खेत में इसका एक पौधा भी उपज गया तो छह महीने में पूरा खेत भर जाता है इससे... उसके बाद उस खेत में खेती सम्भव नहीं होती। फसल उपजे भी तो इसके कांटों के कारण न सोहनी हो पाती है न कटनी... खेत का सत्यानाश हो जाता है। इसीलिए बुजुर्गों ने इसका नाम सत्यानाशी रख दिया शायद...
फिर भी! जब इसमें फूल आते हैं तो क्या सुन्दर दिखता है यह। गज्जब का आकर्षण होता है इसमें... शायद कंटीली चीजें यूँ ही बहुत आकर्षक होती हैं। मानुष फूल के लोभ में जाता है, और कांटों से छलनी हो कर लौटता है। गाँव के बूढ़े तभी कहते थे कि अधिक आकर्षक वस्तुओं से दूर ही रहना चाहिए।
हमारा जीवन भी ऐसा ही होता है। फूल की तरह सुन्दर, आकर्षक, पर मोह ईर्ष्या लोभ आदि कांटे घेरे रहते हैं। अंतर बस इतना है कि फूल के कांटे दूसरों को कष्ट देते हैं, हमारे अंदर के कांटे हमें ही दुख देते हैं। हमारे कांटे हमारी ही आत्मा में चुभते हैं।
किसी के प्रति घृणा में डूबा व्यक्ति अंत तक समझ नहीं पाता कि वह अपना ही अहित कर रहा है। उसे लगता है कि वह दूसरों का मजाक उड़ा कर, उन्हें पीड़ा दे कर उन्हें पराजित कर देगा। पर ऐसा होता नहीं है। सामने वाला धीरे धीरे व्यंग्य,आक्षेप सहने का आदी हो जाता है, पहले से कहीं अधिक मजबूत हो जाता है, और इधर घृणा में डूबा व्यक्ति स्वयं पराजित हो जाता है।
कई बार जब हमें कोई व्यक्ति गलत तरीके अपना कर सफल होता दिखता है, तो हमें जलन होने लगती है। यह जलन कई बार घृणा में भी बदल जाती है। पर समझना होगा कि हम जलन या घृणा में डूब जाएं तो उसे पराजित नहीं कर सकते। भगवान श्रीराम ने यदि रावण से केवल घृणा की होती, या उससे डाह रखे होते तो उसे पराजित कर पाते क्या? नहीं! श्रीराम ने चौदह वर्षों तक अपने तरकस में तीर बटोरे... उन्होंने रावण के हर दाव की काट खोजी... उन्होंने स्वयं को रावण से अधिक समृद्ध किया... फल यह कि रावण पराजित हुआ।
कल्पना कीजिये, पांडवों ने अपने बनवास के बारह वर्ष यदि कौरवों से घृणा करने में, उनपर क्रोध करने में निकाल दिए होते तो क्या महाभारत युद्ध में उन्हें विजय मिलती? नहीं न?
मोह, घृणा, लोभ, क्रोध, जलन आदि विकृतियां सब में होती हैं। किसी में थोड़ा कम, किसी में थोड़ा अधिक... कोई इनसे अछूता नहीं, हम सब में ये कांटे भरे पड़े हैं। यह भी सही है कि हम इन विकृतियों से पूर्ण रूप से मुक्त भी नहीं हो सकते। फिर भी... जितना सम्भव हो स्वयं को इन कांटो से मुक्त करना ही होगा।
सत्यानाशी का पौधा आयुर्वेद में औषधि माना जाता है। यह एक नहीं, अनेक रोगों में लाभ पहुँचाता है। कितना आश्चर्यजनक है न, सत्यानाशी जैसा कंटीला पौधा भी जीवनदायक औषधि है। जीवन का एक रङ्ग यह भी है। कई बार हम जिसे बुरा मान कर त्याग चुके होते हैं वही विपत्ति में सहायक सिद्ध होता है। परिस्थितियाँ कब किसे आपका शत्रु बना दें और किसे सहयोगी, यह कोई नहीं जानता। सो बेहतर है कि घृणा से मुक्ति पा ली जाय। है न?
राजनीति, विचारधारा, भाषा, क्षेत्र... जाने कितने कारक हैं जो मनुष्यों में दूरी बनाते हैं। इनसे मुक्ति पा लेना ही ज्ञान है। घृणा किसी से भी ठीक नहीं, क्योंकि कोई हमेशा नहीं रहने वाला।
अब यह न पूछियेगा कि क्या शत्रुओं से भी घृणा करना छोड़ दें! शत्रु से भी घृणा कर अपनी ऊर्जा व्यर्थ क्यों करना, उसे पराजित करने के लिए शस्त्र इकट्ठे करने चाहिए।
कल किसी मित्र में कहा था कि सत्यानाशी के औषधीय गुणों पर लिखिये, पर ब्राह्मण प्रवचन का मोह नहीं त्याग पाता। यह शायद मेरे अंदर का दुर्गुण है।
सीताराम...
सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।