सप्तऋषि आरती क्या है और सप्तऋषि आरती के अर्चकों का रोका जाना क्यों अतिकष्टदायक और चिंतनीय है…..
वैष्णव बाबा की क़लम से...
संकलन ..प्रेम मिश्र
काशी के ज्यादातर लोग और शायद विश्वनाथ मंदिर के CEO विशाल सिंह भी शायद सप्तरिषि आरती के इतिहास और परंपरा को नहीं जानते... और ना ही सप्तरिषि आरती करने वाले अर्चकों के बारे में जानते हैं..
मेरे ख्याल से वो सप्तरिषि आरती को महंत परिवार की निजी आरती भर ही जानते हैं.. जो बहुत बड़ी मूर्खता मात्र ही है..
कहने का तात्पर्य ये है कि शायद वो ये भी नहीं जानते कि ये अर्चक कैसे नियुक्त होते हैं..
मुझे तो ये भी लगता है कि काशी के ज्यादातर जनप्रतिनिधि भी इससे पूरी तरह अनभिज्ञ हैं.. क्योंकि यदि वो जानते होते तो यूं शांत ना बैठे होते और विवाद हल हो चुका होता.. ऐसा होने के जिम्मेदार दंडित हो चुके होते..
वो शायद इस आरती की विलक्षणता से परिचित ही नहीं हैं जबकि देश के अन्य हिस्सों से आने वाले भक्तों को इसके बारे में ज्यादा पता होता है.. खास कर महाराष्ट्र और दक्षिण से आने वाले भक्त इसके महत्व को ज्यादा जानते हैं..
जिन्होंने भी इस आरती को पूरे मनोयोग से देखा हो शायद वो मेरी बात को ज्यादा भलीभांति समझ सकता है..
इस आरती में विशेष स्वर है ...अद्भुत सुर है.. घंटियो घंटे और डमरू से बजाए जाने वाला संगीत है ... और हाथों और दीपक से की जाने वाली विभिन्न मुद्राएं भी हैं..
कुल मिला कर इस आरती को एक बार भी देखना बहुत बड़ा सौभाग्य ही कहा जा सकता है.. ये पूरे भारत की अनूठी आरती है..
मेरा विश्वनाथ मंदिर के यलो जोन में करीब 150 वर्ष पुराना मकान है.. मैं ना ही मंदिर से जुड़ा हूं और ना ही मैॆ ब्राम्हण हूं... मेरे दादा परदादा पिताजी सभी बाबा विश्वनाथ के नियमित भक्त रहे हैं.. और मैं भी उसी श्रृंखला का ही हूं.. उनके अनुसार किसी बड़े से बड़े विद्वान सगीतज्ञ को भी शुद्ध शैली में सप्तरिषि आरती करने के लिए बहुत मेहनत करने के बाद ही ये विधा प्राप्त हो सकती है..
दरअसल मैं भी कोई इतिहासकार नहीं हूं पर बड़े बुजुर्गों और काशी के शिवभक्तों के साथ उठा बैठा हूं.. उनसे प्राप्त जानकारी ही मेरे पास है...
पर सप्तरिषि आरती के अर्चकों को रोके जाने की घटना ने मुझे झकझोर दिया है..
तो मुझे लगा कि मुझे इसके बारे में मेरी जानकारी औरों से साझा करनी चाहिए..
दरअसल औरंगजेब द्वारा विश्वनाथ मंदिर तोड़े जाने के बाद जब मराठोॆं ने जवाबी हमला किया तो औरंगजेब द्वारा बीच का रास्ता निकालने की मजबूरी में उस वक्त वर्तमान के विश्वनाथ मंदिर बनने की नींव पड़ी ... और अहिल्याबाई होलकर द्वारा निर्माण सम्पन्न हुआ.. और उस वक्त की व्यवस्था में अहिल्याबाई व समस्त भारत के विद्वानों वर्तमान के महंत परिवार के पूर्वजों को महंत का विभिन्न स्टेटों और अखाडों को सप्तरिषि पूजा अर्चना का दायित्व मिला.. और सात रिषि नियुक्त किए गए.. जिस परंपरा के तहत ही आज के सप्तरिषि पुजारी आते हैं.. इस व्यवस्था में महंत परिवार को मुख्य अर्चक की भूमिका मिली जो आज तक चली आ रही है.. परन्तु महंत परिवार सप्तरिषि परंपरा के ना ही किसी अर्चक को नियुक्त कर सकते हैं ना ही हटा सकते हैं बल्कि सारे ही एक साथ सप्तरिषि आरती करने को बाध्य होते हैं...
परन्तु सप्तरिषि अर्चकों में सारे अर्चक महंत परिवार के मुख्य अर्चक की भांति वंशानुगत ही नहीं होते हैं.. इसमें हमेशा योग्यता ही मानक होती है.. यदि किसी अर्चक के परिवार में कोई इस आरती के योग्य नहीं होता है तो वो स्वयं द्वारा लम्बे समय तक प्रशिक्षित किसी शिष्य को ये जिम्मेदारी सौंप देता है.. वर्तमान, के लगभग सारे अर्चक भी उसी विधी से नियुक्त हुए हैं.. असमें कोई दो पीढ़ी से है तो कोई चार पीढ़ी से.. शायद ही कोई अहिल्याबाई द्वारा नियुक्त परिवार का हो.... क्योंकि ये संभव नहीं होता है कि सारे अर्चकों के पुत्र भी इस विधा को सीख सकें..
