ब्राह्मणों को रिझाने का ये रहा अखिलेश का 'सुदामा' कार्ड

राजनीतिक विश्लेषक अखिलेश की इस रणनीति के पीछे यूपी की राजनीति में ब्राह्मणों की अहमियत को बड़ा आधार मानते हैं. दरअसल उत्तर प्रदेश की राजनीति में ब्राह्मण को डिसाइडिंग शिफ्टिंग वोट कहा जाता है. कारण ये है कि ब्राह्मण मतदाता को लेकर यहां कोई भी दल आज तक खुशफहमी नहीं पाल सका है कि ये वोट बैंक उसका है.

Update: 2018-03-29 10:15 GMT
सपा और बसपा के गठबंधन से उत्तर प्रदेश की राजनीति नई करवट ले रही है. जाति की राजनीति बीजेपी की हिन्दुत्व की राजनीति को चुनौती देती दिख रही है. सपा मुखिया अखिलेश यादव भी अब विकास की बातों में पिछड़े, दलित का मिश्रण करने लगे हैं. इसी क्रम में अखिलेश यादव ने पिछले दिनों ब्राह्मण वोट बैंक को लुभाने के लिए 'सुदामा' कार्ड खेला है. सपा मुख्यालय पर आयोजित प्रबुद्ध सम्मेलन उनकी भविष्य की रणनीति पर इशारा कर रहा है. खुद अखिलेश कहते हैं कि द्वापर युग में सुदामा को कृष्ण की जरूरत थी और आज भी सुदामा को कृष्ण की ही जरूरत है.
दरअसल समाजवादी पार्टी प्रदेश कार्यालय के डॉ लोहिया सभागार में पिछले दिनों समाजवादी प्रबुद्ध सभा द्वारा 'वर्तमान राजनीतिक दिशा और समाजवाद की आवश्यकता ' विषय पर विचारगोष्ठी आयोजित की गई. इस गोष्ठी में मुख्य अतिथि समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने कहा कि प्रबुद्ध समाज ने हमेशा समाज और राजनीति को दिशा दी है. इस समाज ने हजारों वर्षों से रास्ता दिखाया हैं. भगवान श्रीकृष्ण और सुदामा का रिश्ता पुराना है. अब साइकिल-हाथी और शंख साथ-साथ रहेंगे.
समाजवादियों को इस रिश्ता को मजबूत करना होगा. समाजवादी सरकार में किसी के साथ भेदभाव नहीं किया गया. समाजवादी सरकार की विकास योजना में सबका ध्यान रखा गया था. इस कार्यक्रम की अध्यक्षता पूर्व कैबिनेट मंत्री डॉ मनोज पांडेय ने की. पूर्व विधानसभा अध्यक्ष माता प्रसाद पाण्डेय ने भी अपने विचार रखे. समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय सचिव राजेन्द्र चौधरी भी उपस्थित थे. संचालन रवीन्द्र पांडेय ने किया.
राजनीतिक विश्लेषक अखिलेश की इस रणनीति के पीछे यूपी की राजनीति में ब्राह्मणों की अहमियत को बड़ा आधार मानते हैं. दरअसल उत्तर प्रदेश की राजनीति में ब्राह्मण को डिसाइडिंग शिफ्टिंग वोट कहा जाता है. कारण ये है कि ब्राह्मण मतदाता को लेकर यहां कोई भी दल आज तक खुशफहमी नहीं पाल सका है कि ये वोट बैंक उसका है.
प्रदेश के विधानसभा चुनाव गवाह हैं कि यूपी में सभी जातियों की तरह ब्राह्मण कभी एकजुट होकर मतदान नहीं करता. कई वैचारिक तौर पर अपने करीब जिस पार्टी को समझते हैं, उसे वोट देते हैं. वहीं कई जीतने वाली पार्टी के पक्ष में होते हैं क्योंकि वे जीतने वाले के साथ रहना चाहते हैं.
प्रदेश में ब्राह्मण संख्या के लिहाज से दलित, मुस्लिम से कम माने जाते हैं. लेकिन फिर भी ये करीब-करीब 14 फीसदी हैं, जो कि कम नहीं है. वहीं उत्तर प्रदेश के मध्य और पूर्वांचल के करीब 29 जिलों में इनकी भूमिका अहम मानी जाती है. वहां ब्राह्मणों के पास जमींदारी रही है.
समाज के विभिन्न वर्गों को प्रभावित करने में रहता है सफल
इनका प्रभाव प्रदेश की कई ऐसी सीटों पर भी देखने को मिलता है, जहां इनकी तादाद कम है. राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार उत्तर प्रदेश की राजनीति में ब्राह्मण अभी भी समाज के विभिन्न वर्गों को प्रभावित करने में सफल होते हैं. ये सोच विचार कर वोट देने वाले होते हैं. जातिगत गणना पर नजर जरूर रखते हैं, लेकिन वोट ये जातीय आधार पर नहीं डालते. यह डिसाइडिंग शिफ्टिंग वोट है.
2017 विधानसभा चुनाव ले लें या पिछले कुछ चुनाव इसका उदाहरण हैं कि ये जिसके भी साथ जाता है, सरकार उसकी बनती है. 2007 में प्रदेश ने ब्राह्मणों को बसपा की सोशल इंजीनियरिंग को स्वीकार करते हुए देखा. लेकिन 2009 में यही ब्राह्मण कांग्रेस की तरफ शिफ्ट हो गए और कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव में जोरदार प्रदर्शन किया.
सपा और बसपा को ब्राह्मणों का मिलता रहा है 20-20 प्रतिशत वोट
90 के दशक में ब्राह्मण समुदाय ने बीजेपी को काफी समर्थन दिया लेकिन 2017 से पहले के विधानसभा चुनावों पर नजर डालें तो बीजेपी का ब्राह्मण वोट सिकुड़ता गया. वर्ष 2002 में यह करीब 50 प्रतिशत था. 2007 में यह 44 प्रतिशत पर आ गया और 2012 में यह मात्र 38 प्रतिशत पर रह गया था. इसके अलावा उत्तर प्रदेश में बाकी के ब्राह्मण मतदाता दो बड़ी पार्टियों में बंट जाते हैं. मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी, जिसे अब अखिलेश लीड कर रहे हैं. और मायावती की बहुजन समाजवादी पार्टी को 20-20 प्रतिशत वोट मिलता रहा है. अब सपा और बसपा गठबंधन से ये प्रतिशत कागजों पर तो कम से कम 40 होता दिख रहा है.

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