कभी-कभी मौसम भी मन बदल देता है। लगातार रुकती, ठहरती, बरसती बारिश जब दिन में हो रही हो तो आह्लाद से भर देती है, पर इतनी रात में वही बारिश विक्षोभ पैदा करती है। इसे और घनीभूत बनाती है झींगुरों की अनवरत आती आवाज, साथ ही धीमी आवाज में चलने वाला पंखा।
ऐसे में सारी नकारात्मकता हावी हो जाती है और बरबस कुछ लोगों की याद आ जाती है।
कमल नाम के उस लड़के ने जब पहली बार मुझसे हाथ मिलाया था तो जैसे दिल में ही बस गया था। जाने क्यों मेरी दोस्ती बदमाश लड़कों से जल्दी हो जाती है। शायद इसलिए भी कि वे बनावटी नहीं होते। अपने बदमाश बेटे से तंग आकर परेशान मां ने उसे अपने दबंग भाई के पास भेज दिया था हाईस्कूल के बाद।
इसका ये हाल था कि मुलाकात के दूसरे ही दिन सुना कि स्कूल के पीछे कुछ लड़कों ने इसे घेर लिया है, कोई पुराना हिसाब चुकाना था उन्हें। स्वभाववश मैंने वहां उसकी मदद की और बिना किसी झमेले के उसे वहां से सकुशल ले आया। ये थी हमारी दोस्ती की शुरुआत। ये भी कमाल ही था कि जिस लड़के से उसे बचाया था, उससे भी हमेशा सम्मानजनक दुआसलाम होती रही, कुछ दिनों बाद उसने आर्मी ज्वाइन कर ली।
इधर कमल और मैं जिगरी टाइप बन गए थे। साथ में अन्य मित्र भी बने, पर इससे कुछ अधिक ही लगाव था। इतना कि सालों बाद जब पहली बार किसी से प्यार हुआ तो सबसे पहले मैंने इसे ही बताया, जबकि तब हमारे बीच 800 किलोमीटर का फासला था।
कई सारी अच्छी-बुरी आदतें हममें कॉमन थी। हम एक ही पैकेट से गुटका शेयर करते, एक ही सिगरेट को बारी बारी पीते, क्लास साथ में बंग मारते, छिछोरही नहीं करते।
खासियत मेरे दोस्तों में थी या मेरे मम्मी-पापा में, कभी समझ नहीं आया। क्योंकि मेरे हर अच्छे दोस्त की पापा-मम्मी से खूब पटती। ये और जोशी रोज सुबह मेरे घर आ जाते और मम्मी बड़े प्यार से, अपने घर से ठूंस कर आये इन भुक्खड़ों को खिलाती, फिर मेरा नंबर आता। कभी-कभी तो जल्दीबाजी में ये मेरी ही थाली चट कर जाते और मुझे मुश्किल से एक-दो लुकमें नसीब होते।
कमल की हर बदमाशियों में मेरा बराबर का हिस्सा होता, पर उसका स्तर कुछ अधिक ही ऊंचा था। उसे घर से भागने का बड़ा शौक था। पहली बार जब भागा तो घर से खूब पैसे लेकर गया, मुम्बई में ऐश की, पैसे खत्म हुए तो पंजाब में आकर किसी सेठ की नौकरी की, फिर अंत में वापस आ गया। और जैसे कुछ हुआ ही ना हो, चार दिन में ही सब नॉर्मल।
छह महीने बाद फिर इसका मूड बना। सुबह से ही विचलित था और दोपहर तक मेरे सामने उसने ऐलान कर दिया कि अब वो और ज़ुल्मोंसितम नहीं सहेगा, आखिरी उपाय बस घर से भागना ही है। हालांकि ना वो कभी समझा पाया, ना मुझे समझ आया कि वो ज़ुल्मोंसितम आखिर थे क्या। मैं उस पूरी शाम उसके साथ था, समझाता रहा पर आखिरकार उसे पहाड़ उतरती बस में बैठा कर विदा कर दिया। कमबख्त से जाने क्यों इतना प्यार करता था कि जेब में जो कुछ था, सब उसे दे दिया।
अगली बार (ये अंतिम बार था) फिर इसका भागने का मूड बना, तारीख याद है क्योंकि उस दिन मैं अपने शरीफ दोस्तों के साथ अपनी एक बैचमेट के घर उसके जन्मदिन पर आमंत्रित था (दरअसल मैं हर ग्रुप में खप जाता हूँ)। मुझे कमल ने बता दिया था कि वो आज भागने वाला है, इस बार उसकी इस एडवेंचरस ट्रिप पर 2 लड़के और जाने वाले थे। पार्टी में मौजूद मेरे एक खास दोस्त का खास दोस्त भी था उन लड़कों में। कई बार मन आया कि उसे बता दूं, पर ये तो विश्वास का हनन हो जाता ना।
कमल सहित कुल तीन लड़के भागने वाले थे, पर जा सके केवल दो। क्योंकि प्लान के मुताबिक तीसरा लड़का अपने पिता के फर्जी साइन के सहारे बैंक से पैसे निकालते समय पकड़ा गया था। एक से बढ़कर एक करामाती थे हम।
जब-जब भी कमल शहर छोड़कर भागा, जाने क्यों मैंने उसके गुटके-सिगरेट का उधार चुकाया। शायद प्रकारांतर से उसकी मदद कर रहा था या उस बेचारे दुकानदार के पैसे ना डूबे, इसका ख्याल रहा हो।
अस्तु, बारहवीं के बाद मैं बनारस चला गया और वो अपने शहर। उसके कई सालों बाद उससे मुलाकात हुई, दोस्ती फिर से हरी-भरी हुई।
एक बार उसका फोन आया, घबराया-हड़बड़ाया सा था बहुत। अपने कार्यालय में कुछ गबन कर दिया था, नौकरी पर बन आई थी। तुरन्त पांच हजार रुपयों की जरूरत थी, जिन्हें मैंने बिना कोई दूसरा विचार मन में लाए दस मिनट के अंदर उसके खाते में जमा करा दिए।
आज करीब छह साल हो गए। बरसों की दोस्ती और ...
इन पांच हजार रुपयों ने मुझसे मेरा दोस्त छीन लिया।
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अजीत प्रताप सिंह
बनारस