वर्षों से कथावाचिका एवं वाचकों ने मेरे घर के टेलिविज़न पर कब्ज़ा जमा रखा है

Update: 2020-05-21 08:49 GMT

पिछले तीन वर्षों से लगातार कथावाचिका एवं वाचकों ने मेरे घर के एक टेलिविज़न पर कब्ज़ा जमा रखा है. माताजी के कक्ष का टेलिविज़न कम से कम बारह घंटे ड्यूटी पर तैनात रहता है. मैं उन कथावाचकों का नाम तो नहीं जानता लेकिन कक्ष में आते-जाते उन्हें पहचान अवश्य जाता हूँ. दूसरी बात यह कि माता जी एक अनुशासित श्रोता/विद्यार्थी या भक्त की तरह, इस कदर उस कथा सागर में डूबीं रहतीं हैं कि उनसे एक शब्द भी कुछ कहते नहीं बनता.

सच कहूं तो उनके कमरे में मेरा जाना न के बराबर होता है. वजह यह कि टेलिविज़न स्क्रीन पर चलने वाले दृश्य, ध्वनि एवं भावभंगिमा मुझे इतनी व्यवसायिक एवं कृत्रिम लगती है कि मैं कमरे में बिल्कुल ठहर ही नहीं पाता (हांलाकि यह पूर्णतः मेरी अनुभूति एवं अभिव्यक्ति है मैं यह भी नहीं मानता कि सब लोग मेरे जैसे छिद्रान्वेषी ही होंगे)

वहाँ ज्यादातर कथावाचक गौसेवा को श्रेष्ठ बताते हैं, गाय के दूध से लेकर गोबर एवं मूत्र को औषधि बताते हैं. गौसेवा से भविष्य में होने वाले फायदों का गुणगान करते हैं और यह सब सुनकर मेरी माता जी मगन होती रहतीं हैं.

एक दिन मैंने मैंने अपनी माँ से कहा-

अम्मा! क्या, एक ही बात, रोज सुनतीं हैं आप... तब जबकि आपके घर पिछले बयालीस वर्ष से गौपालन और गौसेवा का कार्य निरन्तर हो रहा है. यदि आपको विश्वास है कि गौसेवा सबसे बड़ी पूजा है तो चलिए गाय के पास बैठिए, उसका माथा सहलाइए, पैर दबाइए, नहलाइये, खुर साफ किजिये, रोटी खिलाइए, पानी पिलाइए, पंखा किजिये. अब उस व्यक्ति को टेलिविज़न पर गंगा आरती देखने की क्या आवश्यकता जिसका घर ही घाट की सीढ़ियों से लगा हो.

ऐसे ही एक दिन मैं विद्यालय से लौटने के बाद खाना खाकर लेटा था. मेरी कलाई मेरी आंखों पर थी और हल्के-हल्के नींद मुझे अपने आगोश मे ले रही थी तभी माताजी ने टेलिविज़न अॉन कर दिया. कथा अपने प्रवाह में थी. नींद की मदहोशी और कथा की ध्वनि के बीच मेरा मस्तिष्क रस्साकशी करने लगा. हांलाकि मैं नींद से खुद को खारिज़ नहीं किया लेकिन मेरी श्रवणेन्द्रिय बिना मेरी परवाह किये कथा सत्संग में कान लगाकर बैठ गई. तब भी मैं एक संतुलन बनाकर नींद की सीढ़ियाँ उतरने में लगा था.

कथा में कोई कथा वाचक एक घटना का जिक्र करते हैं जिसमें बताते हैं कि एक ऋषि अपने शिष्यों के साथ एक घने जंगल से गुजर रहें होतें हैं. शिष्यों के भीतर जंगली जानवरों के आक्रमण का भय बना हुआ था लेकिन ऋषि निर्भय होकर घने जंगल में बढ़े जा रहे थे. तभी जंगल से निकलकर एक जंगली भालू आता है. शिष्य घबरा जातें हैं लेकिन ऋषि शान्त भाव से कहते हैं " हरि बोल " ऋषि के मुख से 'हरि बोल' सुनकर भालू भी उनके साथ हो लेता है.. कुछ देर आगे बढ़ने के बाद एक लकड़बग्घा आता है... सभी शिष्य भयभीत, लेकिन ऋषि उसको देखकर बोलते हैं "हरि बोल"..लकड़बग्घा भी ऋषि के साथ हो लिया... ऐसे ही आगे बढ़े फिर बारहसिंघा मिला और फिर "हरि बोल" ऐसे ही हाथी मिला... फिर "हरि बोल" ऐसे ही शेर मिला..."हरि बोल"...नदी में मगरमच्छ मिला... वहां भी "हरि बोल"

यकीन मानिए! जब पन्द्रह मिनट जंगल में घूमते और हरि बोलते गुजर गया तो मैं नीद की आधी यात्रा से वापस आया, बिस्तर से उठा, ऐनक चढ़ाया और बढ़कर टेलिविज़न का स्विच अॉफ कर दिया.

मैंने माताजी से कहा- अम्मा! क्या मजाक है यह.. यदि "हरि" ही बोलना है तो टेलिविज़न पर विराजमान इस व्यक्ति की क्या आवश्यकता!

हां! यदि जंगल में विचरण करने और खतरनाक जंगली जानवरों के आने पर "हरि बोलने" का कोई रोमांच या आनन्द है तो मुझे बस दो घंटे सो लेने दीजिए. सोकर उठेंगे तो. बकायदा आपके पास, प्राणी विज्ञान की किताब लेकर आयेंगे. जिसमें से जंगल के विशाल...भयावह जंगली जानवर, पशुपक्षी...जलीय जन्तुओं को जंगल के मार्ग पर हम छोड़ेंगे और आप "हरि बोल" कहकर उन्हें अपने साथ यात्रा में शामिल कर लीजिएगा लेकिन इस आदमी की कथा कतई न सुनिए! यह श्रद्धालुओं की श्रद्धा का मजाक बना रहा है.

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मित्रों! व्यवसाय हमारे रगरग में कुंडली मारकर बैठ चुका है..हमारे हर एक कार्यव्यवहार में व्यवसाय ने अपनी पैठ बना ली है.. इसलिए जिसे देखकर आप भक्ति सागर में गोते लगाते हैं....वो भी आपकी भावनाओं के व्यवसायीकरण में लगा है॥

इसलिए

"हरि बोल"

रिवेश प्रताप सिंह

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