परिचर्चाओं में राजनीतिक दलों के प्रवक्ताओं की सरेआम बेइज्जती

Update: 2020-06-26 10:00 GMT


इलेक्ट्रानिक्स मीडिया पर राजनेताओं और विशेषज्ञों के साथ परिचर्चा एक लोकप्रिय कार्यक्रम है। ऐसे कार्यक्रमों के मदायम से समकालीन मुद्दों पर मीडिया विभिन्न राजनीतिक दलों के प्रवक्ताओं के विचारों से अवगत कराती है। राजनीतिक दल भी अपने अपने प्रबुद्ध और तेजतर्रार नेताओं के नामों की घोषणा करते हैं। जो विभिन्न मुद्दों पर पार्टी के दृष्टिकोण को प्रस्तुत कर सकें । मीडिया वाले भी इन नेताओं से प्रतिदिन संपर्क करते हैं, उन्हें विषय दे देते हैं और कार्यक्रम में सम्मिलित होने के लिए आमंत्रित करते हैं ।

इन कार्यक्रमों की जब शुरुआत हुई थी, उस समय ऐसे कार्यक्रम बहुत ही लोकप्रिय हुए थे। इस कार्यक्रम को संचालित करने वाला एंकर बहुत ही शालीन भाषा और मृदु व्यवहार से यह कार्यक्रम संचालित करता। बड़ी ही विनम्रता से वह राजनीतिक दलों के समक्ष सवाल प्रस्तुत करता और संबन्धित राजनीतिक दलों के प्रवक्ता उसका बड़ी शालीनता से जवाब देते। अगर उनके द्वारा कुछ सवाल पूछे जाते या कोई आक्षेप लगाया जाता तो एंकर उसका जवाब सत्ताधारी प्रवक्ता से ले लेता । शुरू के दिनों में एंकरो की भूमिका बहुत कम होती थी। वे प्रवक्ताओं द्वारा विचार प्रस्तुत करते समय बहुत आवश्यक होने पर ही टोका टाकी करते। और ऐसा करने पर वह खेद भी प्रकट करता ।

लेकिन धीरे-धीरे ऐसे विचार – विमर्श कार्यक्रमों की प्रकृति में तबदीली आई । धीरे-धीरे टीवी चेनलों ने इस प्रकार के कार्यक्रमों के लिए ऐसे एंकरो द्वारा कार्यक्रम संचालित करने लगे। जिनके पास उस विषय का पर्याप्त अनुभव और ज्ञान होता था। साथ ही इस कार्यक्रम में आने के पहले वे अच्छी तरह से तैयारी करते थे। चूंकि किसी भी विभाग से कोई सूचना प्राप्त करना पत्रकारों के बहुत आसान होता है। इसलिए ऐसे कार्यक्रमों को बेहतर तरीके से संचालित करने के लिए विषय वस्तु के अनुरूप सामाग्री एकत्र करने लगे और उसका अध्ययन करने के पूर्व एक प्रश्नावली के साथ वे कार्यक्रम में आने लगे। हालांकि हर बार पूर्व में तैयार प्रश्नावली काम ही आए, ऐसा नहीं होता है। क्योंकि जब परिचर्चा शुरू होती है, तो सवाल अपने – अपने आप बनते जाते हैं, और ऐसे सवालो को प्रस्तुत करना एंकर की मजबूरी होती है ।

शुरुआती कार्यक्रमों में केवल राजनीतिक दलों के प्रवक्ताओं को ही बुलाया जाता था। पर धीरे-धीरे उसमें और भी बदलाव आया। उनके साथ उस विषय के विशेषज्ञों को भी आमंत्रित किया जाने लगा। इससे कार्यक्रमों कि लोकप्रियता में और भी वृद्धि हुई । फिर एक और और परिवर्तन देखने को मिला कि कुछ कार्यक्रमों में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद, गोसेवा संघ के लोगों को भी सम्मिलित किया जाने लगा । इससे उस क्षेत्र में काम करने वाले जो संगठन थे, उनका भी पक्ष जनता के समक्ष आने लगा। इस समय भारत और चीन के बीच सीमा विवाद को लेकर तनातनी चल रही है। इस कारण ऐसी परिचर्चाओं में सेना के विशेषज्ञ और अधिकारियों को भी शामिल करने के प्रमाण मिले । इस तरह से मीडिया द्वारा शुरू किए गए इन परिचर्चा कार्यक्रमों के माध्यम से एक सम्यक विचार जनता के सामने जाने लगे।

