(आलेख : पद्मनाभन चंद्रोथ, अनुवाद : संजय पराते)
गुणवत्ता और शासन प्रक्रिया को बेहतर बनाने के लिए एक सुधार के तौर पर पेश किया गया विकसित भारत शिक्षा अधिष्ठान विधेयक 2025, नई शिक्षा नीति 2020 परियोजना का कानूनी परिणाम है। यह उच्च शिक्षा पर नियंत्रण को केंद्रीकृत करता है, संघवाद और संस्थागत स्वायत्तता को कमजोर करता है, कॉर्पोरेटीकरण और व्यवसायीकरण को बढ़ावा देता है, और भारतीय ज्ञान प्रणालियों की आड़ में हिंदुत्व-आधारित वैचारिक एजेंडा को लागू करता है।
पिछले पाँच सालों में, एनडीए सरकार ने पूरे देश में एक हस्तक्षेपकारी प्रक्रिया के ज़रिए बड़ी तेजी के साथ नई शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 को लागू किया है। इसे लागू करने के तरीके और दिशा से यह साफ था कि यह एक तटस्थ कार्यवाही नहीं है और इसने उस आलोचना को सही साबित किया है, जो इसका आंकलन करते हुए की गई थी। उस दस्तावेज ने नई शिक्षा नीति में जानबूझकर रखी गई अस्पष्टता को उजागर किया था, जो अनायास नहीं थी, बल्कि एक सोची-समझी रणनीति थी।
इस नीति में जो अस्पष्टताएँ हैं और इसके साथ ही जो बातें साफ़ तौर पर नहीं कही गई थीं और जिसे दो लाइनों के बीच पढ़ा जा सकता है, वे शिक्षा को संचालित और विनियमित करने के लिए केंद्रीय एजेंसियों के जाल के ज़रिए और ज़्यादा केंद्रीकरण की ओर ही इशारा करती हैं। ऐसा केंद्रीकरण संघीय सिद्धांतों को कमज़ोर करेगा और अकादमिक निकायों की स्वायत्तता को खत्म करेगा, साथ ही व्यवसायीकरण को भी तेज़ करेगा, शैक्षणिक पहुँच में असमानताओं को बढ़ाएगा, और हिंदुत्व पर आधारित वैचारिक ढांचे को थोपने में मदद करेगा। यह परियोजना जीवन की विविध वास्तविकताओं को खत्म करना चाहती है और इसके लिए आसानी से प्रभावित हो सकने वाले युवाओं को निशाना बनाती है, जो सबसे ज्यादा चिंता की बात है।
असल में, यह विधेयक तर्कसंगत पड़ताल को समर्पण से और वैज्ञानिक सोच को अंधविश्वास से बदलता है और आलोचनात्मक सोच की जगह अतार्किक आज्ञाकारिता को रखता है। इसका मकसद युवा पीढ़ी को एक जीवंत लोकतांत्रिक गणराज्य के स्वायत्त, सवाल पूछने वाले नागरिकों के रूप में नहीं, बल्कि ऐसे आज्ञाकारी लोगों के रूप में ढालना है, जो बिना सोचे-समझे सत्ता के आगे झुक जाएं। पांच साल बाद, ये आशंकाएं उम्मीद से कहीं ज़्यादा आक्रामक और चिंताजनक रूप से सच साबित हुई हैं।
