा प्रदूष्ण हो, वहां - हॉटस्पॉट पर - पानी छिड़ककर उसे कम किया जा सकता है। इस ज्यादा ही हास्यास्पद शेखचिल्लीपन का बचाव करते हुए कुनबे की मुख्यमंत्री ने यह भी बताया कि आखिर एक्यूआई - वायु गुणवत्ता सूचकांक - भी तो "एक तापमान की तरह है", इसलिए पानी का छिड़काव इसे कम करने का एक प्रभावी तरीका है। वायु गुणवत्ता सूचकांक को किसी भी थर्मामीटर से मापे जाने योग्य "एक तरह का तापमान" बताना बादलों की आड़ लेकर रडार को धोखा देने और नाली की गैस से चाय पकोड़ा बनाने जैसी 'वैज्ञानिक खोजों' की कड़ी में आगे की खोज है।
मूर्खत्व के यज्ञ में सप्ताह की आख़िरी आहुति वंदे मातरम पर दिन भर की बहस थी। इसके जरिये स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान देश को जोड़ने वाले इस लोकप्रिय गान को जनता की एकता को तोड़ने के नफरती अभियान में बदलने के लिए पूरी ताकत लगा दी गयी। खुलकर हिन्दू-मुसलमान किया गया। जिन्होंने जब वन्देमातरम देश को एकजुट कर प्रेरित और उत्साहित कर रहा था, तब उसका 'व' तक नहीं बोला, जिस आर एस एस ने अपने पूरे 100 साल में एक बार भी वन्दे मातरम नहीं गाया, उनका अचानक इस गान के प्रति अनुराग जिस कुत्सित इरादे से था, उसे उन्होंने छुपाया भी नहीं।
बंगाल में होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को और तीखा करने के लिए इसका इस्तेमाल हो रहा है, यह खुद प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भाषण में बार-बार बंगाल का जिक्र करके एक तरह से खुद ही कबूल कर लिया। उन्होंने देश भर के इस गान को बंगाल तक ही सीमित कर दिया। जिस उपन्यास का यह हिस्सा है, उस आनंदमठ के लेखक बंकिम बाबू की बंगाली पृष्ठभूमि के बखान से लेकर ‘पश्चिम बंगाल की मेधा पूरे देश को रास्ता दिखाया करती थी’, जैसे कई बोल-वचन से इस बहस के नफरती मंतव्य को साफ़ कर दिया। ध्यान रहे, यह बहस भी उस पटकथा का हिस्सा थी, जिसे एक दिन पहले लाखों लोगों को इकट्ठा कर कोलकता के मैदान में मंचित किया गया था। इनसे, जिसकी अगले दिन संसद में दुहाई दी जा रही थी, वह वन्देमातरम नहीं गवाया गया, जिसकी कोई धार्मिक परम्परा नहीं है, जिसका किसी धार्मिक कर्मकांड में कोई प्रावधान तो दूर, उल्लेख तक नहीं है। वहां भगवद्गीता का सामूहिक पाठ कराया गया था।
यह वही धूर्ततापूर्ण पटकथा थी, जिसमें इधर बंगाली अस्मिता पर जोर देकर स्वतंत्रता आंदोलन में राज्य के भद्र लोक के अहम योगदान की याद दिलाई जा रही थी, उधर मुस्लिम तुष्टीकरण और विभाजन की बात कर परोक्ष रूप से राज्य के हिंदू वोटरों को संदेश देने की कोशिश की जा रही थी। इसी का परोक्ष हिस्सा था भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार के रूप में लोकसभा चुनाव लड़ चुके, बाद में ममता की पार्टी में गए, अब निलम्बित, हुमायूं कबीर से बाबरी मस्जिद फिर से बनवाने का अहद उठवाकर आग में तेल डलवाया जाना।
कुल मिलाकर यह कि पूरी निर्लज्जता और दीदादिलेरी के साथ विवेक हरने और अविवेक का वर्चस्व बनाने की साजिश तूफानी तेजी के साथ अमल में लायी जा रही है। ध्यान बंटाने के मनोविज्ञान में मूर्खता को एक उपयोगी संसाधन के रूप में कर दिया गया है। मौजूदा हुक्मरान अच्छी तरह जानते हैं कि किन-किन तरीकों से किसी व्यक्ति या व्यक्ति समूह का ध्यान असली हालात या विचार से कैसे हटाया जा सकता है। उन्हें पता है कि मनुष्य के मस्तिष्क में जानकारी संग्रह करने, उसका विश्लेषण करके दूध और पानी को अलग करने और केवल प्रासंगिक चीज़ों पर ध्यान केंद्रित करने और उनका सार ग्रहण करने की क्षमता सीमित होती है। जब ध्यान भटकता है, तो यह प्रक्रिया और भी बाधित होती है। नतीजे में अनावश्यक, यहाँ तक कि स्वयं उसके लिए भी घातक समझ दिमाग में घर बना लेती है। दारुण दुःख देने के पहले मति हर लेना इसी को कहते हैं।
सत्ता में बैठा कार्पोरेटी हिंदुत्व का गठजोड़ इसकी कारगरता को जानता है और उसके लिए खुद को मूर्ख दिखाने में भी संकोच या शर्म लिहाज नहीं करता। लोकप्रिय मुहावरे में इसे ‘ऐड़ा बनके पेड़ा खाना’ कहते हैं। पिछले सप्ताह में मूर्खताओं की इस बहार में छुपा कर पतझरों को लहलहाने का काम किया जाना इसकी मिसाल है। इधर वन्दे मातरम पर नफरती कोरस गाया जा रहा था, उधर भारत की खेती-किसानी की रीढ़ तोड़कर उसे हमेशा के लिए अंतर्राष्ट्रीय बीज-राक्षसों के मुनाफे की तिजोरियों में दफ़न कर देने वाला सीड बिल, 2025 लाया जा रहा था। बिना संसदीय प्रक्रिया का पालन किये, बिना बहस कराये, बिना किसी संसदीय समिति को भेजे, बिजली बिल, 2025 सहित एक के बाद एक जनविरोधी विधेयक धड़ाधड़ पारित किये जा रहे थे।
कुख्यात चार लेबर कोड्स को लागू किये जाने के साथ शुरू हुआ हमला जनता के बाकी हिस्सों को भी अपनी चपेट में ले रहा था। बिहार में मिली जीत के बाद वहां भी बुलडोजर दनदनाने लगे थे। इस कुहासे के बीच देश के सभी नागरिकों के मोबाइल फोन में जासूसी का एप्प बिठाने की कोशिश की जा रही थी, जिसे समय रहते कम-से-कम फिलहाल के लिए तो रोक दिया गया है। किन्तु आशंकाएं और गहरी हो गयी हैं।
दिखावे के लिए मूर्खता की आराधना करने वाले धूर्तता के साधकों की कार्यशैली को समझकर ही इन आशंकाओं से बचा जा सकता है। इसके लिए जानकारी ही बचाव है, आवाज उठाना ही उपचार है।
(लेखक 'लोकजतन' के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। संपर्क : 94250-06716)