शून्य मन्दिर में बनूँगी आज मैं प्रतिमा तुम्हारी!

Update: 2018-02-20 05:03 GMT
आकाश अपनी क्लास का बैकबेंचर था। पीछे बैठता और उसका ध्रुवतारा होती मेघा की हेयरक्लिप। बचपन से एक दूसरे के साथ थे, मगर थे उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव-से। मेघा को संस्कृत भाती तो आकाश को इंग्लिश, उसे बालू में पड़े शंख प्रिय थे और आकाश को शोरूम्स में लगे एंटिक। ठीक उसी तरह, मेघा ने चुना था कॉमर्स और आकाश ने साइंस। हालाँकि गणित की कक्षाएँ साथ ही लगती थीं। तो बस, उस चालीस मिनट में आकाश का काम था : "नज़रों की त्रिकोणमिति"। वो देखता रहता कि आँखों से कितने कोण पर है मेघा, कैसा त्रिभुज बन रहा है।

और इसी सब में क़रीब क़रीब आधी ग्यारहवीं कक्षा बीत गयी।

आकाश की बातें, मेघा के लिए पहेली थीं। जबकि दोनों बेस्ट फ़्रेंड्स थे, फिर भी हर बात का अंत आकाश की ख़ामोशी से हो जाता।

"आकाश, तुम सच में मेरी क्लिप देखते रहते हो?"
इसके उत्तर में आकाश ने मुस्कुरा कर कहा : "बताऊँगा कभी!"

और फिर दूसरे दिन एक ख़र्रा थमा दिया मेघा को। सख़्त हिदायत थी कि इसे अकेले में पढ़ा जाए, तो मेघा ने रात को ग्यारह के बाद सबके सोने की तसल्ली के बाद उसे खोला।

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सुनो, "श" को "स" बोलने वाली,

मैं पहला नहीं हूँ, जो इस तरह का पत्र लिख रहा है। सदियों से ये सिलसिला जारी है और बस इसमें एक कड़ी जोड रहा हूँ मैं।

पत्र का उद्देश्य है कि मैं तुमसे पूछना चाहूँगा : क्या तुम आकाश की मेघा बनोगी? आच्छादित कर पाओगी मुझे? मेरी भावनाओं को धरती तक ले जाओगी बूँदों से? क्या तुम बनोगी आकाश की मेघा?

मैं बनूँगा लॉर्ड बायरन, क्या तुम मेरी एनाबेला बनोगी? ग़र मैं बना रूपर्ट ब्रुक तो मेरी नोएल बनोगी? मैं धरूँगा रॉबर्ट ब्राउनिंग का रूप और तुम एलिज़ाबेथ बैरेट। मैं टेनिसन, तुम ऐमिली और मैं ज़ोन रस्किन, तुम ईफ़ी ग्रे। अगली सदी में कभी मेरा नाम होगा शैले और तुम्हारा हैरियट, अगर हुआ जॉर्ज बर्नार्ड शॉ तब स्टेला होगी तुम। कीट्स की फेनी बनोगी या बनोगी गेटे की वल्पचुअस। मार्ग्रेट-सी लगती हो तुम, वॉल्टर स्कॉट बना तो स्वीकारोगी अगली सदी में? लगती हैं तुम्हारी ज़ुल्फ़ें लीडिया सी, चेखव बनना होगा मुझे।

और मैं लिखूँगा इतनी कविताएँ तुम पर कि उन अल्फ़ाज़ों से एक प्रकाशवर्ष लंबी पंक्ति बनेगी।

मैं बनूँगा माइकल फ़ैराडे, और लिखूँगा तुम्हें कि सैराह! मैंने उस बल की खोज कर ली है तुम्हारे हमारे बीच। ऐवा! मैं डार्विन हूँ... और आई ऐम द फिटेस्ट फ़ॉर लव। क्या तुम बनोगी मेरी सापेक्षता की प्रेरणा... मेरी विक्टोरिया बनोगी मेघा? डोबेरा रीड बनोगी, जिसकी आँखों की चमक पर अन्वेषणा करते रहे बेंजामिन फ़्रेंकलिन।

और तुम पर लिखे सूत्र, दिशा देंगे आधुनिक भैतिकी को। कभी जो मिले एक और सदी तो आकाश की मेघा बनोगी तुम? जियोगी उस अमर कल्पना को जो की थी बीथोवेन ने, जिसे ढूँढा था अपने संगीत में। मैं बनूँगा रूसो, क्या तुम मेरी मरचेल बनोगी?

पत्र से जानना चाहता हूँ, क्या रूज़वेल्ट को स्वीकारोगी बनी बनकर? मैं बनूँगा नेपोलियन, तुम जोसाफ़िन बनोगी या बनोगी डिज़ायरी? तुम एवा ब्राउन को जियोगी या बनोगी कैली, क्या पता अगली सदी में मैं बन जाऊँ हिटलर या चर्चिल।

मेघा, क्या तुम आकाश की बनोगी?