विकसित भारत शिक्षा अधिष्ठान विधेयक में जिस तरह के केंद्रीकरण की बात की गई है, उसका साफ-साफ पता इसके लिए बनाए गए नए संस्थागत ढांचे से चलता है – विकसित भारत शिक्षा अधिष्ठान एक शक्तिशाली शीर्ष आयोग होगा, जिसे केंद्र-नियंत्रित तीन निकायों का समर्थन प्राप्त होगा : विकसित भारत शिक्षा विनियमन परिषद, जो एक नियामक प्राधिकरण के रूप में काम करेगा ; विकसित भारत शिक्षा गुणवत्ता परिषद, जो एक राष्ट्रीय मान्यता निकाय के रूप में काम करेगा और विकसित भारत शिक्षा मानक परिषद, जो मानक-निर्धारण प्राधिकरण के रूप में काम करेगा। केंद्र द्वारा प्रशासित विकसित भारत शिक्षा अधिष्ठान कोष इन निकायों को वित्तीय साधनों के माध्यम से वित्तपोषित और नियंत्रित करेगा। ये संस्थान मौजूदा नियामक ढांचे की जगह लेंगे और नीति निर्देशन, विनियमन, मान्यता, पाठ्यक्रम मानकों और वित्तीय नियंत्रण को एक कार्यकारी-प्रभुत्व वाले संरचना के भीतर केंद्रित करेंगे। यह बिल विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी), अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद (एआईसीटीई) और राष्ट्रीय शिक्षक शिक्षा परिषद (एनसीटीई) को भी खत्म करने का प्रावधान करता है और उन्हें कार्यकारी नियुक्तियों के प्रभुत्व वाले केंद्र-नियंत्रित संरचना में मिला देता है। यह एकीकरण संघीय सिद्धांतों को कमजोर करता है, राज्य सरकारों को हाशिए पर धकेल देता है, और विश्वविद्यालयों का दर्जा केंद्रीय रूप से प्रशासित एक प्रणाली के भीतर अधीनस्थ इकाईयों का बना देता है।
यह पहल उस प्रक्रिया का परिणाम है, जो नई शिक्षा नीति, 2020 से शुरू हुई थी। जिसे शुरू में एक अस्पष्ट और लचीली नीति के तौर पर पेश किया गया था, उसे अब केंद्रीकृत रूप से नियंत्रित एक ढांचे में बदल दिया गया है। "गुणवत्ता" या "शासन-प्रणाली" को बेहतर बनाने के लिए एक निष्पक्ष कोशिश करने के बजाय, यह उच्च शिक्षा के स्वरूप में एक बड़ा बदलाव करता है, जिसमें एक ऐसा मॉडल प्रस्तुत किया गया है, जो संघवाद के खिलाफ है, संस्थागत स्वायत्तता के खिलाफ है, कॉर्पोरेट-समर्थक है और पूरी तरह से अलोकतांत्रिक है। यह नियामक ढांचों के भीतर हिंदुत्व से प्रभावित "भारतीय ज्ञान प्रणालियों" को शामिल करके सत्ताधारी वर्गों की वैचारिक परियोजना को भी मज़बूत करता है।
केंद्रीकरण और संघवाद पर हमला
शिक्षा संविधान की समवर्ती सूची में है। यह इस बात को मान्यता देता है कि विविधता से भरे एक समाज को विकेन्द्रीकृत और संदर्भ-संवेदनशील शैक्षिक शासन-प्रणाली की ज़रूरत होती है। यह विधेयक वास्तव में सभी ज़रूरी शक्तियों को केंद्र द्वारा नियुक्त निकायों में केंद्रित करके इस सिद्धांत को कमजोर करता है। प्रस्तावित आयोग और उसकी नियामक, मान्यता और मानक परिषदों के पास नीति-निर्देशन, विनियमन, मान्यता, पाठयक्रम मानक और यहाँ तक कि डिग्री देने का भी अधिकार है।
हालांकि यह विधेयक औपचारिक रूप से इन निकायों को राज्य सरकारों को "सलाह" देने की अनुमति देता है, लेकिन राज्य केंद्र द्वारा तय किए गए मानदंडों को लागू करने वाले बनकर रह गए हैं, और उन्हें नियामक दबाव और वित्तीय शर्तों के परिपालन के जरिए मजबूर किया जायेगा। नई शिक्षा नीति, 2020 में सहकारी संघवाद के बारे में जो भी बातें कही गईं हैं, उन सबको अब पूरी तरह से प्रशासनिक अधीनता में बदल दिया गया है।