सप्तरिषि आरती के अर्चक मात्र इसी आरती के वक्त मंदिर में प्रवेश करते हैं और करीब घंटे भर की आरती के बाद अपनी डलिया के साथ मंदिर से निकल जाते हैं.. और चंदन प्रसाद देते हुए अपने घरों की तरफ चल देते हैं.. इस दौरान उन्हें जो दक्षिणा मिलती है वो ही इनकी आय होती है.. और इनकी आरती की डलिया में प्रतिदिन की आरती सामग्री भी विभिन्न भक्तों के सहयोग से आती है.. कोई मिष्ठान देता है कोई माला कोई विजया कोई दही तो कोई शहद तो कोई फल.. इनका मंदिर में रहने का कार्यकाल लगभक एक डेढ़ घंटे का होता.. और आरती के दौरान मंदिर प्रशासन द्वारा नियुक्त पुजारी भी मौजूद रहते हैं...
सारे ही सप्तरिषि के अर्चकों के घर के सदस्य आरती की डलिया तैयार करने में नियमित सहयोग करते हैं.. कोई चंदन घीसता है कोई भांग तो कोई माला बनाता है.. कोई डलिया आरती घंटी माज कर प्रतिदिन नए की भांति चमकाता रहता है... फिर मंदिर जाने के रास्ते में तय लोगों से ये पुजारी दूध दही फल भांग देने वाले नियम्त लोगों से नियमित तय समाग्री लेते हुए मंदिर जाते हैं.. कुल मिला आरती के आरती की डलिया और पुजारी के तैयार होने की प्रक्रिया घंटों की होती है इसके अलावा आरती के बाद की प्रक्रिया भी वैसी ही घंटों की होती है..
महंत परिवार के अलावा सारे अर्चक बेहद ही सामान्य जीवन यापन करने वाले और आम जीवन में बेहद मर्यादित होते हैं.. कुछ तो आज तक किराए के मकानोॆ में भी रहते हैं..
और सबसे बड़ी बात कि ये कि ये कि ये दिनभर मंदिर के ईर्द-गिर्द घूमने वाले पंडों की तरह नहीं होते... जो यात्रियों से पैसे ऐंठते हैं...
और ये अर्चक वर्षों की कड़ी मेहनत और प्रशिक्षण के बाद तैयार होते हैं.. फिर जीवन भर वो इसी कार्य को करते चले जाते हैं...
जबकि मैने कइयों से बात की तो अहसास हुआ कि लोग पूरी तरह से इस बात से अनभिज्ञ हैं.. वो इसे भी वैसी ही आरती समझते हैं जिसे कोई भी कर सकता है..
पर सच यही है कि सप्तरिषि आरती वही कर सकता है जिसने इसके लिए अपना जीवन समर्पित किया हो...
परन्तु मंदिर प्रशासन ने इसे एक प्रोजेक्ट भर समझा... विद्वानों द्वारा बनाई परंपरा को अपने अहंकार वश एक अभिनय भर माना और जिस विद्वानोॆ द्वारा बनाई व्यवस्था ने आज तक आरती की इस शैली संजोया उसे ध्वस्त कर दिया.. और मुख्य अर्चक या अन्य सप्तरिषि अर्चक बनने का स्वप्न पाले कुछ लोगों को मिला कर आरती का वीडियो प्रसारित कर दिया... पर जो लोग सप्तरिषि आरती का सदैव आनंद लेते रहे हैं वो अभी होने वाली आरती देख कर ये आसानी से समझ सकते हैं कि इसमें देखने भर से ये पता चल जा रहा है कि इसमें उर्जा स्वर भावभंगिमा आदि की असंख्य त्रुटि हो रही है जो मूल सप्तरिषियों के बिना हो पाना असंभव ही है..
कहते हैं कि पहले कहा जाता था कि काशी में शव और सप्तरिषि की राह में कभी बाधा नहीं हो सकती.. पर हो ही गई..
मैं ये मानता हूं कि विशाल सिंह और महंत परिवार में शुरू से ही खींचा तानी आरोप प्रत्यारोप आदी चलता रहा है.. कभी एक भारी तो कभी दूसरा... पर हर विषय विधिक तरीके से चल रहा था...
कैलाश मंदिर के गुम्बद टूटने के बारे में कुछ अफवाह उड़ी या उड़ाई गई.. ये विषय महंत और विशाल सिंह के बीच का था.. जिसमें दोनों पक्ष की अपनी अपनी दलीलें हैं..
पर इसबार लगता है विशाल सिंह ने महंत परिवार को सबक सिखाने की सोंची.. और उन्हें मौका मिला कैलाश मंदिर के नाम पर और सहायक बना करोना की वजह से हुआ लाकडाउन..
और गब्बर ने सप्तरिषि आरती को महंत की आरती मान कर सारे सप्तरिषियों सहित रोक दिया.. और कहानी गढ़ी की सारे अर्चक महंत को प्रवेश ना देने के खिलाफ सड़क पर आरती करने बैठ गए... जबकि मंदिर प्रशासन पहले से ही आरती कराने की व्यवस्था कर चुका था... उन्होंने आरती से पहले ही एक पुराने पुजारी को मिला कर नए पुजारियों द्वारा आरती करा दी और बाबा की आरती होते हुए वीडियो पोस्ट करने लगा.. और जनता में ये बड़े गर्व से कहान शुरू कर दिया कि सप्तरिषियों के बिना भी उन्होने आरती करा दी...
