ये तो प्रेम की बात है उधो...

Update: 2020-06-27 11:50 GMT


मीराबाई के बारे में सोचता हूँ तो आश्चर्य होता है। उनका प्रेम अपनी तरह का अद्वितीय था। कृष्ण धराधाम छोड़ कर द्वापर में ही जा चुके थे, हजारों वर्ष बाद मीरा ने अधिकार जता कर कहा, "तुम हो! यहीं हो! और मैं तुम्हारी हूँ.." और सचमुच कृष्ण जितने मीरा के हुए उतने किसी के नहीं हुए..."

प्रेम में डूबे सामान्य लोग अपने प्रिय पर दावा करते हैं कि तुम मेरे हो... मीरा ने इसके उलट जा कर कहा, मैं तुम्हारी हूँ... मीरा ने मांगा नहीं, दिया। और फिर बिना मांगे सबकुछ पा लिया। जिस कृष्ण को स्वयं राधारानी अपना पति नहीं कह सकीं, उनको मीरा ने साधिकार अपना पति कहा। माना और सिद्ध किया कि सचमुच वे ही थे...

मीरा को पढ़ कर लगता है कि सचमुच प्रेम समर्पण की पराकाष्ठा का नाम है।

मनुष्य सामान्यतः किसी एक के भरोसे नहीं रह पाता। उसके मन में भरोसे का द्वंद चलता ही रहता है, इस पर करूँ या उसपर... पर किसी एक के भरोसे रहने का आनन्द अद्वितीय होता है, बस कोई कृष्ण सा निभाने वाला मिलना चाहिए ।

पत्नियों को छोड़ दें तो कृष्ण के जीवन में दो स्त्रियाँ आईं, जिन्होंने अपना सर्वस्व उनके भरोसे छोड़ दिया। पहली द्रौपदी! चीरहरण के समय सबको भूल कर उन्होंने केवल कृष्ण पर भरोसा किया! फिर कृष्ण ने जो भयवधी निभाई वह इतिहास है। और दूसरी हुईं मीरा... कृष्ण के आगे सबको भूल गयीं। किसी ने कहा घर छोड़ दो, तो छोड़ दिया। किसी ने कहा विष पी लो तो पी लिया। न किसी से भय, न किसी से मोह... भरोसा केवल और केवल कृष्ण का... फिर कृष्ण कैसे न होते मीरा के? सच पूछिए तो स्वयम्बर में कृष्ण को मीरा ने ही जीता था।

मीरा के विषपान की बड़ी चर्चा हुई। शायद प्रेम करना विष पीने जैसा ही होता है। कृष्ण जैसा कोई मिल गया विष को अमृत बना देता है और प्रेम की प्रतिष्ठा रह जाती है, नहीं तो... आप आज के समय में ही देख लीजिए, जाने कितनो का शव खेतों में मिलता है...

कुछ मूर्ख कवियों ने कह दिया कि प्रेम किया नहीं जाता, हो जाता है। इस सृष्टि में यूँ ही कुछ नहीं होता। और प्रेम तो सजीवों का सबसे पवित्र भाव है, उसे बिना जांचे परखे किसी को कैसे दे देंगे। प्रेम के लिए तो सुपात्र का ही चयन होना चाहिए। मीरा ने सुपात्र का चयन किया तो अमर हुईं। खैर...

कृष्ण अकेले थे जिन्होंने सिद्ध किया कि जिसका कोई नहीं उसका मैं... जिसने जिस रूप में चाहा, उसे उस रूप में मिल गए। नन्द बाबा-यशोदा मइया ने पुत्र रूप में चाहा, तो न होते हुए भी उनके पुत्र हो गए। गोपियों ने वात्सल्य भाव से देखा, तो उनकी गोद में खेले। राधा ने प्रेम किया तो उन्हें प्रेमी के रूप में मिले, और क्या खूब मिले। उद्धव और अर्जुन ने मित्र के रूप में चाहा तो उन्हें उस रूप में मिले। सुदामा ने ईश्वर के रूप में पूजा तो उनका घर भर दिए। जामवंत को लड़ने की चाह थी, तो उनकी वह इच्छा भी पूरी किये। रुक्मिणी सत्यभामा को तो छोड़िये, नरकासुर की बंदिनी सोलह हजार राजकुमारियों तक ने पति रूप में चाहा तो उन्हें उस रूप में भी मिले... किसी को निराश नहीं किया। फिर मीरा को कैसे निराश करते?

मीरा ने कृष्ण ने मांगा नहीं कि मेरे हो जाओ, बल्कि मान लिया कि कृष्ण ही मेरे हैं। आगे सब कृष्ण के ऊपर था। सो जिस दिन उन्होंने पहली बार कृष्ण का नाम लिया उसदिन से लेकर उनके अंतिम दिन तक कृष्ण उन्ही के रहे, उनके साथ रहे...

कृष्ण की प्रेमिकाओं ने दिखाया कि प्रेम करते कैसे हैं, तो कृष्ण ने बताया कि निभाते कैसे हैं। सम्बन्धों को निभाने के मामले में कृष्ण अद्भुत हैं।

अच्छा सुनिए! कृष्ण इतने आसानी से मिल भी नहीं जाते, मीरा होना पड़ता है। विष पीना पड़ता है।

सर्वेश तिवारी श्रीमुख

गोपालगंज, बिहार।

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