ऐसा केंद्रीकरण शिक्षा के नवउदारवादी पुनर्गठन का हिस्सा है। एकरूप राष्ट्रीय ढांचा बाज़ार में पैठ, मानकीकरण और कॉर्पोरेट मापनीयता (स्केलेबिलिटी) को आसान बनाते हैं ; जबकि राज्यों के विश्वविद्यालय, ज़्यादातर मज़दूर वर्ग, हाशिए पर पड़े और वंचित तबकों के छात्रों की ज़रूरतों को पूरा करते हैं। अब इन विश्वविद्यालयों को तेज़ी से कमज़ोर किया जा रहा है। प्रबंधकीय दक्षता और वैचारिक एकरूपता के लिए संघीय विविधता की बलि दी जा रही है।
स्वायत्तता का नकार
यह विधेयक बार-बार "स्वायत्तता" की बात करता है, लेकिन बिना अधिकार के स्वायत्तता देता है। असली अकादमिक स्वायत्तता संस्थानों के सामूहिक स्व-शासन में होती है, जिसका प्रयोग सीनेट और अकादमिक परिषदों जैसे लोकतांत्रिक रूप से गठित निकायों के माध्यम से होता है। यह विधेयक इन निकायों को हाशिये पर डाल देता है। विश्वविद्यालयों के पास संसाधनों का प्रबंधन करने, फंड जुटाने और नियामक ज़रूरतों का पालन करने की सीमित आज़ादी ही रह जाती है।
यह बदलाव एक जानी-पहचानी नव-उदारवादी रणनीति को दिखाता है : सार्वजनिक वित्त पोषण को खत्म करने के साथ-साथ कड़ी नियामक निगरानी। संस्थानों से उम्मीद की जाती है कि वे आर्थिक रूप से अपना ख्याल खुद रखें, लेकिन केंद्र द्वारा लागू किए गए मानकों को बिना कोई सवाल उठाए मानें। इसका परिणाम यह होता है कि विश्वविद्यालय एक ऐसी प्रशासनिक इकाई में तब्दील हो जाती हैं, जो बाहर से तय किए गए आदेशों को लागू करती हैं।
कॉरपोरेटीकरण और बाजार अनुशासन
विधेयक में परिणाम आधारित मान्यता, प्रदर्शन सूचक और मानकीकृत सीखने के परिणाम पर ज़ोर दिया गया है। यह शब्दावली कॉरपोरेट प्रबंधन की भाषा है, न कि आलोचनात्मक शिक्षाशास्त्र की। इस प्रकार, ज्ञान को मापने योग्य उत्पाद तक सीमित कर दिया गया है, शिक्षा को एक औद्योगिक प्रक्रिया बना दिया गया है, और छात्रों को मानव पूंजी की इकाईयों में बदल दिया गया है।
उत्कृष्टता और पहुंच को बढ़ावा देने का दावा करते हुए भी, यह विधेयक निजी और कॉर्पोरेट संस्थानों का पक्ष लेता है। सरकारी विश्वविद्यालयों को, जिन्हें हमेशा से कम फंड मिलता रहा है, उन्हें स्व-वित्तीय पाठ्यक्रमों, फीस बढ़ाने और पब्लिक-प्राइवेट साझेदारी की ओर धकेला जा रहा है।
