वाराणसी, जिसे मोक्ष की नगरी कहा जाता है, ने सदियों से जीवन और मृत्यु के गहरे रहस्यों को अपने आँचल में समेट रखा है। इसी पावन भूमि पर डॉ. संतोष ओझा ने एक ऐसा अनुष्ठान प्रारंभ किया, जो न केवल धार्मिक महत्व रखता है, बल्कि समाज की आत्मा को झकझोर देने वाला संदेश भी देता है।
पिछले 12 वर्षों से उन्होंने 1 लाख 20 हजार अजन्मी बेटियों का श्राद्ध किया है। यह आँकड़ा केवल एक संख्या नहीं है, बल्कि उन असंख्य अधूरी कहानियों का प्रतीक है, जिन्हें जन्म लेने का अवसर ही नहीं मिला। यह उन मासूम जीवनों का मौन विलाप है, जिन्हें गर्भ में ही समाप्त कर दिया गया।
कन्या भ्रूण हत्या – एक सभ्यता पर प्रश्नचिह्न
हमारे शास्त्रों और संस्कृति में नारी को शक्ति, लक्ष्मी और सरस्वती का स्वरूप माना गया है। वहीं दूसरी ओर, आधुनिक समाज का यह काला सच है कि बेटियों को कोख में ही मार दिया जाता है। यह केवल भ्रूण की हत्या नहीं, बल्कि मानवीय संवेदनाओं और मातृत्व की भी हत्या है।
कन्या भ्रूण हत्या सिर्फ एक अपराध नहीं, बल्कि हमारे समाज की मानसिकता की बीमारी है। यह सोच कि बेटियाँ बोझ हैं, हमारी सभ्यता और संस्कृति दोनों पर कलंक है।
डॉ. संतोष ओझा का अनुष्ठान – समाज के लिए आईना
श्राद्ध का उद्देश्य सामान्यतः पितरों की आत्मा की शांति के लिए होता है। लेकिन अजन्मी बेटियों का श्राद्ध करके डॉ. ओझा ने यह संदेश दिया कि ये बेटियाँ भी उतनी ही महत्वपूर्ण थीं, जितना कोई भी जन्मा हुआ जीवन।
"आगमन" संस्था के इस प्रयास ने समाज के सामने एक गहरी पुकार रखी है – कि अब समय आ गया है हम अपनी सोच बदलें, वरना आने वाली पीढ़ियाँ हमें कभी माफ़ नहीं करेंगी।
हमें बेटियों को बोझ नहीं, आशीर्वाद मानना होगा।
हर घर, हर परिवार को यह संकल्प लेना होगा कि वह कन्या भ्रूण हत्या जैसी अमानवीय प्रथा का विरोध करेगा।
शिक्षा, समान अवसर और सम्मान देकर ही हम सच में एक संतुलित और मानवीय समाज बना सकते हैं।
काशी की यह पुकार हमें याद दिलाती है कि बेटियाँ केवल परिवार नहीं, बल्कि सम्पूर्ण समाज का भविष्य हैं। हर अजन्मी बेटी का श्राद्ध हमें यह संदेश देता है कि अब और बेटियों को कोख में मत मारो। उन्हें जीने दो, उन्हें खिलने दो, क्योंकि जब बेटियाँ बचेंगी तभी सभ्यता बचेगी।