भारत में योग और श्रम की प्रासंगिकता : प्रोफेसर डॉ. योगेन्द्र यादव

Update: 2020-06-21 09:57 GMT

अंतर्राष्ट्रीय दिवस पर विशेष .....

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 27 सितंबर, 2014 को संयुक्त राष्ट्र संघ की आम सभा को संबोधित करते हुए अनुरोध किया था की कि 21 जून को पूरे विश्व में अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के रूप में मनाया जाए । संयुक्त राष्ट्र संघ की आम सभा ने उस अनुरोध को स्वीकार कर लिया और तबसे हर वर्ष 21 जून को विश्व योग दिवस के रूप में मनाया जाता है। वैसे विगत कई वर्षों से इस दिवस को अपना मान भारत बड़े व्यापक स्तर पर इसे मनाता आया है। लेकिन इस वर्ष परिस्थितियाँ विपरीत हैं। कोरेना की महामारी की ओर से जहां सभी लोग सोशल डिस्टेन्सिंग का पालन कर रहा हैं। वहीं उसके संक्रमण से बचने के लिए मास्क सहित अन्य सावधानियाँ भी बरत रहे हैं। इतना ही नहीं, अभी कुछ दिन पहले भारत चीन सीमा पर तनाव बढ़ गया। छल से चीन ने भारत के 20 सैनिकों को लाठी-डंडे पीटते और पत्थर से कुचलते हुए शहीद कर दिया । इसके बाद पूरे देश में चीन के प्रति आक्रोश व्याप्त हो गया है । इतना ही नहीं, पाकिस्तान भी अपने नापाक इरादों से बाज नहीं आ रहा है। वह जम्मू और कश्मीर में लगातार आतंकवादियों को भेज अशांति पैदा करने की कोशिश कर रहा है। मित्र राष्ट्र होने के बावजूद भी नेपाल चीन के उकसावे में आकर भारत के साथ बनावटी सीमा विवाद की कोशिश कर रहा है। इन सभी घटनाओं से देश के एक – एक नागरिक की संवेदनाये जुड़ी हुई हैं । विषम परिस्थिति होने के कारण हम इस बार योग दिवस व्यापक स्तर पर नहीं मनाएंगे। लेकिन फिर भी प्रधानमंत्री के निर्देश के बाद यह दिवस पूरे हर्षोल्लास से मनाया जाएगा। इस दिन प्रधानमंत्री भी कहीं न कहीं योग कार्यक्रम में शामिल होंगे ।

अब हम यह जानने की कोशिश करता हूँ कि योग है क्या ? जब हम योग के शाब्दिक अर्थ पर विचार करते हैं तो उसका अर्थ जोड़ होता है। फिर एक नया सवाल मन में आता है कि किससे जोड़ ? इसका पहला उत्तर जो हर आदमी के जेहन मे आता है, वह है प्रकृति से । लेकिन इसका उत्तर इतना ही नहीं है । योग सबसे पहले शरीर, मन और आत्मा को जोड़ता है। योग के इसी गुण के कारण अपने प्रारम्भिक अवस्था में योग सिर्फ ऋषियों और मुनियों का ही विषय रहा है । अगर हम 2014 के पूर्व की स्थिति पर ही विचार करें, तो ऐसा प्रतीत होता है कि यह आम मानव की नहीं, बल्कि एक विशेष वर्ग के लिए ही है । और वही लोग इसका उपयोग करते रहे हैं । अपनी प्रारम्भिक अवस्था में यह योग ऋषियों – मुनियों तक ही क्यों सीमित रहा ? जब इस सवाल पर विचार करता हूँ, तो पाता हूँ कि भारत की संस्कृति में श्रम का विशेष महत्त्व रहा है। यानि भारत के अधिकांश नागरिक किसी न किसी रूप मे दिन में कम से कम दो –चार या उससे अधिक घंटे तक श्रम करता है। ऐसा श्रम जिसमें उसकी सांस भी चढ़ती है, हृदय की धड़कन भी अपने चरम पर होती है। शरीर के हर अंग का व्यापम भी होता है। शरीर का प्रक्षालन भी होता है और प्रत्येक अंग को ऊर्जा भी प्राप्त होती है । यानि आज योग से जो कुछ प्राप्त होता है, वह सब हमारी श्रमशील संस्कृति से ही प्राप्त हो जाती थी। यानि भारत की जनता को इसकी जरूरत नहीं थी । इसी कारण भारत की श्रमशील जनता के बीच में ऋषियों-मुनियों ने इसका प्रचार – प्रसार नहीं किया ।