यहां कॉर्पोरेटीकरण सिर्फ़ व्यावसायीकरण नहीं है ; इसमें शासन प्रणाली, श्रम और अकादमिक प्राथमिकताओं का पुनर्गठन शामिल है। संविदा पर नियुक्तियां, "प्रोफेसर ऑफ प्रैक्टिस," और 2 जुड़े पाठयक्रम स्थिर अकादमिक श्रम को कमजोर करते हैं और ज्ञान उत्पादन को बाज़ार की ज़रूरतों के अधीन कर देते हैं। विश्वविद्यालय आलोचनात्मक सामाजिक पड़ताल का केंद्र बनने के बजाय श्रम-बाजार कौशल के आपूर्तिकर्ता बन जाते है। यह हास्यास्पद है कि नियामक परिषद का साफ़ तौर पर बताया गया एक कर्तव्य है : "उच्च शिक्षा के व्यावसायीकरण को रोकने के लिए सुसंगत नीतियां विकसित करना"।
दंडात्मक प्रावधान और तानाशाहीपूर्ण नियमन
इस विधेयक की सबसे परेशान करने वाली विशेषताओं में से एक इसका ज़बरदस्ती सज़ा देने वाली व्यवस्था है। जो संस्थान निर्देशों का पालन नहीं करेंगे, उन पर 10 लाख रुपये से लेकर 75 लाख रुपये तक का जुर्माना लग सकता है। यह डिग्री देने की शक्तियों को भी निलंबित कर सकता है।
ऐसे प्रावधान खासकर उन सरकारी संस्थानों के लिए दंडात्मक हैं, जो पहले से ही संसाधनों की कमी से जूझ रहे हैं। नियमों का पालन न करना, जो अक्सर संसाधनों की कमी के कारण होता है, वित्तीय और शैक्षणिक प्रतिबंधों का आधार बन सकता है। यह संस्थानों को असहमति, प्रयोग या विरोध को हतोत्साहित करने के लिए अनुशासित करता है।
भारतीय लोगों के परिप्रेक्ष्य से, यह शिक्षा में एक दंडात्मक-नियामक राज्य के उभरने को दिखाता है, जहाँ ज़बरदस्ती सहमति की जगह लेती है और लोकतांत्रिक चर्चा की जगह पालन करना होता है। जुर्माने का खतरा प्रशासनिक कार्रवाई के साथ-साथ वैचारिक नियंत्रण के एक तरीके के रूप में काम करता है।
भारतीय ज्ञान प्रणालियाँ और वैचारिक वर्चस्व
हालांकि स्वदेशी ज्ञान परंपराओं के साथ जुड़ाव वैध और ज़रूरी दोनों है, लेकिन विधेयक में "भारतीय ज्ञान और कला" को एकीकृत करना और "भारतीय ज्ञान प्रणालियों" (आइकेएस) के संस्थानीकरण पर ज़ोर देना गंभीर समस्या पैदा करता है।
भारतीय ज्ञान प्रणालियों को कई बौद्धिक परंपराओं में से एक के रूप में पेश नहीं किया जाता, जिस पर आलोचनात्मक पड़ताल और बहस हो सके। इसके बजाय, इसे पाठ्यक्रम और मानक-निर्धारण ढाँचे में एक खास जगह दी जाती है। यह हिंदुत्व विचारधारा की परियोजना के हिसाब से इतिहास, दर्शन और संस्कृति के चुनिंदा इस्तेमाल का रास्ता खोलता है।
असल में, यह विधेयक राज्य के एक वैचारिक उपकरण के रूप में शिक्षा की भूमिका को मज़बूत करता है। नियामक ढांचों में एक खास सांस्कृतिक-राष्ट्रवादी विश्व-दृष्टिकोण को शामिल करके यह चेतना को आकार देता है, धर्मनिरपेक्ष और भौतिकवादी परंपराओं को हाशिये पर धकेलता है, और आलोचनात्मक समाज विज्ञान को गैर-कानूनी करार देना चाहता है। खतरा सिर्फ़ पाठ्यक्रम की अंतर्वस्तु में नहीं है, बल्कि स्वीकार्य बौद्धिक सीमाओं के संकुचित होने में है।
लोकतांत्रिक खामी और कार्यकारी की ज़्यादा दखलंदाजी
