‘सरकार नहीं चाहती मैं पुतिन से मिलूं, यह पीएम मोदी की इनसिक्योरिटी’ — राहुल गांधी
रूस के पहले उप प्रधानमंत्री डेनिस मंटुरोव संसद पहुंचे, विपक्ष ने उठाए पारदर्शिता के सवाल
रिपोर्ट — विजय तिवारी |
नई दिल्ली।
रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के भारत पहुंचने के साथ ही देश की राजनीतिक हवा अचानक तेज़ी से बदल गई है। संसद में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने केंद्र सरकार पर बड़ा हमला बोलते हुए कहा कि उन्हें पुतिन से मुलाकात की अनुमति नहीं दी गई, और यह कदम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की असुरक्षा (Insecurity) को दर्शाता है।
उनके बयान ने भारतीय राजनीति को नए विवाद में डाल दिया है, और इससे पुतिन की उच्च-स्तरीय यात्रा के बीच राजनीतिक तापमान और भी गरम हो गया है।
राहुल गांधी की सीधी चोट — 'लोकतांत्रिक परंपरा का अपमान'
मीडिया से बातचीत करते हुए राहुल गांधी ने कहा -
“कई वर्षों से परंपरा रही है कि जब कोई अंतरराष्ट्रीय नेता भारत आता है, तो विपक्षी नेताओं से भी मुलाकात की जाती है। मनमोहन सिंह और वाजपेयी के कार्यकाल में ऐसा हमेशा होता था। लेकिन आज स्थिति बदल गई है। सरकार नहीं चाहती मैं पुतिन से मिलूं।”
उन्होंने कहा कि यह सिर्फ किसी मुलाकात का मामला नहीं, बल्कि
“भारत की लोकतांत्रिक गरिमा और साझा नेतृत्व की परंपरा पर हमला” है।
रूस-भारत कूटनीति — दौरे का महत्व
दो दिनों के इस दौरे को रणनीतिक दृष्टि से बहुत अहम माना जा रहा है।
बैठक का एजेंडा —
संभावित प्रमुख मुद्दे
रक्षा सहयोग और संयुक्त उत्पादन
अतिरिक्त S-400 एयर डिफेंस सिस्टम और भविष्य के रक्षा समझौते
ऊर्जा-तेल व्यापार को बढ़ाने पर चर्चा
अंतरिक्ष और वैकल्पिक भुगतान प्रणाली पर सहयोग
वैश्विक समीकरणों में चीन-अमेरिका तनाव के बीच भारत-रूस साझेदारी का सुदृढ़ीकरण
पुतिन की दिल्ली यात्रा के दौरान रूस के पहले उप-प्रधानमंत्री डेनिस मंटुरोव संसद पहुंचे, जहां भारत-रूस संसदीय सहयोग के विस्तार पर प्राथमिक बातचीत हुई और उन्हें औपचारिक सम्मान के साथ स्वागत किया गया।
यह दौरा ऐसे समय हो रहा है, जब रूस-यूक्रेन युद्ध और पश्चिमी प्रतिबंधों के कारण वैश्विक राजनीति में बड़े बदलाव जारी हैं। ऐसे माहौल में भारत-रूस संबंधों का महत्व और बढ़ गया है।
विपक्ष बनाम सरकार — मुद्दे की जड़
विशेषज्ञों के अनुसार, विवाद सिर्फ मुलाकात का नहीं — बल्कि डिप्लोमैटिक इन्क्लूसिविटी बनाम केंद्रीकरण की बहस है।
विपक्ष की दलील -
विदेश नीति सिर्फ सरकार की निजी संपत्ति नहीं, बल्कि राष्ट्रीय हित का विषय है।
राष्ट्रहित में विपक्ष की भी भूमिका होती है।
लोकतांत्रिक देश में विदेश नीति पर राष्ट्रीय सहमति ज़रूरी है।
संभावित सरकारी पक्ष -
सुरक्षा प्रोटोकॉल व शेड्यूल का हवाला
कार्यक्रम पहले से तय, मुलाकातों की सीमित उपलब्धता -
संवेदनशील मसलों पर गोपनीयता प्राथमिकता
हालांकि अब तक केंद्र सरकार की ओर से कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं दी गई है।
सियासत क्यों भड़क उठी?
राजनीतिक विश्लेषकों की राय में -
सरकार और विपक्ष का टकराव विदेश नीति के मंच पर आना गंभीर संकेत है।
वैश्विक मंच पर लोकतांत्रिक छवि भी प्रभावित होती है।
भारत-रूस संबंधों की रणनीतिक संवेदनशीलता को देखते हुए विवाद और भी बड़ा हो सकता है।
एक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक के शब्दों में —
“विदेश नीति में राष्ट्रीय एकजुटता सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण होती है। विपक्ष को दरकिनार करना स्वस्थ लोकतंत्र की तस्वीर नहीं।”
आगे क्या?
क्या सरकार विपक्ष को मुलाकात की अनुमति देगी?
क्या यह विवाद संसद में बड़ा मुद्दा बनेगा?
भारत-रूस वार्ता और संभावित रक्षा/ऊर्जा समझौतों का क्या परिणाम निकलता है?
इन सभी सवालों पर देश और अंतरराष्ट्रीय महाशक्तियों की नज़रें टिकी हुई हैं।
रूस-भारत संबंधों को निर्णायक मोड़ देने वाला यह ऐतिहासिक दौरा
अब सिर्फ कूटनीति का मंच नहीं रहा,
बल्कि विपक्ष-सरकार के बीच लोकतांत्रिक अस्मिता बनाम सत्ता-केंद्रित नियंत्रण की खुली लड़ाई का मैदान बन चुका है।
यह राजनीतिक तनाव आने वाले दिनों में और तीखा हो सकता है।