लेकिन इसी दौरान एक और परिवर्तन देखने को मिला । विभिन्न विचारधाराओं से प्रभावित पत्रकारों के आ जाने के बाद परिचर्चाओं का पूरा मजनूम बदल गया। इस प्रकार एक प्रकार की विचारधारा के पत्रकारों का समूह बनने लगा। ऐसे में यह हुआ कि ऐसे पत्रकारों को सरकारो का खुला संरक्षण मिलने लगा और वे ज्ञानी होने के कारण वे उदण्ड भी हो गए। इन परिचर्चाओं के दौरान वे सत्ता पक्ष के प्रवक्ताओं के खुला समर्थन करते हुए देखे जा सकते हैं। साथ ही विपक्षी दलों के प्रवक्ताओं द्वारा विचार प्रकट करते समय टीका टिप्पणी करना, बीच में बोलना और साथ ही विरोध करना आम बात हो गई । कभी-कभी तो राजनीतिक दलों और परिचर्चा एंकरो में तू-तू मैं-मैं की स्थिति भी उत्पन्न हो जाती है । एकाध बार तो विभिन्न राजनीतिक दलों के प्रवक्ताओं के बीच मार-पीट भी होते-होते बची ।

इस समय भारत में दो प्रमुख राष्ट्रीय दल हैं। एक कांग्रेस है। जो इस देश की सत्ता पर 70 वर्षों तक काबिज रही है। और पिछले 6 सालों से भाजपा की सरकार सत्ता पर काबिज है। ज्यादातर परिचर्चाओं में यही होता है कि पूरी परिचर्चा को सत्तर बनाम छ वर्ष बना दिया जाता है। भाजपा प्रवक्ताओं की यही कोशिश होती है कि हर समस्या के लिए, हर असफलता के लिए वे कांग्रेस को दोषी ठहराएँ । उनके प्रधानमंत्री द्वारा लिए गए निर्णयों पर सवाल उठाएँ और जो भी आज समस्या है, उसके लिए प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, इन्दिरा गांधी, राजीव गांधी और मनमोहन सिंह को दोषी ठहराएँ । वे फैसले करते समय भारत की स्थिति क्या थी, उस समय की परिस्थितियाँ क्या थी, इस पर बिल्कुल विचार नहीं किया जाता है। इन परिचर्चाओं में ऐसा भी देखने को मिला है कि परिचर्चा का विषय कुछ भी हो, उसमें राहुल गांधी को लाना और उनका मज़ाक बनाना आम बात हो गई है।

दूसरी ओर जब हम भारत के राष्ट्रीय प्रमुख दल कांग्रेस पर इन परिचर्चाओं के संबंध में ध्यान देते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है कि उन नेताओं को राजनीति का लंबा अनुभब तो होता है, विषय के राजनीतिक पहलू की भी सतही जानकारी होती है, लेकिन विषय की सम्पूर्ण जानकारी नहीं होती है। जिसकी वजह से बेहतरीन प्रस्तुतीकरण के बाद भी वे अच्छी तरह से अपना और अपनी पार्टी का पक्ष प्रस्तुत नहीं कर पाते हैं। इसका एक कारण और है कि कांग्रेस सबसे पुरानी और बड़ी पार्टी होने के बाद भी आपसी अंतर्कलह से जूझ रही है। उनके यहाँ सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है । यहाँ तक कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और राहुल गांधी के वक्तव्यों पर ही नजर डालें तो अंतर दिखाई पड़ता है। फिर इस पार्टी में तो कई वरिष्ठ नेता हैं, जिनके विचारों और वक्तव्यों को देश की जनता महत्व देती है । इन सभी के बयानो में भिन्नता होती है। भाजपा के प्रवक्ता अपनी बात प्रस्तुत करते हुए इनके नेताओं के बयानों की भिन्नता को भी प्रस्तुत करते हैं। जिसकी वजह से कांग्रेस के प्रवक्ता खुद को असहज महसूस करने लगते हैं । प्रथम फेज में जो बहुत अच्छी तरह से अपना पक्ष प्रस्तुत कर रहे थे। वे भी गड़बड़ा जाते हैं। विषयांतर हो जाते हैं । इसी करना कांग्रेस के प्रवक्ता जन मानस पर एक नकारात्मक प्रभाव छोड़ जाते हैं ।