यह विधेयक उस लोकतांत्रिक हानि का उदाहरण है, जो नई शिक्षा नीति, 2020 के लागू होने की पहचान रही है। उच्च शिक्षा को प्रभावित करने वाले अहम फैसले कार्यकारी द्वारा नियुक्त निकायों को सौंपे गए हैं, जिसके कामों की संसदीय पड़ताल न्यूनतम होती है और शिक्षकों के संगठनों, छात्र संगठनों या राज्य सरकारों की इसमें कोई संस्थागत भूमिका नहीं है।
संसद के सामने पेश की जाने 2 समुदायों को फ़ैसले लेने की प्रक्रिया से बाहर रखा गया है, और उन्हें एक सामूहिक बौद्धिक काम में हिस्सेदार मानने के बजाय सिर्फ़ नियामक संस्थाओं तक सीमित कर दिया गया है।
शक्तियों का यह केंद्रीकरण कोई इत्तेफ़ाक नहीं है। शिक्षा के नवउदारवादी और वैचारिक पुनर्गठन के लिए लोकप्रिय दबाव से बचाव ज़रूरी है। इस विधेयक का मकसद लोकतांत्रिक बातचीत के बजाय नियामक आदेशों के ज़रिए विरोध को खत्म करना है।
नई शिक्षा नीति 2020 और पूंजी का तर्क
नई शिक्षा नीति की जो दिशा है, उस ओर विकसित भारत शिक्षा अधिष्ठान विधेयक एक बड़ा कदम है। डिग्री का बँटवारा, शिक्षण प्रक्रिया को ऋण लेने के जरिए मॉल में तब्दील करना, राष्ट्रीय मंच के जरिए डिजिटल निगरानी करना और केंद्रीकृत मूल्यांकन तंत्र -- इन सबने पहले ही उच्च शिक्षा के क्षेत्र को बदल दिया है। यह विधेयक इन बदलावों को एक स्थायी ढांचे के रूप में मजबूती देता है।
यह प्रक्षेपण पथ समकालीन पूंजीवाद के तर्क को प्रतिबिंबित करता है : एक लचीले कार्यबल की ज़रूरत, शिक्षा के क्षेत्र में नए बाज़ार, और सामाजिक संकट के समय में विचारधारात्मक प्रभुत्व। एक केंद्रीकृत राज्य इस प्रक्रिया में वित्त पोषण से पीछे हटकर, लेकिन नियंत्रण कड़ा करके ; कॉर्पोरेट प्रवेश को आसान बनाकर, लेकिन सार्वजनिक संस्थानों को अनुशासित करके और बढ़ती असमानताओं को छिपाने के लिए सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को बढ़ावा देकर मध्यस्थता करता है।
निष्कर्ष : शिक्षा और लोकतांत्रिक प्रतिरोध
विकसित भारत शिक्षा अधिष्ठान विधेयक, 2025 भारत में उच्च शिक्षा के लोकतांत्रिक और सार्वजनिक स्वरूप के लिए एक बड़ा खतरा है। कॉर्पोरेटीकरण और वैचारिक एकरूपता को बढ़ावा देने का अभिन्न हिस्से के रूप में यह विधेयक संघवाद, संस्थागत स्वायत्तता, शैक्षणिक स्वतंत्रता और धर्मनिरपेक्ष ज्ञान पर हमला करता है।
इसलिए, इस विधेयक का विरोध करना सिर्फ़ अकादमिक समुदाय तक सीमित मांग नहीं है, बल्कि एक लोकतांत्रिक ज़रूरत है। शिक्षा को एक सार्वजनिक हित के रूप में बचाया जाना चाहिए, जो सार्वजनिक रूप से वित्त पोषित, संघीय विविधता, अकादमिक स्व-शासन, और आलोचनात्मक पड़ताल पर आधारित हो। उच्च शिक्षा को लेकर यह संघर्ष, आखिरकार, हमारे महान राष्ट्र के भविष्य को लेकर ही संघर्ष है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। अनुवादक अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं। संपर्क : 94242-31650)