लेकिन धीरे-धीरे भारतीय समाज में एक गलत धारणा ने जन्म लिया । देश और समाज में जो लोग कम श्रम करने वाले या न करने वालों को ज्यादा सम्मान दिया जाने लगा। साथ ही विज्ञान युग की वजह से ऐसी मशीनरियों का विकास हुआ, जिससे मानव जीवन में श्रम कम होने लगा। इसकी वजह से श्रम से प्राप्त होने वाली योग साधना समाप्त हो गई । ऐसी साधना जो ऋषि – मुनि योग करके प्राप्त करते थे, उससे बेहतर आम आदमी श्रम से प्राप्त करता । श्रम की कमतरता के कारण मनुष्य के शरीर, मन और आत्मा का तारतम्य खंडित हो गया। इस कारण वह शारीरिक रूप से कमजोर और रुग्ण होने लगा । मानसिक रोगी होने लगा। नाना प्रकार के अधोगामी विकार उसके मन में पनपने लगे । इस तरह से उसका मन भी विकृत हो गया । श्रम की कमतरता के कारण आत्मा क्या होती है, इसकी अनुभूति ही बंद हो गई। इस तरह से शरीर, मन और आत्मा के बीच जो समन्वय था। वह खंडित हो गया या बाधित हो गया । इसकी वजह से मानव की प्रवृत्ति भोग की ओर बढ़ी और उसने प्रकृति के साथ खिलवाड़ करना शुरू कर दिया। उसका दोहन करना शुरू कर दिया। इससे एक ओर जहां वह भोगी प्रवृत्ति वाला हो गया। वहीं दूसरी ओर नासमझी के विकास के कारण प्रदूषण की समस्या उत्पन्न हो गई। मनुष्य के लिए जरूरी जल, मिट्टी और वायु भी प्रदूषित हो गए। ऐसे में हमें न तो खाने के लिए न तो शुद्ध अन्न मिलता, पीने के लिए न तो शुद्ध जल मिलता और सांस लेने के लिए न शुद्ध वायु मिलती । ऐसे में आरामदायक जीवन शैली ने पूरे शरीर, मन दोनों को और प्रदूषित कर दिया ।

हमारी जीवन शैली, भोग प्रवृत्ति और श्रमहीन जीवन के कारण ही योग का महत्त्व बढ़ा । अपने शरीर और मन को स्वस्थ करने तथा शरीर, मन और आत्मा के बीच में संतुलन कायम करने, अपनी जीवन शैली और विकास की प्रक्रिया को प्रकृति के साथ जोड़ने के लिए योग की जरूरत हुई । इसे बाबा रामदेव जैसे मनीषियों ने समझा। अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित करते हुए योग का प्रचार – प्रसार किया और देश के प्रधानमंत्री ने इसके महत्त्व को विश्वव्यापी बनाने और सर्वे भवनतु निरामया की भावना से ओतप्रोत होकर संयुक्त राष्ट्र संघ से इसे विश्व योग दिवस के रूप मे मनाने का अनुरोध करना पड़ा और संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी इसे स्वीकार कर लिया ।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संयुक्त राष्ट्र संघ की आम सभा में जो भासन दिया। उसमें उसका पूरा सार आ जाता है । उन्होने कहा कि योग भारतीय परंपरा का एक अनमोल उपहार है। ये मस्तिष्क और शरीर की एकता को संगठित करता है; विचार और कार्य; अंकुश और सिद्धि; मानव और प्रकृति के बीच सौहार्द; स्वास्थ्य और अच्छे के लिये एक पूर्णतावादी दृष्टिकोण है। ये केवल व्यायाम के बारे में ही नहीं बल्कि विश्व और प्रकृति के साथ स्वयं एकात्मकता की समझ को खोजने के लिये भी है। अपनी जीवनशैली को बदलने और चेतना को उत्पन्न करने के द्वारा ये जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने में मदद कर सकता है। अब आइये ! विश्व योग दिवस पर बिन्दुवार वर्णन कर लेते हैं -

1. अद्भुत और प्राकृतिक लाभों से जन मानस को परिचित कराना – विश्व योग दिवस का यह एक प्रमुख उद्देश्य है । योग के अद्भुत फायदे और प्राकृतिक लाभों से जन मानस को परिचित कराना है । क्योंकि योग एक ऐसा विषय है, जिसके बारे में लोगो को या तो मालूम नहीं है, या उनका अनुभव कमतर है । इस कारण योग और आसन के द्वारा उसे अनुभूति कराना है ।

2. अभ्यास के द्वारा लोगों को प्रकृति से जोड़ना – योग दिवस पर हम सभी को संकल्प करना है कि योग और आसन के माध्यम से हम प्रकृति से जुड़ें और उसके महत्त्व को समझें। जिससे प्रकृति और मनुष्य के बीच में समन्वय स्थापित हो सके । और इस समन्वय से जहां एक ओर प्रकृति और मनुष्य का आपस प्रेम बढ़ेगा। वहीं प्रदूषण पर को भी नियंत्रित करने में मदद मिलेगी ।

