प्रवासी मजदूर, प्रबंधन की कमी और सरकारों की किरकिरी – प्रोफेसर डॉ. योगेन्द्र यादव

Update: 2020-05-19 03:55 GMT


सड़क दुर्घटनाओं में हर दिन हो रही मजदूरों की मौतों को रोकने के लिए केंद्र सरकार के निर्देश पर प्रदेश सरकारों ने सख्त कदम उठाए। प्रदेश और जिलों की सीमाओं को सील कर दिया गया। पुलिस अधिकारियों को सख्त निर्देश दिये गए कि कोई भी मजदूर अनधिकृत वाहनों से यात्रा न करे, इसलिए पुलिस द्वारा सख्ती के साथ ट्रकों जैसे वाहनों की तलाशी का सघन अभियान चलाया गया। जिसके परिणाम स्वरूप ट्रकों पर मनमाना किराया लेकर मजदूरों को ढोने पर विराम लगा। जो उचित कदम था।

केंद्र सरकार के निर्देश पर सभी सरकारों ने यह भी निर्देश जारी किया था, कि हर राज्य सरकार अपनी सीमा पर आने वाले प्रत्येक मजदूर के रहने – खाने की व्यवस्था करेगी, और साथ ही मजदूरों को उनके घर तक पहुंचाने के लिए बसों की व्यवस्था करेगी। इसकी व्यवस्थ कहीं हो पाई, और कहीं नहीं हो पाई। जहां हुई, वहाँ पर मजदूर यात्रियों का इतना दबाव था कि वह नाकाफी सिद्ध हुआ । इसकी वजह से मजदूरों में आक्रोश व्याप्त हो गया। उन्हें लगा कि पुलिस वाले उन्हें जान-बूझ कर परेशान कर रहे हैं। उनके घर नहीं जाने दे रहे हैं। जबकि वे पैदल ही जाने को तैयार हैं। लेकिन सड़क पर चलते हुए मजदूरों को वाहनों की चपेट में आकर जो दुर्घटनाएँ हुई थी, उससे सबक लेते हुए सरकार और पुलिस प्रशासन ने इस पर भी बंदिश लगा रखी थी।

इसके कारण कई राज्यों की सीमाओं पर मजदूरों और पुलिस में झड़प हुई। उन्हें रोकने के लिए पुलिस को कहीं – कहीं लाठी चार्ज तक करना पड़ा। जिसे इलेक्ट्रानिक्स मीडिया ने प्रमुखता के साथ दिखाया और प्रिंट मीडिया ने प्रमुखता से उसे छापा। पुलिस की इस कार्रवाई पर विपक्षी राजनीतिक दलों ने केंद्र और प्रदेश सरकारों को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की । उन पर तमाम ऐसे सवाल उठाए, जिनका जवाब देना सरकार और प्रशासन दोनों के लिए कठिन प्रतीत हुआ ।

सबसे पहले आइये ऐसे कुछ प्रकरणों पर विचार कर लेते हैं। जिसे मैंने दैनिक भास्कर से साभार लिया है । महाराष्ट्र का खारगाँव टोल नाका। जहां पर 1500-2000 प्रवासी मजदूरों की भीड़ है। इसमें पुरुष और महिलाएं दोनों हैं । उत्तराखंड के रुद्रपुर की रुद्रपुर की अंजू दो छोटे बच्चों के साथ सुबह पांच बजे से कतार में खड़ी हैं। सुबह 4 बजे से प्रतापगढ़ जाने के लिए कतार में लगे संजय बताते हैं कि बस नहीं मिली तो पैदल जाएंगे। संजय कहते हैं कि प्रतापगढ़ जाकर कम से कम भूखे नहीं मरेंगे। संतोष कुमार जो मुंबई के कलवा में 1500 रुपए किराए की खोली में रहते थे। दो महीने से किराया नहीं दे पा रहे थे। उन्हें भदोही जाना है। पत्नी और दो बच्चों के साथ है। उनकी पत्नी अपने 9 माह के बच्चे को दूध पिला रही हैं।

