संस्कृत भाषा की उपेक्षा से जूझ रहा संस्कृति महाविद्यालय, भविष्य संकट में

Update: 2025-07-18 08:32 GMT


आनन्द प्रकाश गुप्ता/के0के0 सक्सेना

बहराइच। जिले में शिक्षा और सांस्कृतिक चेतना का कभी प्रमुख केंद्र रहा संस्कृति महाविद्यालय आज उपेक्षा और अनदेखी का शिकार होकर अपनी ही छवि पर आँसू बहा रहा है। जिस महाविद्यालय ने कभी संस्कृत जैसी गौरवशाली भाषा को छात्रों के भविष्य से जोड़ा था, आज वह अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है।

देवभाषा को नहीं मिल रहा 'देव-सम्मान'

देश और प्रदेश में हिन्दू विचारधारा से जुड़ी सरकारें सत्तासीन हैं। उम्मीद थी कि संस्कृत, जिसे ‘देवभाषा’ कहा जाता है, उसे खोया हुआ सम्मान और व्यावहारिकता पुनः प्राप्त होगी। लेकिन स्थिति इससे उलट है। वर्षों पहले जो महाविद्यालय संस्कृत शिक्षा का गढ़ था, आज वहाँ छात्रों की संख्या में गिरावट, पाठ्यक्रमों की उपेक्षा और संसाधनों की कमी साफ देखी जा सकती है।

रोज़गार से न जुड़ने के कारण युवाओं का मोहभंग

युवा वर्ग आज संस्कृत को पढ़ने में रुचि नहीं दिखा रहा, जिसका मुख्य कारण यह है कि इस भाषा को रोज़गार से जोड़ने की कोई नीति सरकार के पास नहीं है। यह कटु सत्य है कि जब तक किसी विषय का सीधा संबंध आजीविका से न हो, तब तक उसमें युवाओं की भागीदारी भी सीमित रहती है।

वेद-पुराणों की भाषा, लेकिन वर्तमान में हाशिये पर

रामायण, महाभारत, उपनिषद और वेद जैसी भारत की सनातन धरोहरें संस्कृत में ही रचित हैं। इसके बावजूद आज की पीढ़ी इन ग्रंथों की मूल भाषा से अनभिज्ञ होती जा रही है। आश्चर्य इस बात का है कि देश की धार्मिक संस्कृति की आत्मा रही यह भाषा अपने ही देश में हाशिये पर खड़ी है।

उर्दू को बढ़ावा, संस्कृत की अनदेखी?

पूर्ववर्ती मुलायम सिंह सरकार ने उर्दू भाषा को बढ़ावा देने के लिए उर्दू अनुवादकों की सरकारी भर्तियाँ की थीं। यह प्रयास भाषा-संरक्षण की दिशा में सराहनीय रहा। इसके विपरीत, वर्तमान सरकारें जो ‘संस्कृति और सनातन मूल्यों’ की बात करती हैं, वे संस्कृत के लिए रोजगार सृजन के ठोस कदम उठाने में विफल रही हैं। न तो संस्कृत शिक्षकों की पर्याप्त भर्तियाँ हो रही हैं, न ही अनुवादकों या शोधकर्ताओं को कोई व्यावसायिक मंच दिया जा रहा है।

आवश्यक है ठोस नीति और आधुनिक दृष्टिकोण

विशेषज्ञों का मानना है कि यदि संस्कृत को आधुनिक तकनीक, शोध और अनुवाद के क्षेत्र में सक्रिय रूप से जोड़ा जाए, तो यह भाषा न केवल जीवित रहेगी बल्कि वैश्विक मंच पर पुनः सम्मान प्राप्त कर सकती है। इसके लिए जरूरी है कि सरकार इसे केवल धार्मिक भाषा मानने के बजाय, एक ज्ञान-विज्ञान की भाषा के रूप में पुनः स्थापित करे।

संस्कृत केवल एक भाषा नहीं, बल्कि भारत की आत्मा है। संस्कृति महाविद्यालय की दुर्दशा केवल एक संस्थान की पीड़ा नहीं, बल्कि एक सभ्यता के मौन विलाप की चेतावनी है। यदि आज ठोस कदम नहीं उठाए गए, तो भविष्य में संस्कृति और संस्कृत दोनों ही केवल संग्रहालयों और पुस्तकों तक सीमित रह जाएँगी।

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