जबकि ऐसा करने के पीछे विशाल सिंह का खुद को सही साबित करने का अहंकार मात्र ही था.. सामान्यतः महंत गुड्डू महाराज या अन्य सात अर्चक मंदिर के अलग अलग गेट से अकेले ही रोज मंदिर में प्रवेश करते थे और मंदिर में जा कर ही मिलते थे... जब उनको उन गेटोॆ से प्रवेश नहीं मिला तब सारे ज्ञानवापी गेट पर इकट्ठा हुए.. वहां भी उन्हें काफी समय तक उलझाए रखा गया.. वायरलेस पर वार्ताएं चलने लगी.. अधिकारी थोड़ी देर में बताता हूं जैसी बातें करने लगे.. सुरक्षा कर्मियों ने कहा वायरलेस कराइये तो जाने दिया जाएगा...
पर विशाल सिंह जी ने सोशल मीडिया का बड़ा चतुराई से प्रयोग कर स्वयं को सही साबित करने की कोशिश की..
कहने को बहुत कुछ है बहुत आक्रोश है... मेरा किसी संत महंत या पुजारी से कोई वास्ता नहीं परन्तु सप्तरिषि आरती की प्राचीन व्यवस्था से बहुत लगाव है.. और ऐसा की अन्य काशीवासियों का भी है... मुझे उस दिन की सारी जानकारी इसलिए है क्योंकि लाकडाउन के बाद बाबा की आरती के लिए विजया मैं पीस के उन्हे प्रतिदिन देने गेट नम्बर एक पर जाता था... क्योंकि मुझे पता चला था कि लाकडाउन के कारण आरती के लिए विजया उपलब्ध नहीं हो पा रही थी.. और उस दिन भी मैं गया था.. और जो भी, हुआ मैं उसका प्रत्यक्षदर्शी रहा हूं...
एक दृष्टिकोण से सोंचें तो महंत परिवार का विशाल सिंह से या विशाल सिंह का महंत परिवार से कड़वाहट का ये नतीजा निकलेगा कि सबक सिखाने के जुनून में एक अधिकारी सप्तरिषि आरती की सैकड़ों वर्ष पुरानी परंपरा दांव पर लगा के बाजी जीतने की कोशिश करेगा .. सप्तरिषि अर्चकों को दफ्तर में बैठा के मानसिक प्रताड़ित किया जाएगा.. उनसे माफीनामा लिखवाया जाएगा.. और दावा किया जाएगा की सबकुछ सामान्य है.. ये बेहद ही शर्मनाक स्थिति है...
यदि किसी एक परिवार से दिक्कत थी तो उन्हें रोका जा सकता था.. गिरफ्तार किया जा सकता था नजरबंद किया जा सकता था.. जिसका सही गलत का फैसला प्रशासन नेता या विद्वान बाद में करते रहते..
परंतु सप्तरिषि आरती रोक कर विशाल सिंह जी ने मेरे हिसाब से जाने अनजाने में कठोर दंड पाने योग्य कार्य किया है..
विशाल सिंह विश्वनाथ धाम जैसे अधिग्रहण कर बनाए जाने वाले प्रोजेक्ट के लिए बहुत की काबिल अधिकारी हैं.. उनके जैसे अधिकारी के बिना ये प्रोजेक्ट होना असंभव था पर उसके साथ ही वो अहंकारी हैं.. वो धार्मिक परंपराओं को एक इवेंट से ज्यादा शायद नहीं समझते हैं.. ऐसे लोगों के हाथों मंदिर के ऐसे विषयों पर किसी भी प्रकार की कार्यवाही करने के अधिकार छीन लेने चाहिए...
इतनी अव्यवस्था के बीच भी काशी के विद्वान चुप हैं.. जन प्रतिनिधि भी ऐसे हैं जो जांच और बैठक की बातें कर रहे हैं.. कुछ लोग इसे मात्र मंदिर के पंडों का विषय समझ रहे हैं.. कुछ तो कहना है सप्तरिषि आरती का पुजारी बनने का अधिकार किसी को भी होना चाहिए.. अखाड़ों स्टेटों की बनी परंपरा का उन्हें पता नहीं.. कुछ इसलिए विशाल सिंह के कृत्य का समर्थन कर रहे हैं क्योंकि वो भाजपाई हैं या मंत्रियों से जुड़े हैं... सभासद या संगठन के पदाधिकारी स्तर के लोग तो एक दम अदृश्य हो गए लगते हैं.... मुझे सोशल मीडिया पर कुछ लोग तो ऐसे दिखे जो विशाल सिंह के सजातिय है मात्र इसलिए बिना घटना को जाने ही समर्थन करने लगे..
बाकी जिसको जो सोंचना है वो स्वयं सोंचे.. कि क्या काशी विश्वनाथ की परंपराओं पुजारी आदि का निर्णय लेने की व्यवस्था किसी अति उत्साही दबंग के हाथों शुद्ध या सुरक्षित रह सकती है क्या...??
दिक्कत ये भी है कि मीडिया और नेता इसे मात्र महंत परिवार तक ही सीमित मान कर बोल या लिख रहे हैं... जबकि महत्वपूर्ण है सप्तरिषि आरती ...जो कि किसी व्यक्ति के समर्थन या, विरोध से ऊपर की बात है...
