हाल ही में असम के लोगों को बांग्लादेश से आने वाले अवैध प्रवासियों से राहत दिलाने के लिए भारतीय नागरिकता कानून में बदलाव किया गया।लेकिन विडंबना यह है कि समाज के एक तबके ने इसके खिलाफ नया नया आंदोलन शुरू कर दिया।ये लोग नागरिकता कानून संशोधन कानून(सीएए)का विरोध कर रहे है, क्यो कि उन्हें आशंका है कि इससे सीमा पार से आने वाले आप्रवासियों द्वारा असम की संस्कृति को नष्ट कर दिया जाएगा।वे चाहते हैं कि 24मार्च 1971के बाद असम आए सभी प्रवासियों को राज्य से बाहर निकाला जाए।ऐसा करना लगभग असंभव है क्योंकि 1985में केंद्र सरकार और प्रदर्शनकारियों के बीच हुए असम समझौते के बाद राज्य की स्थिति नाटकीय ढंग से बदल गई।
असम समझौते पर हस्ताक्षर के बाद बांग्लादेश के अवैध आप्रवासियों के खिलाफ आंदोलन करने वाले राज्य में शांति स्थापित हुई।लेकिन दुर्भाग्य से समझौता होते ही बांग्लादेशी घुसपैठियो को रोकने के लिए बहुत कुछ नही किया गया।स्थिति तब और बदतर हुई,जब1990में बांग्लादेश में बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी(बीएनपी)सत्ता में आई।यह पार्टी बांग्लादेश के अल्पसंख्यकों के प्रति काफी शत्रुतापूर्ण व्यवहार करती थी। इस दौरान बांग्लादेश में इस्लामिक चरमपंथ का उभार भी देखा गया।
इसने बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों के जीवन को दूभर बना दिया और भारी संख्या में वहा के लोग भारत आ गए।
इस स्थिति में तब कुछ सुधार हुआ,जब 1996में शेख हसीना के नेतृत्व में अवामी लीग सत्ता में आई।
हालांकि अपने पहले कार्यकाल में हसीना ने अल्पसंख्यकों के लिए बहुत कुछ नही किया।भारत की कमजोर केंद्र सरकार ने भी इस मुद्दे को प्रभावी ढंग से नही उठाया।बल्कि यह कहना भी गलत नही होगा कि अतीत में भारत सरकार की केंद्र सरकारों के एजेंडे में अल्पसंख्यकों पर अत्याचार और बांग्लादेश से अवैध प्रवास का मुद्दा कभी प्राथमिकता में नही रहा।इसमे बांग्लादेश से पलायन बढ़ा और इसके चलते असम में बांग्लादेश से आए हिंदू प्रवासियों की संख्या बढ़ी।
सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी)केवल असम में ही तैयार किया गया।31अगस्त 2019को एनआरसी अपटेड किए जाने से इसकी चुनौतियां खत्म हो गई।लेकिन करीब 19लाख नागरिक इस नागरिकता रजिस्टर में स्थान पाने से वंचित रह गए,जिसमें 10लाख से अधिक हिंदू है।ये ऐसे लोग है,जो बांग्लादेश में धार्मिक उत्पीड़न से परेशान होकर कठिन परिस्थितियों में असम आए।अगर केंद्र सरकार उन्हें वापस भेजने की कोशिश करती है या उन्हें भारत में देशविहीन बनाकर छोड़ देती है तो इससे नई समस्याए पैदा होंगी।इन्हीं चुनौतियों से निपटने के लिए नागरिकता कानून में संशोधन किया गया है।इसके अलावा,यह उन गैर मुस्लिम अल्पसंख्यकों की भी मदद करेगा,जो पाकिस्तान और अफगानिस्तान जैसे मुस्लिम बहुल देशों से भागकर आए है।