तेजूराम जायसवाल, सत्यधामा और चंद्रभान मिले, जो बस से यूपी के आजमगढ़ जाने के लिए निकले हैं। इन सभी लोगों का काम धंधा बंद हो गया है। साथ ही न तो उनके पास खोली का किराया देने को पैसे अचके हैं, और न ही खाने के । वे लोग कहते हैं कि हम लोगन के पास खाय पिय के कुछ नाय बा। यहां भूखा मरय क नौबत आय गइबा, त का करी? सचिन चौरसिया 40 डिग्री तापमान की कड़ी धूप में जौनपुर जिले के शाहगंज जाने को निकले हैं। मुंबई के कांदिवली इलाके के एक होलसेल दुकान में काम करते थे। दुकान बंद होने के कारण गांव जाने के अलावा उनके पास कोई चारा नहीं है। टोल नाके पर ही हमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी के मूल निवासी मोहम्मद राजू ने कहा कि ट्रेन से जाने के लिए यूपी और महाराष्ट्र दोनों राज्य सरकार की वेबसाइट पर फॉर्म भरा था। जब कहीं पर नाम नहीं आया तो बस से गांव जाने के लिए निकला हूँ। एक शामियाने के नीचे टिमटिमाती रौशनी में राजरानी पेपर प्लेट पर सूखे चावल खा रही हैं उनके पेट में आठ महिना का बच्चा है। उन्हें बांदा जाना है। वे बताती हैं कि उनके पति का नामा दीपक है, जो मुंबई के एक रेस्त्रा में बावर्ची थे। मालिक ने न तो पैसे दिए, न सहारा, उल्टा नौकरी से निकाल दिया। मैं तो मुंबई से आना नहीं चाहती थी। क्योंकि गांव में भी काम नहीं है लेकिन जब पति की नौकरी नहीं रही तो क्या करते, पति के पीछे-पीछे जाना पड़ रहा है। राजरानी के जेठ भी उनके साथ जा रहे हैं।

प्रवीण के पति नवाज़ुद्दीन का अलीबाग में सैलून था। तीन महीने से बंद है। खाने के लाले पड़ने लगे तो वे घर के लिए रवाना हुए है । उनकी पत्नी पेट से हैं, समय पूरा हो चुका है और कभी भी बच्चा हो सकता है। दो दिन में ट्रक से लिफ्ट लेते-लेते यहां तक पहुंचीं। घर कब पहुंच पाएंगे, इसका उन्हें अंदाजा नहीं है।बस्ती जाने वाली आसिया खातून बताती है कि पति भंगार का काम करते थे। लॉक डाउन की वजह से काम बंद हो गया। अब घर जा रहे हैं। घर में हालांकि काम नहीं है लेकिन वहाँ भूखे नहीं मरेंगे। आसिया खातून की गोद में छह महीने का बच्चा है, जिसे दूध चाहिए। खाने को नहीं मिल रहा है इसलिए आसिया का दूध नहीं उतर रहा है, बच्चा रो रो कर पागल हो रहा है। मीरा यादव की गोद में कुछ दिन का बच्चा है। वह अकेली है। उन्हें बस्ती जाना है। वह बताती हैं कि हमारे पास इतने पैसे भी नहीं थे कि पति मेरे साथ आ पाते। मैं अकेली 15 दिन के बच्चे को उठाकर धक्के खाती हुई यहां तक पहुंची हूँ । टांके में इतना दर्द है कि जान निकल रही है। किसी का हाथ छू जाता है तो ऐसा लगता है किसी ने काट दिया हो। यह देखने में आया कि मराठीभाषी परिवार के लोग चंदा करके इन लोगों के खाने पीने की व्यवस्था में लगे हुए हैं। एक संथा ने 20 हजार रुपए जमा कर उत्तर प्रदेश बिहार के लोगों को पानी, बिस्किट, पुलाव जैसी खाने के चीजें वितरित कर रहे थे।