3. योग द्वारा ध्यान – योग दिवस या योग के द्वारा हम केवल अपने शरीर और मन को स्वस्थ रखने का ही प्रयोग नहीं करना है, बल्कि इसके साथ-साथ हम लोग योग को साधना का विषय बनाते हुए ध्यान की प्रक्रिया प्रारम्भ हो सके । जिससे मानव का सम्पूर्ण कल्याण हो सके ।

4. स्वास्थ्य चुनौतीपूर्ण बीमारियों की दर घटाना – शारीरिक हो या मानसिक सभी बीमारियों का निदान योग में है। हर बीमारी के लिए अलग – अलग योग हैं। अगर हम उनका नियमित और सही तरीके से अभ्यास करते हैं तो पहले दिन से ही सभी बीमारियों में आराम मिलता है ।

5. सामुदायिक विकास – समय और साधनों की उपलब्धता के कारण मनुष्य एकाकी होता जा रहा है । अपने घर और चौखट तक ही सीमित होता जा रहा है । जबकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। जिसके लिए समुदाय मे रहना जरूरी है। योग सामूहिक किया जाता है। जिससे सामुदायिक जीवन का विकास करता है, यानि यह सिर्फ शरीर, मन और प्रकृति के लिए ही जरूरी नहीं है, बल्कि समाजिकता के पुनर्जीवन के लिए भी आवश्यक है ।

6. वृद्धि, विकास और शांति प्रसार – योग से मनुष्य की शारीरिक, मानसिक, सामाजिक वृद्धि और विकास होता है। स्वस्थ मानस और शरीर होने की वजह से मन में शांति आती है । जिससे एकाग्र होकर मनुष्य अपने कार्य को उत्तम अवस्था में संपादित करता है । इस प्रकार यह वैश्विक शांति प्रसार के लिए भी आवश्यक है।

7. तनाव से राहत – आज की आपाधापी जीवन शैली और अनिश्चितता की स्थिति के कारण हर व्यक्ति तनाव में जी रहा है। नियमित योग का अभ्यास करने से उसे तनाव से मुक्ति मिलती है। उसका जीवन प्रकृतिस्थ होता जाता है और मन परिपक्व ।

8. अस्वास्थ्यकर कार्यों से बचाना - योग और उसका अभ्यास हमें ऐसे कार्यों या आदतों से बचाता है, जो स्वास्थ्य के लिए उपयोगी नही होते हैं । तमाम ऐसी आदतें जैसे गुटका खाना, सिगरेट या बीड़ी पीना, तंबाकू चबाना, ड्रिंक करना जैसी आदतें और गोपनीय गंदी हरकतें भी धीरे-धीरे छूट जाती हैं ।

9. स्वस्थ जीवन-शैली – प्राय: योग सुबह-सुबह ही किया जाता है। दैनिक कर्मों से निवृत्त होकर सभी योग करते हैं। इससे एक विशेष प्रकार की ऊर्जा और स्फूर्ति प्राप्त होती है। जिससे एक स्वस्थ जीवन शैली का विकास होता है ।

10. स्वस्थ पारिवारिक वातावरण – योग करने से मन और तन दोनों शुद्ध और परिपक्व बनते हैं । इस कारण घरों में होने वाले छोटे-मोटे झगड़े, मनमुटाव की घटनाएँ भी धीरे-धीरे समाप्त हो जाती हैं। सभी प्रेमपूर्ण जीवन शैली अपनाते हैं । एक दूसरे की केयर करते हैं। इस कारण पारिवारिक जीवन भी सुखमय हो जाता है ।

लेकिन एक बात फिर कहूँगा कि भारत जैसे देश को एक बार फिर अपने श्रमशील संस्कृति की ओर बढ़ाना चाहिए । जिससे वे सभी लाभ भी उसे प्राप्त हो सकें, जो योग से नहीं मिल सकते हैं। योग उन 15 प्रतिशत लोगों के लिए छोड़ देना चाहिए। जो एसी कल्चर में रहते हैं। जिनका जीवन श्रमशून्य होता है । जिनके पास भोग के समस्त सामान और अकूत धन संपत्ति और नौकर चाकर उपलब्ध होते हैं। अगर संक्षेप में कहें तो योग को शहरी जीवन और श्रम को ग्रामीण जीवन के लिए पुनर्स्थापित करने की जरूरत है ।

प्रोफेसर डॉ. योगेन्द्र यादव

पर्यावरणविद, शिक्षाविद, भाषाविद,विश्लेषक, गांधीवादी /समाजवादी चिंतक, पत्रकार, नेचरोपैथ व ऐक्टविस्ट

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