इसी दौरान यह भी देखने को मिला कि इन परिचर्चाओं में क्षेत्रीय दलों के प्रवक्ताओं को भी बुलाया जाने लगा। इसमें से अधिकांश क्षेत्रीय दलों के किसी न किसी रूप में कांग्रेस के साथ संबंध रह चुके हैं। सबसे गई गुजरी स्थिति इन क्षेत्रीय दलों के प्रवक्ताओं की होती है। ऐसा लगता है कि जब भी एंकर को डांटना होता है, तब इन्हें डांट देता है, ये अपनी बात भी पूरी नहीं कर पाते हैं, तभी उन्हें बीच में रोक देता है, दूसरे राजनीतिक दल के प्रवक्ता को बोलने के लिए कह देता है । इन प्रवक्ताओं की भी स्थिति ऐसी होती है कि यह न तो कांग्रेस के साथ खड़े हुए दिखाई पड़ते हैं और न ही भाजपा के साथ । क्योंकि कांग्रेस के अस्वीकार्यता पर ही इनकी राजनीतिक इमारत खड़ी हुई है । इन क्षेत्रीय दलों की ऐसी हालत शुरू में नहीं थी। इन क्षेत्रीय दलों के कार्यकर्ता और नेता कहीं अधिक क्रांतिकारी और सामाजिक हुआ करते थे। लेकिन इनकी स्थिति में भी समय के साथ ह्रास हुआ । और आज यह स्थिति हो गई है कि इन क्षेत्रीय दलों के प्रवकताओं के पास अपनी बात को प्रभावी ढंग से रखने की न तो शैली है और न ही उस विषय का ज्ञान है। न ही प्रस्तुतीकरण का तरीका ही उन्हें मालूम है। जिस तरह से वे अपना पक्ष रखते हैं, अभी दो बात भी पूरी नहीं हो पाती कि वे एंकर के जाल में फंस जाते हैं और फिर एंकर उन्हें जैसे चाहे उलटता-पलटता है । उनकी जिनती आवश्यक समझता है, उतनी बेइज्जती करता है । ज़्यादातर मुंह गिराए ये प्रवक्ता एक श्रोता की भूमिका में ही टी वी स्क्रीन पर बैठे रहते हैं। इन्हें मुश्किल से अपना पक्ष प्रस्तुत करने के लिए एक या दो बार मौका दिया जाता है। ज्यादातर चर्चा कांग्रेस, भाजपा और विशेषज्ञों के बीच में भी होती है । क्षेत्रीय दलों के प्रवक्ताओं के कमतर ज्ञान और अनुभवहीनता का खामियाजा पार्टी को उठाना पड़ता है। इन प्रवक्ताओं की वजह से ऐसे क्षेत्रीय दलों की लोकप्रियता में हर दिन बट्टा लगता रहता है । इनकी लोकप्रियता तो शून्य हो जाए, लेकिन सोशल मीडिया पर उनके लिए नि:शुक्ल अपनी सेवाएँ देने वाले कार्यकर्ता क्षतिपूर्ति करते रहते हैं । इन क्षेत्रीय दलों को चाहिए कि वे प्रशिक्षित नेताओं को ही ऐसी परिचर्चाओं में भेंजे । अगर ऐसा नहीं कर सकते तो नह भेजे ।

इस तरह से मीडिया के एंकरो ने अपनी मेहनत से जो ज्ञान हासिल किया है, उससे उन्हें विनम्र होना चाहिए। यह सभी जानते हैं कि भारतीय राजनीति में किस तरह के लोग आते हैं। वे जमीन पर तो संघर्ष कर सकते हैं। लेकिन बौद्धिक संघर्ष नहीं कर सकते । उनकी इसी कमतरता का परिचर्चा के एंकर फायदा उठाते हैं, जब, जहां उनकी इच्छा होती है, इन राजनीतिक दलों के प्रवक्ताओं को बेइज्जत कर देते हैं। उन्हें नीचा देखने के लिए मजबूर कर देते हैं । अगर राजनीतिक दलों को इससे उबरना है, तो अब उन्हें ऐसे लोगों को भी राजनीतिक दलों में स्थान देना होगा, जो जमीनी राजनीति भले न करें, लेकिन वे अपने राजनीतिक दल, उसके संविधान, उसकी कार्यशैली और अगर उनकी पार्टी सत्ता में रही, तो उसके सारे कार्य कलापों की जानकारी और साथ ही काउंटर हो सकने वाले सवालों के उत्तर खोजने पड़ेंगे । अन्यथा इसी तरह से ऐसी परिचर्चाओं में प्रवक्ताओं को जलील होते रहना पड़ेगा ।

प्रोफेसर डॉ. योगेन्द्र यादव

पर्यावरणविद, शिक्षाविद, भाषाविद,विश्लेषक, गांधीवादी /समाजवादी चिंतक, पत्रकार, नेचरोपैथ व ऐक्टविस्ट

Similar News