सभी प्रदेशों की सीमाओं पर यह देखने को मिला कि वहाँ जैसे ही बसें आती, लोग उसमें बैठने के लिए टूट पड़ते। एकाएक लोग आती हुई बस की ओर हजारो लोग दौड़ पड़ते। जिसकी वजह से अफरा-तफरी मच जाती ।

जब मजदूरों को सुनते हैं, तो उनकी व्यथा कथा सुन कर किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के आँखों में आँसू आ सकता है।

इस संबंध में मैंने कुछ पुलिस वालों से बात की। अपना नाम न छापने की शर्त पर उन्होने कहा कि हम मजदूरों की विवशता को समझते हैं। लेकिन अधिकारियों ने उन्हें रोकने के लिए सख्त निर्देश दिये हैं, अगर हम उसका पालन नहीं करेंगे, तो वे हम पर कार्रवाई करेंगे। इन्हें भी कहीं पास में तो जाना नहीं है, दूर – दूर जाना है। अगर हम छोड़ भी देंगे, तो आगे उन्हें दूसरे पुलिस वाले रोक लेंगे। हम पर जो कार्रवाई होगी, सो अलग । पुलिस के जवानों ने यह भी बताया कि साहब हम लोगों को लगातार ड्यूटी करते लगभग दो महीने हो गए। ठीक से न तो सोने को मिल पा रहा है, और न खाने को । हम भी भूख प्यास से लड़ते हुए ड्यूटी कर रहे हैं ।

जब दोनों की बातें सुनता हूँ, तो मुझे न तो सरकार की गलती समझ में आती है, न मजदूरों की गलती दिखाई देती है, उनकी जगह कोई भी होता, वही करता, न उन्हें रोकने वाले पुलिस की गलती दिखाई पड़ रही है। गलती अगर दिखाई पड़ रही है, जिनके कंधों पर सरकार ने इसका जिम्मा डाला है। उन्होने सोशल डिस्टेन्सिंग का पालन करते हुए न तो उनके रुकने की व्यवस्था की। न तो उनके जाने की व्यवस्था की । न तो उनके लिए पर्याप्त भोजन की भोजन की व्यवस्था की और न पीने के लिए पानी की व्यवस्था की । कहीं पर अगर व्यवस्था दिखाई पड़ी, तो वह भी नाकाफी साबित हुई। अगर सरकार और प्रशासन का प्रबंधन ठीक होता। मजदूरों को जानकारी देने का सिस्टम ठीक होता तो जो मंजर कल प्रदेशों और जिलो की सीमाओं पर देखने को मिले, न मिलता ।

इस तरह सीमाओं पर घाटी समस्त घटनाओं से सबक लेते हुए प्रशासन और सरकार दोनों को मजदूरों के लिए खाने – पीने से लेकर जब तक साधन न उपलब्ध हो जाए, तब उचित कम्यूनिकेशन का प्रबंध करना चाहिए। इससे न तो मजदूरों को कष्ट होगा, न सरकार और प्रशासन की किरकिरी होगी । ऐसा भी किया जा सकता है कि राज्यों के साथ उचित समन्वय स्थापित किया जाए, वहाँ से एक बस आने वाली हो, उसके पहले यहाँ उन्हें आगे ले जाने के लिए बस तैयार कर ली जाए। जिससे बिना किसी प्रकार के झंझट के उन्हें उनके गाँव के जिला मुख्यालय तक पहुंचाया जा सके ।

प्रोफेसर डॉ. योगेन्द्र यादव

पर्यावरणविद, शिक्षाविद, भाषाविद,विश्लेषक, गांधीवादी /समाजवादी चिंतक, पत्रकार, नेचरोपैथ व ऐक्टविस्ट

दूर संचार क्रान्ति और गरीब, मजदूर की आर्थिक बदहाली – प्रोफेसर (डॉ.) योगेन्द्र यादव

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