मेरी काशी के जनप्रतिनिधियों और उच्चाधिकारियों से ये गुजारिश है कि वो काशी के विद्वानों से मिलें ... और इस घटना की गहराई को, समझें.. और सप्तरिषि आरती के अर्चकों के बारे में जल्द निर्णय लेॆ.. और उनके रहते हुए ऐसा पाप होने के लिए विशाल सिंह के, साथ स्वयं भी प्रायश्चित करें...
#सप्तरिषिआरतीक्याहैऔरसप्तरिषिआरतीकेअर्चकोंकारोकाजानाक्योंअतिकष्टदायकऔरचिंतनीय_है…..
काशी के ज्यादातर लोग और शायद विश्वनाथ मंदिर के CEO विशाल सिंह भी शायद सप्तरिषि आरती के इतिहास और परंपरा को नहीं जानते... और ना ही सप्तरिषि आरती करने वाले अर्चकों के बारे में जानते हैं..
मेरे ख्याल से वो सप्तरिषि आरती को महंत परिवार की निजी आरती भर ही जानते हैं.. जो बहुत बड़ी मूर्खता मात्र ही है..
कहने का तात्पर्य ये है कि शायद वो ये भी नहीं जानते कि ये अर्चक कैसे नियुक्त होते हैं..
मुझे तो ये भी लगता है कि काशी के ज्यादातर जनप्रतिनिधि भी इससे पूरी तरह अनभिज्ञ हैं.. क्योंकि यदि वो जानते होते तो यूं शांत ना बैठे होते और विवाद हल हो चुका होता.. ऐसा होने के जिम्मेदार दंडित हो चुके होते..
वो शायद इस आरती की विलक्षणता से परिचित ही नहीं हैं जबकि देश के अन्य हिस्सों से आने वाले भक्तों को इसके बारे में ज्यादा पता होता है.. खास कर महाराष्ट्र और दक्षिण से आने वाले भक्त इसके महत्व को ज्यादा जानते हैं..
जिन्होंने भी इस आरती को पूरे मनोयोग से देखा हो शायद वो मेरी बात को ज्यादा भलीभांति समझ सकता है..
इस आरती में विशेष स्वर है ...अद्भुत सुर है.. घंटियो घंटे और डमरू से बजाए जाने वाला संगीत है ... और हाथों और दीपक से की जाने वाली विभिन्न मुद्राएं भी हैं..
कुल मिला कर इस आरती को एक बार भी देखना बहुत बड़ा सौभाग्य ही कहा जा सकता है.. ये पूरे भारत की अनूठी आरती है..
मेरा विश्वनाथ मंदिर के यलो जोन में करीब 150 वर्ष पुराना मकान है.. मैं ना ही मंदिर से जुड़ा हूं और ना ही मैॆ ब्राम्हण हूं... मेरे दादा परदादा पिताजी सभी बाबा विश्वनाथ के नियमित भक्त रहे हैं.. और मैं भी उसी श्रृंखला का ही हूं.. उनके अनुसार किसी बड़े से बड़े विद्वान सगीतज्ञ को भी शुद्ध शैली में सप्तरिषि आरती करने के लिए बहुत मेहनत करने के बाद ही ये विधा प्राप्त हो सकती है..
दरअसल मैं भी कोई इतिहासकार नहीं हूं पर बड़े बुजुर्गों और काशी के शिवभक्तों के साथ उठा बैठा हूं.. उनसे प्राप्त जानकारी ही मेरे पास है...
पर सप्तरिषि आरती के अर्चकों को रोके जाने की घटना ने मुझे झकझोर दिया है..
तो मुझे लगा कि मुझे इसके बारे में मेरी जानकारी औरों से साझा करनी चाहिए..
दरअसल औरंगजेब द्वारा विश्वनाथ मंदिर तोड़े जाने के बाद जब मराठोॆं ने जवाबी हमला किया तो औरंगजेब द्वारा बीच का रास्ता निकालने की मजबूरी में उस वक्त वर्तमान के विश्वनाथ मंदिर बनने की नींव पड़ी ... और अहिल्याबाई होलकर द्वारा निर्माण सम्पन्न हुआ.. और उस वक्त की व्यवस्था में अहिल्याबाई व समस्त भारत के विद्वानों वर्तमान के महंत परिवार के पूर्वजों को महंत का विभिन्न स्टेटों और अखाडों को सप्तरिषि पूजा अर्चना का दायित्व मिला.. और सात रिषि नियुक्त किए गए.. जिस परंपरा के तहत ही आज के सप्तरिषि पुजारी आते हैं.. इस व्यवस्था में महंत परिवार को मुख्य अर्चक की भूमिका मिली जो आज तक चली आ रही है.. परन्तु महंत परिवार सप्तरिषि परंपरा के ना ही किसी अर्चक को नियुक्त कर सकते हैं ना ही हटा सकते हैं बल्कि सारे ही एक साथ सप्तरिषि आरती करने को बाध्य होते हैं...