आख़िरी कड़ी भी नहीं ये, आगे भी आएँगे पत्र लिखने वाले... ये सिलसिला यूँ ही चलेगा हमारे प्यार की तरह... समय के अंत तक।

सिर्फ़ तुम्हारा
आकाश।
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मेघा सन्न रह गयी। ख़ुश भी ना हो सकी अपने दिल की बातें उस पत्र में पढ़ कर और बस सोचती रही : "ये आकाश किस दुनिया का है? पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ऐसे लड़के होते हैं? क्या इतनी कठिन तरह से कहते हैं? क्या सीधे सीधे नहीं कह सकता था?"

इन्हीं सब ख़यालों में मेघा को नींद ने अपने आग़ोश में ले लिया। सुबह माँ की आवाज़ कानों में आयी : "बिट्टू! ओ बिट्टू, जाग जा बेटा, स्कूल नहीं जाना क्या?"

"जाना है माँ!", कहकर मेघा उठी। आधा घंटे में तैयार होकर अपनी लाल रंग की साइकल से स्कूल पहुँच गयी और एक बार फिर उसकी क्लिप बन गयी आकाश का ध्रुवतारा। आकाश प्रतिपल प्रतीक्षा कर रहा था कि कुछ कहे मेघा, मगर मेघा तो जैसे बर्फ़ की नदी बन गयी थी, ना आकाश से बोलती और ना उसकी ओर देखती, बस आँखों में उदासी लिए निर्विकार सी रहती।

और इसी तरह आ गया बारहवीं का अंतिम पेपर, मैथ्स का पेपर। परीक्षा के बाद निकलते हुए एक आवाज़ ने आकाश को रोका, वो मेघा थी।

"आकाश! ये तुम्हारे लिए, याद से पढ़ लेना।" ,कहकर मेघा ने एक काग़ज़ उसकी जेब में रख दिया और आगे बढ़ गयी। इंतज़ार करने की कोई वजह नहीं, इसलिए आकाश ने वहीं खोल लिया वो काग़ज़ और एक सूखा गुलाब उसके पैरों में गिर गया। पढ़ना शुरू किया तो उसके चेहरे के भाव बदलते गये और फिर गुलाब उठा कर, दिल से लगा कर आकाश ने अपना रास्ता लिया।

ना जाने क्या था उस पत्र में, शाम ढलते ही आकाश अपने शहर की प्रसिद्ध धार्मिक पुस्तक भंडार "खंडेलवाल बुक्स" पर पहुँचा और भारी मात्रा में संस्कृत साहित्य ले लिया। साथ में लिया एक संस्कृत-इंग्लिश शब्दकोश। घर पहुँचा तो पिताजी ने नए ख़रीदे नॉवल्स के बारे में जानना चाहा, लेकिन टाल कर अपने कमरे में चला गया।

अब शुरू हुयी एक इंग्लिश प्रेमी की संस्कृत यात्रा। कुछ माह बाद आकाश को बी.टेक में प्रवेश मिला। पिताजी का बहुप्रतीक्षित स्वप्न पूर्ण हो रहा था किंतु वे सर्वाधिक इस बात से प्रसन्न थे कि उनका बेटा अपने साथ उन इंग्लिश नॉवल्स को नहीं ले जा रहा, जिन्हें वो बर्बादी का कारण मानते थे। उनका वश चलता तो पूरे देश में इंग्लिश नॉवल बंद करवा देते किंतु अब ऐसा कोई इरादा नहीं था, चूँकि उन्हें विश्वास हो गया था कि उनका बेटा अब इस आभासी दुनिया से बाहर आ गया है।

आकाश की संस्कृत यात्रा और बी.टेक की पढ़ाई, लगातार समांतर चलती रही। और हर रोज़ चलता रहा उस पत्र का पाठ, जो तीस मार्च दो हज़ार ग्यारह को दिया था मेघा ने। हर रोज़ उन अर्थों को ग्रहण करने में असमर्थ पाता ख़ुद को, और हर रोज़ नए प्रयासों की योजना बनाता हुआ सो जाता।

और इसी प्रकार चार साल बीत गये। जॉब ज्वाइन करने के क़रीब दो माह बाद, आकाश को लगा कि आज वो समय आ गया है जब मेघा को फ़ोन किया जाए। फ़ोन से पहले एक बार और उस पत्र को पढ़ने की इच्छा जागृत हुयी दिल में, और फिर से खुल गया।