यह तर्क देना बेकार है कि सीएए भारतीय संविधान और धर्मनिरपेक्षता की भावना के खिलाफ है।जो लोग ऐसा कह रहे है,उन्हें दक्षिण एशिया के इतिहास पर नजर डालनी चाहिए और देखना चाहिए कि इस क्षेत्र में कैसे राष्ट्रों का गठन हुआ है।
पाकिस्तान का गठन मुस्लिमों की मातृभूमि के रूप में हुआ,क्यो कि जिन्ना और उनकी पार्टी मुस्लिम लीग ने तर्क दिया था कि मुस्लिम और हिंदू दो राष्ट्र हैं।जिन्ना ने यह भी कहा था कि हिंदू बहुल भारत में मुसलमान सुरक्षित नही रहेंगे।
अगर ऐसा है,तो किसी मुस्लिम को उसकी मातृभूमि पाकिस्तान या बांग्लादेश में कैसे सताया जा सकता है।और अगर वे वहां प्रताड़ित होते है तो,क्यों उन्होंने पाकिस्तान को अपनी मातृभूमि के रूप में चुना।सीएए के कुछ आलोचक कहते है कि अहमदिया मुस्लिमों पर पाकिस्तान में अत्याचार होता है।पर दिलचस्प बात यह है कि अहमदिया मुस्लिमों ने पाकिस्तान के निर्माण में जिन्ना का समर्थन किया था।अब अगर वे वहां सताए जाते है तो उन्हें अपने फैसले का नतीजा भुगतना चाहिए।
पूर्व की केंद्र सरकारों की लापरवाही के कारण बांग्लादेश से आने वाले अवैध प्रवासियों का मुद्दा जटिल हो गया है।इससे घुसपैठियो की संख्या में भारी बढ़ोतरी हुई,जो अब पूरे भारत में फैल गए है।असम,मेघालय,त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल को बांग्लादेश का सीमावर्ती राज्य होने के कारण खामियाजा भुगतना पड़ रहा है।
यह बेहद हैरान करने वाली बात है कि असम,मेघालय और त्रिपुरा के लोग इन राज्यों की बदलती जनसांख्यिकी से चिंतित है।
हालांकि उन्हें समझना चाहिए कि भारत की अदालतें(सुप्रीम कोर्ट भी)और केंद्र सरकार गंभीर है और अवैध प्रवास के मुद्दे से निपटने के लिए मिलकर काम रही हैं।जो लोग अवैध प्रवास की समस्या का हल नही होने देना चाहते हैं,वे झूठ फैल रहे है कि सीएए से बड़े पैमाने पर बांग्लादेश से घुसपैठ बढ़ेगा और असमी लोगों को उखाड़ फेंका जाएगा।
आजादी के बाद से जिन राजनीतिक पार्टियों ने अवैध प्रवास को रोकने के लिए कुछ नही किया,वे अब असमी भाषा और संस्कृति बचाने की बातें कर रही हैं।जाहिर है,उनका इरादा कुछ और है।वे सिर्फ राजनीतिक और चुनावी लाभ लेने के लिए इस प्रक्रिया को अवर में लटकाना चाहते है।उनका यह भी तर्क कि वे नही चाहते कि असम को नागपुर से चलाया जाए।लेकिन अगर बांग्लादेशसे अवैध प्रवास जारी रहा, तो यह असम में इस्लामिक शासन के लिए एक नुस्खा होगा।
अवैध प्रवास का मुद्दा अतीत में राजनीति फुटबॉल बनकर रह गया है।यह ऐसा महत्वपूर्ण समय है जब भारत की राजनीतिक पार्टियां अपने अल्पकालिक राजनीतिक व चुनावी लाभ के आधार पर काम करना बंद कर दें।केंद्र सरकार ने पहले ही हिंदू प्रवासियों के लिए भी कटऑफ तिथि 31दिसम्बर 2014घोषित कर दी है।ऐसे में अधिकारियों के साथ सहयोग करना ही प्रभावित पूर्व के राज्यों के हित में हैं।अगर किसी भी कारण इस समय एनआरसी और एनपीआर की कवायद को रोका गया,तो भविष्य में अवैध प्रवास के मुद्दे का कोई समाधान नहीं होगा।