परन्तु सप्तरिषि अर्चकों में सारे अर्चक महंत परिवार के मुख्य अर्चक की भांति वंशानुगत ही नहीं होते हैं.. इसमें हमेशा योग्यता ही मानक होती है.. यदि किसी अर्चक के परिवार में कोई इस आरती के योग्य नहीं होता है तो वो स्वयं द्वारा लम्बे समय तक प्रशिक्षित किसी शिष्य को ये जिम्मेदारी सौंप देता है.. वर्तमान, के लगभग सारे अर्चक भी उसी विधी से नियुक्त हुए हैं.. असमें कोई दो पीढ़ी से है तो कोई चार पीढ़ी से.. शायद ही कोई अहिल्याबाई द्वारा नियुक्त परिवार का हो.... क्योंकि ये संभव नहीं होता है कि सारे अर्चकों के पुत्र भी इस विधा को सीख सकें..
सप्तरिषि आरती के अर्चक मात्र इसी आरती के वक्त मंदिर में प्रवेश करते हैं और करीब घंटे भर की आरती के बाद अपनी डलिया के साथ मंदिर से निकल जाते हैं.. और चंदन प्रसाद देते हुए अपने घरों की तरफ चल देते हैं.. इस दौरान उन्हें जो दक्षिणा मिलती है वो ही इनकी आय होती है.. और इनकी आरती की डलिया में प्रतिदिन की आरती सामग्री भी विभिन्न भक्तों के सहयोग से आती है.. कोई मिष्ठान देता है कोई माला कोई विजया कोई दही तो कोई शहद तो कोई फल.. इनका मंदिर में रहने का कार्यकाल लगभक एक डेढ़ घंटे का होता.. और आरती के दौरान मंदिर प्रशासन द्वारा नियुक्त पुजारी भी मौजूद रहते हैं...
सारे ही सप्तरिषि के अर्चकों के घर के सदस्य आरती की डलिया तैयार करने में नियमित सहयोग करते हैं.. कोई चंदन घीसता है कोई भांग तो कोई माला बनाता है.. कोई डलिया आरती घंटी माज कर प्रतिदिन नए की भांति चमकाता रहता है... फिर मंदिर जाने के रास्ते में तय लोगों से ये पुजारी दूध दही फल भांग देने वाले नियम्त लोगों से नियमित तय समाग्री लेते हुए मंदिर जाते हैं.. कुल मिला आरती के आरती की डलिया और पुजारी के तैयार होने की प्रक्रिया घंटों की होती है इसके अलावा आरती के बाद की प्रक्रिया भी वैसी ही घंटों की होती है..
महंत परिवार के अलावा सारे अर्चक बेहद ही सामान्य जीवन यापन करने वाले और आम जीवन में बेहद मर्यादित होते हैं.. कुछ तो आज तक किराए के मकानोॆ में भी रहते हैं..
और सबसे बड़ी बात कि ये कि ये कि ये दिनभर मंदिर के ईर्द-गिर्द घूमने वाले पंडों की तरह नहीं होते... जो यात्रियों से पैसे ऐंठते हैं...
और ये अर्चक वर्षों की कड़ी मेहनत और प्रशिक्षण के बाद तैयार होते हैं.. फिर जीवन भर वो इसी कार्य को करते चले जाते हैं...
जबकि मैने कइयों से बात की तो अहसास हुआ कि लोग पूरी तरह से इस बात से अनभिज्ञ हैं.. वो इसे भी वैसी ही आरती समझते हैं जिसे कोई भी कर सकता है..
पर सच यही है कि सप्तरिषि आरती वही कर सकता है जिसने इसके लिए अपना जीवन समर्पित किया हो...
परन्तु मंदिर प्रशासन ने इसे एक प्रोजेक्ट भर समझा... विद्वानों द्वारा बनाई परंपरा को अपने अहंकार वश एक अभिनय भर माना और जिस विद्वानोॆ द्वारा बनाई व्यवस्था ने आज तक आरती की इस शैली संजोया उसे ध्वस्त कर दिया.. और मुख्य अर्चक या अन्य सप्तरिषि अर्चक बनने का स्वप्न पाले कुछ लोगों को मिला कर आरती का वीडियो प्रसारित कर दिया... पर जो लोग सप्तरिषि आरती का सदैव आनंद लेते रहे हैं वो अभी होने वाली आरती देख कर ये आसानी से समझ सकते हैं कि इसमें देखने भर से ये पता चल जा रहा है कि इसमें उर्जा स्वर भावभंगिमा आदि की असंख्य त्रुटि हो रही है जो मूल सप्तरिषियों के बिना हो पाना असंभव ही है..
कहते हैं कि पहले कहा जाता था कि काशी में शव और सप्तरिषि की राह में कभी बाधा नहीं हो सकती.. पर हो ही गई..
मैं ये मानता हूं कि विशाल सिंह और महंत परिवार में शुरू से ही खींचा तानी आरोप प्रत्यारोप आदी चलता रहा है.. कभी एक भारी तो कभी दूसरा... पर हर विषय विधिक तरीके से चल रहा था...
कैलाश मंदिर के गुम्बद टूटने के बारे में कुछ अफवाह उड़ी या उड़ाई गई.. ये विषय महंत और विशाल सिंह के बीच का था.. जिसमें दोनों पक्ष की अपनी अपनी दलीलें हैं..
पर इसबार लगता है विशाल सिंह ने महंत परिवार को सबक सिखाने की सोंची.. और उन्हें मौका मिला कैलाश मंदिर के नाम पर और सहायक बना करोना की वजह से हुआ लाकडाउन..
