मनरेगा का अस्तित्व खत्म कर रही भाजपा सरकार- अब गांधी जी को जिम्मेदारी से मुक्त कर रामजी के सहारे करेगी नैया पार
आशुतोष शुक्ला (लखनऊ)
जनता की आवाज
ग्रामीण भारत को रोजगार की गारंटी देने वाली केंद्र सरकार की महत्त्वाकांक्षी योजना महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) को लेकर केंद्र सरकार बड़े बदलाव की तैयारी में है। प्रस्तावित संशोधनों में जहां योजना का नाम बदलने की बात सामने आई है, वहीं इसके मूल स्वरूप और अधिकार आधारित ढांचे पर भी गंभीर प्रश्न खड़े हो रहे हैं।
प्रस्ताव के अनुसार, मनरेगा के अंतर्गत प्रत्येक अकुशल श्रमिक को एक वित्तीय वर्ष में मिलने वाले 100 दिन के रोजगार को बढ़ाकर 125 दिन किया जाएगा। हालांकि, आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि राष्ट्रीय स्तर पर श्रमिकों को औसतन मात्र 42.5 दिन का ही रोजगार मिल पाया है। ऐसे में रोजगार दिवस बढ़ाने की घोषणा को ज़मीनी हकीकत से दूर बताया जा रहा है।
आलोचकों का कहना है कि केंद्र में भाजपा सरकार के गठन के बाद से लगातार प्रत्येक वित्तीय वर्ष में मनरेगा के तहत मानव दिवस सृजन में गिरावट दर्ज की गई है। वहीं, पहले यह योजना श्रमिकों के लिए ‘राइट टू वर्क’ यानी काम का अधिकार थी, जिसके तहत पंजीकृत श्रमिक स्वयं रोजगार की मांग कर सकता था। नए प्रस्ताव में इस अधिकार को समाप्त करने की आशंका जताई जा रही है, क्योंकि अब रोजगार की उपलब्धता मांग के बजाय आवंटित लेबर बजट पर आधारित होगी।
वित्तीय ढांचे में भी बड़े बदलाव का प्रस्ताव है। अब तक मजदूरी भुगतान का भार केंद्र और राज्य सरकार 90:10 के अनुपात में वहन करती थीं, जिसे नए विधेयक में 60:40 करने की बात कही गई है। विशेषज्ञों का कहना है कि उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों की आर्थिक स्थिति पहले से ही गंभीर है, जहां वार्षिक बजट से कई गुना अधिक कर्ज है। ऐसे में अतिरिक्त वित्तीय बोझ राज्य सरकारें कैसे उठाएंगी, यह भविष्य के लिए चिंता का विषय है।
सबसे अधिक विवाद योजना के नाम परिवर्तन को लेकर है। प्रस्तावित नए नाम ‘VB-G RAM G’ को लेकर यह आरोप लगाया जा रहा है कि महात्मा गांधी के नाम को हटाकर योजना को वैचारिक दिशा देने का प्रयास किया जा रहा है। आलोचक इसे मूल समस्याओं से ध्यान भटकाने की रणनीति बता रहे हैं। उनका तर्क है कि केवल नाम बदल देने से व्यवस्था की खामियां दूर नहीं होतीं, जैसे गुड़गांव का नाम गुरुग्राम करने से वहां की प्रदूषण, जलजमाव, ट्रैफिक और कानून-व्यवस्था की समस्याएं समाप्त नहीं हुईं।
योजना से जुड़े भ्रष्टाचार के आरोपों पर भी तीखी प्रतिक्रिया सामने आ रही है। आलोचकों का कहना है कि जिन निचले स्तर के जनप्रतिनिधियों का आधिकारिक वार्षिक बजट कुछ करोड़ रुपये का होता है, वे एक कार्यकाल में ही सैकड़ों-हजारों करोड़ की संपत्ति के मालिक बन जाते हैं, लेकिन इस “आर्थिक उन्नति” का गणित कभी सार्वजनिक नहीं किया जाता। इसके विपरीत, 252 रुपये प्रतिदिन की मजदूरी—जो समय पर भी नहीं मिलती—को श्रमिकों की आर्थिक उन्नति का उदाहरण बताया जाता है।
सार्वजनिक विमर्श को लेकर भी सवाल उठाए जा रहे हैं। आरोप है कि सरकार से बुनियादी मुद्दों—जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा, बेरोजगारी और पर्यावरण—पर सवाल पूछने वालों को देशद्रोह या सांप्रदायिक बहसों में उलझा दिया जाता है। उदाहरण के तौर पर, दिल्ली के बढ़ते प्रदूषण को लेकर कहा जा रहा है कि समस्या के समाधान के बजाय नाम बदल देने जैसे प्रतीकात्मक कदम उठाए जा सकते हैं।
विशेषज्ञों और सामाजिक संगठनों का मानना है कि मूलभूत प्रश्नों को सांप्रदायिक रंग देकर सरकार अपनी जवाबदेही से बच रही है। उनके अनुसार, चुनाव जीतना ही यदि योग्यता का एकमात्र पैमाना बन जाए, तो नीतियों का उद्देश्य जनकल्याण से हटकर सत्ता संरक्षण तक सीमित हो जाता है। मनरेगा में प्रस्तावित बदलावों ने एक बार फिर इस बहस को तेज कर दिया है कि क्या यह योजना ग्रामीण गरीबों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए है या केवल कागज़ी सुधारों तक सिमटती जा रही है।