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प्रिय आकाश,

तुम्हारा पत्र पाकर, बहुत ख़ुशी हुयी थी। मगर सब उत्साह तुम्हारी भाषा ने धो दिया। तुमने क्या कहा, वो शब्द तो मेरी समझ से बाहर हैं किंतु इतना अवश्य समझी कि तुम सिर्फ़ मेरे हो और इस सदी मेरे ही रहोगे। मगर मैं चाहती हूँ कि तुम वो सब ना बनो जो तुमने उस पत्र में बनने इच्छा ज़ाहिर की। मैं आकाश की मेघा तो बचपन से हूँ ही, मगर गेटे की वल्पचुअस, कीट्स कि फेनी, बायरन की एनाबेला और शैले की हैरियट नहीं बनूँगी।

तुम अगर बन सकते हो तो ऋषि अगस्त्य बनो, मैं तुम्हारी लोपामुद्रा बनूँगी। तुम याज्ञवल्क्य बनो आकाश, मैं बनूँगी तुम्हारी मैत्रेयी, तुम्हारी गार्गी।

तुम बनो कालिदास तो मैं बनूँगी विद्योत्तमा, तुम दुष्यंत बनो और मैं शकुन्तला, तुम अग्निमित्र बनो और मैं मालविका। मैं बाण की कादम्बरी बनूँगी, बनूँगी यक्ष की प्रेमिका।

हो सके तुम बनाना समुद्रगुप्त, मैं तुम्हारी तलवार बनूँगी। तुमने लिखा था ना कि तुम नेपोलियन बनना चाहते हो और मैं बनूँ जोसाफ़िन या डिज़ायरी... तो उसका उत्तर है : "ना!"

ना तो मैं जोसाफ़िन बनकर तुमसे बेवफ़ाई कर सकती और ना डिज़ायरी बनकर तुम्हारी हार का कारण बनूँगी.... मैं बनूँगी तुम्हारी तलवार, तुम्हारी शक्ति, तुम्हारा जुनून।

काश कि तुम मुझसे पूछो : "विजय से फूल, बनोगी तुम जन उर का हार?" तो मैं अवश्य "हाँ" कहूँगी। मैं सदा तुम्हारी हूँ आकाश। तुम बनो तो सही विश्वामित्र, मैं ख़ुद मेनका बन कर आऊँगी, कभी ना जुदा होने के लिए।

जानती हूँ तुम बी.टेक करोगे और मैं सम्पूर्णानन्द विश्वविद्यालय में प्रवेश ले रही हूँ, बी॰ए॰ संस्कृत में। और तुम्हारा पत्र उसी दिन जला दिया था मैंने, और उसकी राख मिली मिट्टी में उगा है ये गुलाब, जाते वक़्त इसको उठा लेना।

तुम्हारा इंतज़ार रहेगा, इस सदी।

सिर्फ़ तुम्हारी
मेघा शुक्ला।
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फ़ोन की रिंग ऑफ़ हो गयी और आकाश बोला : "हैलो!"
"हैलो, कौन बात कर रहे हैं!" ,वही सुकोमल आवाज़।

"अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च।"
"साढ़े ग्यारह हो रहे हैं। ये हास परिहास का वक़्त नहीं। शीघ्र कहिए, कौन बात कर रहे हैं।"

"मेघा! मैं आकाश बोल रहा हूँ।"
"आकाश! तुम?" ,कैसी कशिश थी उस आवाज़ में ये शब्दों से ज़ाहिर करना मुश्किल है।

"मेघा! जब से जाना है कि तुम पूर्वांचल की हो, सच में बाबा तुलसी के ख़ूबसूरत दोहों सी लगती हो।"
"और तुम लगते हो त्रिभंग छंद से, कठोर, कठिन और उग्र। क्या तुम पागल ही हो, जो मेरी मेघा मेरी मेघा कहते कहते बिलकुल ही भूल गये।"

"मेघा! तुम्हारे लायक बना रहा था ख़ुद को!"
"अच्छा! और मेरी शास्त्री पूरी हो गयी, आजकल व्याकरण से आचार्य कर रही हूँ। क्या अब भी प्यार करते हो इस पुरानी सोच की लड़की से, संस्कृत की विद्यार्थी से?"

"हाँ मेघा! आकाश आज भी तुमसे प्यार करता है। मैं बनूँगा घास का तिनका, तुम ओस की बूँद बनोगी?"
"शून्य मन्दिर में बनूँगी आज मैं प्रतिमा तुम्हारी!"

"मैं बनूँगा शिव, क्या तुम मेरी पार्वती बनोगी?"
"शून्य मन्दिर में बनूँगी आज मैं प्रतिमा तुम्हारी!"

"आकाश! मैं तुम्हारी मेघा बनूँगी!"

दोनों में मिलने का वादा हुआ और फ़ोन कटने की टूँ... टूँ... टूँ

Yogi Anurag
मथुरा, उत्तर प्रदेश

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