और गब्बर ने सप्तरिषि आरती को महंत की आरती मान कर सारे सप्तरिषियों सहित रोक दिया.. और कहानी गढ़ी की सारे अर्चक महंत को प्रवेश ना देने के खिलाफ सड़क पर आरती करने बैठ गए... जबकि मंदिर प्रशासन पहले से ही आरती कराने की व्यवस्था कर चुका था... उन्होंने आरती से पहले ही एक पुराने पुजारी को मिला कर नए पुजारियों द्वारा आरती करा दी और बाबा की आरती होते हुए वीडियो पोस्ट करने लगा.. और जनता में ये बड़े गर्व से कहान शुरू कर दिया कि सप्तरिषियों के बिना भी उन्होने आरती करा दी...
जबकि ऐसा करने के पीछे विशाल सिंह का खुद को सही साबित करने का अहंकार मात्र ही था.. सामान्यतः महंत गुड्डू महाराज या अन्य सात अर्चक मंदिर के अलग अलग गेट से अकेले ही रोज मंदिर में प्रवेश करते थे और मंदिर में जा कर ही मिलते थे... जब उनको उन गेटोॆ से प्रवेश नहीं मिला तब सारे ज्ञानवापी गेट पर इकट्ठा हुए.. वहां भी उन्हें काफी समय तक उलझाए रखा गया.. वायरलेस पर वार्ताएं चलने लगी.. अधिकारी थोड़ी देर में बताता हूं जैसी बातें करने लगे.. सुरक्षा कर्मियों ने कहा वायरलेस कराइये तो जाने दिया जाएगा...
पर विशाल सिंह जी ने सोशल मीडिया का बड़ा चतुराई से प्रयोग कर स्वयं को सही साबित करने की कोशिश की..
कहने को बहुत कुछ है बहुत आक्रोश है... मेरा किसी संत महंत या पुजारी से कोई वास्ता नहीं परन्तु सप्तरिषि आरती की प्राचीन व्यवस्था से बहुत लगाव है.. और ऐसा की अन्य काशीवासियों का भी है... मुझे उस दिन की सारी जानकारी इसलिए है क्योंकि लाकडाउन के बाद बाबा की आरती के लिए विजया मैं पीस के उन्हे प्रतिदिन देने गेट नम्बर एक पर जाता था... क्योंकि मुझे पता चला था कि लाकडाउन के कारण आरती के लिए विजया उपलब्ध नहीं हो पा रही थी.. और उस दिन भी मैं गया था.. और जो भी, हुआ मैं उसका प्रत्यक्षदर्शी रहा हूं...
एक दृष्टिकोण से सोंचें तो महंत परिवार का विशाल सिंह से या विशाल सिंह का महंत परिवार से कड़वाहट का ये नतीजा निकलेगा कि सबक सिखाने के जुनून में एक अधिकारी सप्तरिषि आरती की सैकड़ों वर्ष पुरानी परंपरा दांव पर लगा के बाजी जीतने की कोशिश करेगा .. सप्तरिषि अर्चकों को दफ्तर में बैठा के मानसिक प्रताड़ित किया जाएगा.. उनसे माफीनामा लिखवाया जाएगा.. और दावा किया जाएगा की सबकुछ सामान्य है.. ये बेहद ही शर्मनाक स्थिति है...
यदि किसी एक परिवार से दिक्कत थी तो उन्हें रोका जा सकता था.. गिरफ्तार किया जा सकता था नजरबंद किया जा सकता था.. जिसका सही गलत का फैसला प्रशासन नेता या विद्वान बाद में करते रहते..
परंतु सप्तरिषि आरती रोक कर विशाल सिंह जी ने मेरे हिसाब से जाने अनजाने में कठोर दंड पाने योग्य कार्य किया है..
विशाल सिंह विश्वनाथ धाम जैसे अधिग्रहण कर बनाए जाने वाले प्रोजेक्ट के लिए बहुत की काबिल अधिकारी हैं.. उनके जैसे अधिकारी के बिना ये प्रोजेक्ट होना असंभव था पर उसके साथ ही वो अहंकारी हैं.. वो धार्मिक परंपराओं को एक इवेंट से ज्यादा शायद नहीं समझते हैं.. ऐसे लोगों के हाथों मंदिर के ऐसे विषयों पर किसी भी प्रकार की कार्यवाही करने के अधिकार छीन लेने चाहिए...
इतनी अव्यवस्था के बीच भी काशी के विद्वान चुप हैं.. जन प्रतिनिधि भी ऐसे हैं जो जांच और बैठक की बातें कर रहे हैं.. कुछ लोग इसे मात्र मंदिर के पंडों का विषय समझ रहे हैं.. कुछ तो कहना है सप्तरिषि आरती का पुजारी बनने का अधिकार किसी को भी होना चाहिए.. अखाड़ों स्टेटों की बनी परंपरा का उन्हें पता नहीं.. कुछ इसलिए विशाल सिंह के कृत्य का समर्थन कर रहे हैं क्योंकि वो भाजपाई हैं या मंत्रियों से जुड़े हैं... सभासद या संगठन के पदाधिकारी स्तर के लोग तो एक दम अदृश्य हो गए लगते हैं.... मुझे सोशल मीडिया पर कुछ लोग तो ऐसे दिखे जो विशाल सिंह के सजातिय है मात्र इसलिए बिना घटना को जाने ही समर्थन करने लगे..
