फिर एक कहानी और "नपुंसक"

Update: 2020-01-25 11:59 GMT

मृत्युशैया पर पड़े पड़े यमराज की प्रतीक्षा करते बृद्ध के मुँह से अवचेतन में एक ही पंक्ति बार बार निकल रही थी, "मैं नपुंसक नहीं था, मैं नपुंसक नहीं था..."

निकट बैठी उसकी पुत्री कभी उसका सर सहलाती, तो कभी उसके लिए ईश्वर से प्रार्थना करती। उस दस फ़ीट की छोटी सी कोठरी में मृत्यु की शांति उतर आई थी। किसी ने कहा, "इनको दो बूंद गंगाजल पिला दो शीला! अब शायद समय हो आया।"

शीला पास ही पड़ी अलमारी से चुपचाप गंगाजल की सीसी निकालने लगी...

प्रातः की बेला थी, श्रीमुख शांडिल्य गोत्रीयों की डीह कश्मीर में सूर्य आज भी प्रतिदिन की भांति मुस्कुरा कर उगा था। हिम की कश्मीरी शॉल ओढ़े पहाड़ों पर पड़ती किरणों की पवित्र आभा को देख कर लगता था, जैसे युगों पुराने सूर्य मंदिर को स्वयं सूर्य की किरणें प्रणाम करने उतरी हों। कुल मिला कर प्राचीन स्वर्ग में स्वर्गिक आभा पसरी हुई थी।

अचानक गाँव की मस्जिद के अजान वाले भोंपे से चेतावनी के स्वर गूंजे, "सभी हिंदुओं को आगाह किया जाता है कि अपनी सम्पति और महिलाओं को हमें दे कर आज ही कश्मीर छोड़ दें, वरना अपने अंजाम के जिम्मेवार वे खुद होंगे।"

राजेन्द्र कौल की इकलौती बेटी शीला अपनी कोई पुस्तक ढूंढ रही थी, कि ये स्वर उसके कानों को जलाते हुए घुसे। वह आश्चर्यचकित हो कर मस्जिद को निहारने लगी। उसके अंदर मस्जिद के प्रति भी उतनी ही श्रद्धा थी जितनी मन्दिर के प्रति थी। मस्जिद से आती ध्वनि सदैव उसे ईश्वर की ध्वनि प्रतीत होती थी। वह समझ नहीं पायी कि एकाएक भोंपू ऐसी भाषा कैसे बोलने लगा। वह अभी सोच ही रही थी, कि धड़धड़ाते हुए राजेन्द्र कौल घर मे घुसे और पागलों की तरह चीखते हुए बोले, "बेटा अपना सामान समेटो, हमें शीघ्र ही यहाँ से जाना होगा।"

शीला ने आश्चर्यचकित हो कर कहा- कहाँ पिताजी?

राजेन्द्र कौल ने हड़बड़ाहट में ही कहा, "ईश्वर जाने कहाँ! पर यह स्थान हमें शीघ्र ही छोड़ना होगा।"

- किन्तु यह हमारा घर है पिताजी! हम अपना घर छोड़ कर कहाँ जाएंगे?

-ज्यादा प्रश्न मत कर बेटी! हम जीवित रहे तो पुनः अपने घर आ जाएंगे, पर अभी यहां से जाना ही होगा। सारे मुसलमान हमारे दुश्मन बने हुए है, वे कुछ भी कर सकते हैं।

-किन्तु पिताजी, हम आजाद देश मे रहते हैं। हम इतना क्यों डर रहे हैं? यहां कोई व्यक्ति किसी अन्य को अकारण ही कष्ट कैसे दे सकता है?

- यह मस्जिद का ऐलान नहीं सुन रही हो? वे लोकतंत्र के मुँह में पेशाब कर रहे हैं। व्यर्थ समय न गँवाओ, अपने सामान समेटो।

- पर पिताजी, हम तो वर्षों से साथ रह रहे हैं। और यह तो धर्मनिरपेक्ष देश है न?

