प्रलंब बाहु विक्रमं । प्रभोऽप्रमेय वैभवं ॥
निषंग चाप सायकं । धरं त्रिलोक नायकं ॥
दिनेश वंश मंडनं....महेश चाप...खंडनं....
---- धीरे धीरे स्वर व्यग्र हो चले थे...अधीर...व्याकुल....प्रवाह भी तेज...श्लोक के तन्मयता में हौले से हिल रहे शरीर की आविर्ती अचानक से बढ़ गई...अब तक वो चिल्लाने लगा था...उसके तेज और अनियंत्रित आवाज में कंपन भी थी ।
जो हाथों की हथेलियां स्तुति में जुड़ी हुई थी...अब अलग हो गईं थी...बिखरी हुईं अंगुलिया भींच के मुठी बन गई थी ।
आंखे लाल...चेहरे पर क्रूर, खा जाने वाले भाव ...बाल बिखरे से...आवेग में फटे कपड़े...नंगे पांव...एकदम खिन्न अस्त व्यस्त ।
मुनींद्र.....संत रंजनं ,सुरारि वृंद... भंजनं......
अब तो हाथ भी हरकत में आ गए...बिस्तर बने काठ की चौकी पर दमादम मुठी बरसने लगी...तांडव करने लगा वो...।
पर तूफान भी शांत होता ही है...धीरे धीरे उसका बल जाता रहा..थकता रहा..अचेत होता रहा...आवाज भी धीमी हो चली....सुस्त पड़ने लगा वो...
औऱ फिर...
"राम...राम...राम...राम...राम...हे राम......"
निढ़ाल हो गया वहीं ...नीचे ही ...छः फुट का बदन सिकुड़ सा गया...हाथ और पांव पेट से सट गये...और ये क्षणिक तूफ़ान भी शांत हो गया...भले कुछ पल के लिए ही सही ।
ये 'पागल' था...हाँ पागल...अपने घर के लिए पागल...मोहल्ले वालों के लिए पागल...समाज के लिए पागल... दुनिया के लिए पागल...छोटे बच्चों के लिए पागल...बूढ़े ,जवानों के लिए पागल...सबके लिए पागल...हाँ बस पागल ।
डरते थे सब उसकी 'पागलपन' से...न जाने कब वो विक्षिप्त हो जाये...कब हिंसक बन जाये ये पागल...कब चोट पहुँचा दे उन्हें...न इस पागल से कोई वास्ता रखना चाहता न कोई संबंध...अपने बच्चों को दूर रखते थे इस पागल के संपर्क में आने से...खुद भी दूर रहते थे...पीठ पीछे भी इस पागल की चर्चा करना गुनाह समझा जाता था ।
एक सुर से बस सब यहीं कहते थे...
"साया है पागल के माथे पर.....उसकी ही(.....) की..
उसकी रूह आती है पागल के बदन में"
।
।
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पागल के अचेत बदन में फिर से चेतना हुई...शरीर के अंग हरकत करने लगे...हाथ पैर पीटने लगा वो...फिर से कुछ बुदबुदाने लगा...आवाज भी तीव्र होती गई...फिर से वहीं खिन्नता वाली व्यग्र बातें...
"Gandhi Destroyed India... ruined the future of nation... sole responsible for 40 lacks countryman death in bloody partition...
गांधी ! तुम्हे मारना ही होगा...
जय हिंद...वन्दे मातरम...भारत माता की जय
...गांधी मुर्दाबाद...इंकलाब जिंदाबाद..."
वो फिर से हत्थे से उखड़ चुका था...सांसे दहक रही थी...आंखों में खून तैर रहा था...और बोली नहीं जैसे अंगार बरस रहे थे और फिर इस 'पागलपन' के तूफ़ां का अपने चरम पर जाना और....फिर शांत अचेत, निढ़ाल हो जाना ।
और हाँ...जब भी ये 'पागलपन' का आवेग आया तब लोगो ने महसूस किया था कि इस पागल की आवाज एकाएक बदल सी जाती है....जैसे इसके साथ कोई और भी बोल रहा हो..एकदम से डरावनी...विस्मयकारी ...
और इस पर ताज्जुब ये कि ये पागलपन बस हफ्ते में दो ही दिन आता था...एक मंगल और दूजा रविवार को !
आसपास के लोगो के लिए आश्चर्य मिश्रित भय बन गया था ये 'पागल' ।
पर ऐसा भी तो नही था कि ये पागल , पागल ही था...! ऐसा ही था हमेशा...! नहीं ! बिल्कुल नही !