बाकी जिसको जो सोंचना है वो स्वयं सोंचे.. कि क्या काशी विश्वनाथ की परंपराओं पुजारी आदि का निर्णय लेने की व्यवस्था किसी अति उत्साही दबंग के हाथों शुद्ध या सुरक्षित रह सकती है क्या...??
दिक्कत ये भी है कि मीडिया और नेता इसे मात्र महंत परिवार तक ही सीमित मान कर बोल या लिख रहे हैं... जबकि महत्वपूर्ण है सप्तरिषि आरती ...जो कि किसी व्यक्ति के समर्थन या, विरोध से ऊपर की बात है...
मेरी काशी के जनप्रतिनिधियों और उच्चाधिकारियों से ये गुजारिश है कि वो काशी के विद्वानों से मिलें ... और इस घटना की गहराई को, समझें.. और सप्तरिषि आरती के अर्चकों के बारे में जल्द निर्णय लेॆ.. और उनके रहते हुए ऐसा पाप होने के लिए विशाल सिंह के, साथ स्वयं भी प्रायश्चित करें...a की क़लम से...
#सप्तरिषिआरतीक्याहैऔरसप्तरिषिआरतीकेअर्चकोंकारोकाजानाक्योंअतिकष्टदायकऔरचिंतनीय_है…..
काशी के ज्यादातर लोग और शायद विश्वनाथ मंदिर के CEO विशाल सिंह भी शायद सप्तरिषि आरती के इतिहास और परंपरा को नहीं जानते... और ना ही सप्तरिषि आरती करने वाले अर्चकों के बारे में जानते हैं..
मेरे ख्याल से वो सप्तरिषि आरती को महंत परिवार की निजी आरती भर ही जानते हैं.. जो बहुत बड़ी मूर्खता मात्र ही है..
कहने का तात्पर्य ये है कि शायद वो ये भी नहीं जानते कि ये अर्चक कैसे नियुक्त होते हैं..
मुझे तो ये भी लगता है कि काशी के ज्यादातर जनप्रतिनिधि भी इससे पूरी तरह अनभिज्ञ हैं.. क्योंकि यदि वो जानते होते तो यूं शांत ना बैठे होते और विवाद हल हो चुका होता.. ऐसा होने के जिम्मेदार दंडित हो चुके होते..
वो शायद इस आरती की विलक्षणता से परिचित ही नहीं हैं जबकि देश के अन्य हिस्सों से आने वाले भक्तों को इसके बारे में ज्यादा पता होता है.. खास कर महाराष्ट्र और दक्षिण से आने वाले भक्त इसके महत्व को ज्यादा जानते हैं..
जिन्होंने भी इस आरती को पूरे मनोयोग से देखा हो शायद वो मेरी बात को ज्यादा भलीभांति समझ सकता है..
इस आरती में विशेष स्वर है ...अद्भुत सुर है.. घंटियो घंटे और डमरू से बजाए जाने वाला संगीत है ... और हाथों और दीपक से की जाने वाली विभिन्न मुद्राएं भी हैं..
कुल मिला कर इस आरती को एक बार भी देखना बहुत बड़ा सौभाग्य ही कहा जा सकता है.. ये पूरे भारत की अनूठी आरती है..
मेरा विश्वनाथ मंदिर के यलो जोन में करीब 150 वर्ष पुराना मकान है.. मैं ना ही मंदिर से जुड़ा हूं और ना ही मैॆ ब्राम्हण हूं... मेरे दादा परदादा पिताजी सभी बाबा विश्वनाथ के नियमित भक्त रहे हैं.. और मैं भी उसी श्रृंखला का ही हूं.. उनके अनुसार किसी बड़े से बड़े विद्वान सगीतज्ञ को भी शुद्ध शैली में सप्तरिषि आरती करने के लिए बहुत मेहनत करने के बाद ही ये विधा प्राप्त हो सकती है..
दरअसल मैं भी कोई इतिहासकार नहीं हूं पर बड़े बुजुर्गों और काशी के शिवभक्तों के साथ उठा बैठा हूं.. उनसे प्राप्त जानकारी ही मेरे पास है...
पर सप्तरिषि आरती के अर्चकों को रोके जाने की घटना ने मुझे झकझोर दिया है..
तो मुझे लगा कि मुझे इसके बारे में मेरी जानकारी औरों से साझा करनी चाहिए..
दरअसल औरंगजेब द्वारा विश्वनाथ मंदिर तोड़े जाने के बाद जब मराठोॆं ने जवाबी हमला किया तो औरंगजेब द्वारा बीच का रास्ता निकालने की मजबूरी में उस वक्त वर्तमान के विश्वनाथ मंदिर बनने की नींव पड़ी ... और अहिल्याबाई होलकर द्वारा निर्माण सम्पन्न हुआ.. और उस वक्त की व्यवस्था में अहिल्याबाई व समस्त भारत के विद्वानों वर्तमान के महंत परिवार के पूर्वजों को महंत का विभिन्न स्टेटों और अखाडों को सप्तरिषि पूजा अर्चना का दायित्व मिला.. और सात रिषि नियुक्त किए गए.. जिस परंपरा के तहत ही आज के सप्तरिषि पुजारी आते हैं.. इस व्यवस्था में महंत परिवार को मुख्य अर्चक की भूमिका मिली जो आज तक चली आ रही है.. परन्तु महंत परिवार सप्तरिषि परंपरा के ना ही किसी अर्चक को नियुक्त कर सकते हैं ना ही हटा सकते हैं बल्कि सारे ही एक साथ सप्तरिषि आरती करने को बाध्य होते हैं...