- व्यर्थ बात मत कर बेटा, धर्मनिरपेक्षता इस युग का सबसे फर्जी शब्द है। कश्मीर ने आज इस शब्द की सच्चाई जान ली, शेष भारत भी अगले पचास वर्षों में जान जाएगा।

शीला अब और प्रश्न न कर सकी, क्योंकि राजेन्द्र कौल पागलों की तरह इधर उधर से उठा-पटक कर समान की गठरी बनाने लगे थे।

घण्टे भर में राजेंद्र कौल और उनकी पत्नी ने ले जाने लायक कुछ महंगे सामानों की गठरी बनाई, और शीला का हाथ पकड़ कर जबरदस्ती खींचते हुए बाहर निकले। शीला के पास कोई गठरी नहीं थी। वह समझ ही नहीं पाई कि इतने बड़े घर से वह क्या ले जाये और क्या छोड़े।

राजेन्द्र कौल ने द्वार पर खड़ी अपनी खुली कार में गठरी फेंकी, पत्नी और बेटी को लगभग धकियाते हुए बैठाया, और गाड़ी स्टार्ट कर बाहर निकले। गाड़ी घर की चारदीवारी के बाहर निकली तो राजेन्द्र ने देखा, बाहर बीसों मुश्लिम युवक खड़े ठहाके लगा रहे थे। एक ने छेड़ते हुए कहा- कौल साब! जा रहे हैं तो समान ले कर क्यों जा रहे हैं, यह गठरी हमें देते जाइये।

राजेन्द्र कौल सर झुका कर चुपचाप गाड़ी बढ़ाते रहे। बाहर खड़ी भीड़ में कोई ऐसा नहीं था, जिसकी अनेकों बार राजेन्द्र कौल ने सहायता न की हो। अचानक किसी ने शीला का दुपट्टा खींचा, उसने मुड़ कर देखा तो आंखे जैसे फट गयीं। उसने दुप्पटे को खींचते हुए कहा- रहीम भाई आप?

रहीम ने झिड़क कर कहा- अबे चुप! मैं तेरा कैसा भाई? तू हिन्दू मैं मुसलमान।

राजेन्द्र कौल ने तेजी से गाड़ी बढ़ा दी, शीला का दुपट्टा रहीम के हाथ मे ही चला गया। उसने पीछे से ठहाका लगाते हुए कहा- अरे कौल साब! अपनी बेटी को तो हमें दे जाइये, वह आपके किस काम की...

शीला रो पड़ी थी। वह बचपन से ही रहीम को राखी बांधती आयी थी, और आज पल भर में ही रहीम ने... उसने पीछे मुड़ कर देखा, महलों जैसा उसका घर पीछे छूट रहा था।

राजेन्द्र कौल चुपचाप गाड़ी भगाते जम्मू की ओर निकल पड़े।

गांव के बाहर निकलने पर शीला ने कहा- पिताजी! आपको नहीं लगता कि आप नपुंसक हैं?

राजेन्द्र कौल कोई उत्तर नहीं दे सके।

पच्चीस वर्ष बीत गए। महल जैसे घर में रहने वाले राजेन्द्र कौल का जीवन किराए की एक कोठरी में कट गया, पर वे कभी अपने गांव नहीं लौट सके। वे जब भी शीला को देखते तो उन्हें लगता कि शीला की आंखे उनसे पूछ रही हैं- "क्या यही जीवन जीने के लिए भागे थे पिताजी? इससे अच्छा तो लड़ कर मर गए होते।"

इन पच्चीस वर्षों में शीला का ब्याह हुआ और समय के साथ उतनी पत्नी का देहांत भी हो गया, पर राजेन्द्र कौल जलते ही रहे।

शीला ने पिता के मुह में गंगाजल की दो बूंदे डाली, और दो बूंदे उसकी आँखों से टपक पड़ी। उसने मन ही मन कहा- क्या कहूँ पिताजी, थे तो सब नपुंसक ही...

राजेन्द्र कौल अंतिम बार बुदबुदाए- मैं.... नपुंसक.... पर इससे अधिक न बोल सके। यमराज अपना कार्य कर चुके थे।

सर्वेश तिवारी श्रीमुख

गोपालगंज, बिहार।

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