पागल ...उन्नति से अवनति की जीती जागती दास्तां।
आज का ये पागल कल का हरीश था ।
बेहद सौम्य-शांत एवं मधुर व्यवहारिक व्यक्तिव का मालिक । प्रखर बुद्धि का स्वामी ।
आज जो लोग इस पागल से कटते हैं... वो कल तक हरीश के उद्धरण दिए फिरते थे ।
सत्य ही है ये
शिखर पर रहने वालों को सलामी मिलती है ।
हरीश के पिता जी काफी पहले गुजर चुके थे। माँ ने ही पढ़ाया लिखाया था...हरीश खुद भी समझदार था सो पढ़ाई के साथ साथ खेती में भी हाथ आजमाते रहता था ।
उसने धीरे धीरे धीरे पढ़ाई के साथ घर की भी जिम्मेदारी उठा ली और फिर स्नातक करने के पश्चात घर से दूर रहकर नौकरी करने लगा ।
इसी बीच विवाह के भी प्रस्ताव आये ।
दो भाई और एक बहन में श्रेष्ठ होने के नाते, माँ के इक्षानुसार हरीश ने एक रिश्ते के लिए हामी भर दी ।
और जल्द ही तय समय के अनुसार 'कावेरी' नामक युवती के साथ सात फेरे ले लिए ।
परिवार में प्रसन्नता के बादल छाए थे । हरीश समेत सब खुश थे कावेरी से ।
हो भी क्यों न ...कावेरी का आकर्षक रूप लावण्य बांध देता था सबको । फिर ऊपर से सुशील एवं कर्तव्य परायण ।
इधर हरीश की छुटियां बीत चुकी थी...मन तो न था पर उसे जाना ही था...परिवार की जिम्मेदारी जो थी...और अब तो पत्नी की जिम्मेदारी भी आन पड़ी थी...सुनहरे भविष्य के निर्माण हेतु वर्तमान कष्टकर तो होगा ही...वो चल पड़ा उस सफर पर जो उसके मंजिल तक ले जाती...वो मंजिल जिसकी डोर उसके परिवार से बंधी थी ।
विवाह को तीन साल हो चुके थे पर हरीश का अधिकतर समय घर से बाहर ही बीता था । हां एक खुशी भी आइ थी...प्यारी सी बिटिया के रूप में जो अब दो साल की हो चुकी थी ।
हरीश तो घर से दूर अपने सपनों को बुनने में लगा था पर नियति उसके साथ कुचक्र बुनने की तैयारी कर चुकी थी ।
हरीश का भाई जो कि जवानी की दहलीज पर खड़ा था, कावेरी के आकर्षण में फिसल गया ।
और फिर मजबूरी या जरूरी ,थोड़े बहुत प्रतिकार के बाद कावेरी भी भावनाकर्षण में बह गई । दोनों के कदम बहक गए और फिर वो हुआ जिसे हम अनैतिक और अवैध कहते हैं ।
इस दुष्कृत्य की भनक हरीश के माँ को लग गयी थी पर न जाने क्यों उन्होंने चुप रहना ही हितकर समझा । इशारों इशारों में खबर तो हरीश को भी लग चुकी थी । व्याकुल हो उठा था वो और तत्काल छूटी स्वीकृत करा घर चल पड़ा ।
हरीश के घर पहुँचते ही घृणा भरी नजरों से सवाल जवाब का सिलसिला शुरू हो चुका था और अंततः एक दिन हरीश ने कावेरी पर आवेग में आ हाथ भी छोड़ दिया । परिवार अशांत हो चुका था ।
इतना होने के बावजूद हरीश का भाई अब भी प्रयत्न में रहता ।
इधर कावेरी की एक गलती ने उसे दो पाटों के बीच पीसने को मजबूर कर दिया ।
एकतरफ हरीश का घृणा भरा क्रोध और दूसरी तरफ हरीश के भाई का दबाव एवं तीस पर इज्जत का उछल जाना ।
कावेरी ने प्रायश्चित करने का फैसला कर लिया था...!
जिस नश्वर शरीर के कारण कदम बहक गए थे...आज वो शरीर ही झूल रहा था...निर्जीव..नश्वर सा...विलीन हो गई माटी की देह माटी में ही ।
हरीश कभी बिलखती दो साल की बेटी को देखता तो कभी कावेरी के बंद आंखों को...जैसे बस अब कावेरी देख ले एक नजर !
कावेरी के गुजरने के बाद हरीश गुमसुम रहने लगा...वो टूट चुका था पूरी तरह...और फिर एक दिन...
"मनोज वैरि वंदितं, अजादि देव सेवितं।
विशुद्ध बोध विग्रहं, समस्त दूषणापहं ।।
है राम 'काम' का नाश करो....विलीन कर दो काम को इस संसार से...कामदेव का समूल विनाश करो राम...माया मोह से मुक्ति दे दो इस जगत को...आजाद कर दो मायावी बंधन से राम... सुन रहे हो राम...हे राम...राम...राम..राम"
हरीश आवेगीत हो चुका था...प्रवाह में तेज तेज स्वर निकालने लगा वो...अजीब सी आवाज थी ये...मुठी बंधे हाथ पीटने लगा वो दरवाजे पर जोर जोर से...पूरी तरह आपा खो चुका था...शायद 'पागल' हो चुका था वो...वो दिन मंगल का था ।
कहते हैं लोग कि 'पागल' अब दुनिया का इतिहास लिख रहा नए सिरे से...!
एक 'पागल' का 'पागलपन' ही तो है ।।
संदीप तिवारी 'अनगढ़'
"आरा"