परन्तु सप्तरिषि अर्चकों में सारे अर्चक महंत परिवार के मुख्य अर्चक की भांति वंशानुगत ही नहीं होते हैं.. इसमें हमेशा योग्यता ही मानक होती है.. यदि किसी अर्चक के परिवार में कोई इस आरती के योग्य नहीं होता है तो वो स्वयं द्वारा लम्बे समय तक प्रशिक्षित किसी शिष्य को ये जिम्मेदारी सौंप देता है.. वर्तमान, के लगभग सारे अर्चक भी उसी विधी से नियुक्त हुए हैं.. असमें कोई दो पीढ़ी से है तो कोई चार पीढ़ी से.. शायद ही कोई अहिल्याबाई द्वारा नियुक्त परिवार का हो.... क्योंकि ये संभव नहीं होता है कि सारे अर्चकों के पुत्र भी इस विधा को सीख सकें..
सप्तरिषि आरती के अर्चक मात्र इसी आरती के वक्त मंदिर में प्रवेश करते हैं और करीब घंटे भर की आरती के बाद अपनी डलिया के साथ मंदिर से निकल जाते हैं.. और चंदन प्रसाद देते हुए अपने घरों की तरफ चल देते हैं.. इस दौरान उन्हें जो दक्षिणा मिलती है वो ही इनकी आय होती है.. और इनकी आरती की डलिया में प्रतिदिन की आरती सामग्री भी विभिन्न भक्तों के सहयोग से आती है.. कोई मिष्ठान देता है कोई माला कोई विजया कोई दही तो कोई शहद तो कोई फल.. इनका मंदिर में रहने का कार्यकाल लगभक एक डेढ़ घंटे का होता.. और आरती के दौरान मंदिर प्रशासन द्वारा नियुक्त पुजारी भी मौजूद रहते हैं...
सारे ही सप्तरिषि के अर्चकों के घर के सदस्य आरती की डलिया तैयार करने में नियमित सहयोग करते हैं.. कोई चंदन घीसता है कोई भांग तो कोई माला बनाता है.. कोई डलिया आरती घंटी माज कर प्रतिदिन नए की भांति चमकाता रहता है... फिर मंदिर जाने के रास्ते में तय लोगों से ये पुजारी दूध दही फल भांग देने वाले नियम्त लोगों से नियमित तय समाग्री लेते हुए मंदिर जाते हैं.. कुल मिला आरती के आरती की डलिया और पुजारी के तैयार होने की प्रक्रिया घंटों की होती है इसके अलावा आरती के बाद की प्रक्रिया भी वैसी ही घंटों की होती है..
महंत परिवार के अलावा सारे अर्चक बेहद ही सामान्य जीवन यापन करने वाले और आम जीवन में बेहद मर्यादित होते हैं.. कुछ तो आज तक किराए के मकानोॆ में भी रहते हैं..
और सबसे बड़ी बात कि ये कि ये कि ये दिनभर मंदिर के ईर्द-गिर्द घूमने वाले पंडों की तरह नहीं होते... जो यात्रियों से पैसे ऐंठते हैं...
और ये अर्चक वर्षों की कड़ी मेहनत और प्रशिक्षण के बाद तैयार होते हैं.. फिर जीवन भर वो इसी कार्य को करते चले जाते हैं...
जबकि मैने कइयों से बात की तो अहसास हुआ कि लोग पूरी तरह से इस बात से अनभिज्ञ हैं.. वो इसे भी वैसी ही आरती समझते हैं जिसे कोई भी कर सकता है..
पर सच यही है कि सप्तरिषि आरती वही कर सकता है जिसने इसके लिए अपना जीवन समर्पित किया हो...
परन्तु मंदिर प्रशासन ने इसे एक प्रोजेक्ट भर समझा... विद्वानों द्वारा बनाई परंपरा को अपने अहंकार वश एक अभिनय भर माना और जिस विद्वानोॆ द्वारा बनाई व्यवस्था ने आज तक आरती की इस शैली संजोया उसे ध्वस्त कर दिया.. और मुख्य अर्चक या अन्य सप्तरिषि अर्चक बनने का स्वप्न पाले कुछ लोगों को मिला कर आरती का वीडियो प्रसारित कर दिया... पर जो लोग सप्तरिषि आरती का सदैव आनंद लेते रहे हैं वो अभी होने वाली आरती देख कर ये आसानी से समझ सकते हैं कि इसमें देखने भर से ये पता चल जा रहा है कि इसमें उर्जा स्वर भावभंगिमा आदि की असंख्य त्रुटि हो रही है जो मूल सप्तरिषियों के बिना हो पाना असंभव ही है..
कहते हैं कि पहले कहा जाता था कि काशी में शव और सप्तरिषि की राह में कभी बाधा नहीं हो सकती.. पर हो ही गई..
मैं ये मानता हूं कि विशाल सिंह और महंत परिवार में शुरू से ही खींचा तानी आरोप प्रत्यारोप आदी चलता रहा है.. कभी एक भारी तो कभी दूसरा... पर हर विषय विधिक तरीके से चल रहा था...
कैलाश मंदिर के गुम्बद टूटने के बारे में कुछ अफवाह उड़ी या उड़ाई गई.. ये व