एक एक मोती को पीरो कर।
तब ही बनता गले का हार।।
रिश्तों की डोरी से बंधकर।
बनता है जो अपना परिवार।।
बड़े होते हैं दरखत के जैसे।
मिलता है छाया और प्यार।।
मिलजुलकर हम करते हैं।
हंसी ठिठौली घर में आतीहै बाहर
बुजुर्गों की प्यारी बातें।
देते है हमें जो दुलार।।
बच्चों के मानस पटल पर।
तभी बढ़ता है अपनों से प्यार।।
एकाकी हो गया है जीवन।
अब कहां मिल पाता प्यार?
बच्चे भी अब भूल रहे हैं।
होता है कैसा परिवार।।
मनमुटाव, वैमनस्य भरा।
गाथा जो सकल संसार।।
बैठते नही लोग साथ कभी।
बातें कर लें वो दो चार।।
विलुप्त होता जा रहा है।
संयुक्तशैली का अब जो परिवार।
......अभय सिंह