मोदीजी आज संध्या फिर राष्ट्र को सम्बोधित करेंगे।

Update: 2020-05-12 14:46 GMT


मुझे लगता है कि सम्बोधन की लालसा ही मानव इतिहास के सारे विवादों की जड़ है। हर व्यक्ति चाहता है कि वह दूसरों को सम्बोधित करे। हर व्यक्ति के पास कहने के लिए बात है, पर सुनने वाला श्रोता नहीं है। देने को ज्ञान है, पर कोई लेने वाला नहीं। व्यक्ति का रोम-रोम चाहता है कि उसे कम से कम एक बार भी सम्बोधन का मौका मिले, पर नहीं मिलता। उसका मन हुलसता है, जी मचलता है, आत्मा तड़पती है, कलेजा कुहूकता है, पर मौका नहीं मिलता। वह गाता रहता है, "मौका मिलेगा तो हम बता देंगे, तुम्हें कितना प्यार करते हैं सनम..."

आप चुनाव लड़ रहे किसी नेता का इंटरव्यू सुनिए। वह मुँह से भले कहता हो कि वह जनता की सेवा करना चाहता है, उसकी आंखें तड़प कर बताती हैं कि वह केवल जनता को सम्बोधित करना चाहता है। मैं कई नेताओं को पर्सनली जानता हूँ जो चुनाव जीतने के लिए नहीं, जनता को सम्बोधित करने के लिए लड़ते हैं।

पति चाहता है कि वह पत्नी को सम्बोधित करे! वह दबे पाँव सम्बोधित करने जाता है, तबतक पत्नी ही उसे सम्बोधित कर देती है। वह मुँह सुखा कर वापस लौट जाता है।

जब कोई कवि कविता लिखता है तो मन ही मन चाहता है कि ऐसी कालजयी कविता लिख दे कि दस हजार श्रोताओं को एक साथ सम्बोधित करने का मौका मिले। जब कोई लेखक कोई लेख लिखता है तो उसका अंग अंग उसके साथ लेखन करता है। वह चाहता है कि उसकी कृति इतनी प्रसिद्ध हो जाय कि उसे बड़े मंचों पर सम्बोधित करने के लिए बुलावा आये। पर ऐसा होता नहीं, पाठक उसे इतनी सफाई से जलील करते हैं कि उसकी सारी आशाएं ध्वस्त हो जाती हैं।

दूसरों की क्या कहूँ, मेरी ही सुनिए। पिछले दिनों मेरी एक फेसबुक पोस्ट पर आठ घण्टे में ही तीन हजार लाइक आ गए। मैं दिन में ही स्वप्न देखने लगा कि मैं एक बड़ी भीड़ को सम्बोधित कर रहा हूँ और हजारों लोग धन्य-धन्य कर रहे हैं। अचानक एक बुजुर्ग मित्र ने पोस्ट पर टिप्पणी की, "लिखा तो आपने ठीक ही है, पर अभी कलम को और धार देने की आवश्यकता है।" मेरा स्वप्न टूट गया। मेरी सारी आशाएं एकाएक ध्वस्त हो गईं। मैंने मन ही मन उनको बाइबल सुनाते हुए कहा, "अगली बार तलवार से लिखूंगा..."

मुझे लगता है कि सम्बोधन का मौका यूँ ही नहीं मिलता। उसके लिए प्रचंड भाग्य और सतत प्रयास की आवश्यकता होती है। बुजुर्गों ने कहा है, "सौ सौ जूते खाय तमाशा घुस के देखो..."

मेरे एक मित्र हैं गण्डगोल मिसीर! घोर वामपन्थी हैं, हर बात का विरोध करते हैं। आजकल मोदी जी के पीछे पड़े हुए हैं। जब सरकार ने लॉक डाउन लगाया तो उसका विरोध किये, अब जब सरकार ढील दे रही है तो उसका भी विरोध कर रहे हैं। कल मेरी उनसे बात हुई तो बोले, "देखो तिवारी! हमें मोदी से कोई दिक्कत नहीं है, पर जब वह जनता को सम्बोधित करता है तो लगता है कि हमारे पीठ पर सौ सौ कोड़े गिर रहे हैं। यार हमारे होते कोई और जनता को सम्बोधित करे और हम सहन कर लें? यह हरामखोर जनता इस सरकार को उखाड़ क्यों नहीं फेंकती..." मैंने देखा, उनका चेहरा लाल हो गया था, उनके हाथ की नशें फूल गयीं थी और रोआँ-रोआँ खड़ा हो गया था। मैंने प्रेम से कहा, "कंट्रोल करो यार, नहीं तो ब्रेन में हेमरेज हो जाएगा।"

मित्र आजकल अकेले खेत में खड़े हो कर परती को सम्बोधित करते हैं, "मेरे साथियों...."

मुझे लगता है कि स्वर्ग में और कुछ मिले न मिले, सम्बोधित करने का मौका जरूर मिलता होगा। सच पूछिए तो जिसे सम्बोधन का मौका मिल जाय उसके लिए यहीं स्वर्ग है।

जो सम्बोधित करने का अवसर पा जाते हैं, वे मोदी कहलाते हैं। जिन्हें अनेक प्रयासों के बाद भी सम्बोधन का मौका नहीं मिलता, वे कुढ़ते हुए राहुलत्व को प्राप्त होते हैं। यही इस मृत्युलोक का सत्य है।

सर्वेश तिवारी श्रीमुख

गोपालगंज, बिहार।

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