प्रोफेसर योगेंद्र सिंह के निधन से उनका अकादमिक परिवार भी मर्माहत : डॉ प्रमोद कुमार शुक्ला
( डॉ प्रमोद कुमार शुक्ला, समन्वयक, राजीव गांधी स्टडी सर्किल, गोरखपुर, एवं पूर्व अध्यक्ष, एन एस यू आई , जे एन यू , नई दिल्ली , )
वैश्विक समाजशास्त्रीय क्षितिज पर दैदीप्यमान विख्यात भारतीय समाजशास्त्री , जवाहरलाल नेहरु विश्विद्यालय के अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त समाजशास्त्र विभाग के शिल्पी प्रोफेसर योगेन्द्र सिंह के निधन पर राजीव गांधी स्टडी सर्किल ,गोरखपुर ने गहरा शोक व्यक्त किया।
डॉ प्रमोद कुमार शुक्ला, समन्वयक, राजीव गांधी स्टडी सर्किल, गोरखपुर, एवं पूर्व अध्यक्ष, एन एस यू आई , जे एन यू , नई दिल्ली, ने जूम ऐप पर आयोजित शोकसभा की अध्यक्षता करते हुए कहा कि 2 नवम्बर 1932 को उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले में जन्मे, प्रोफेसर योगेंद्र सिंह ने 1967-68 में स्टेनफोर्ड वि०वि०से फुलब्राइट फेलोशिप, जोधपुर वि०वि०राजस्थान से प्रारंभ अपनी सफर, 1971 से जवाहरलाल नेहरु वि०वि०में प्रोफेसर व इंडियन सोशियोलाजिकल सोसाइटी के अध्यक्ष पद पर रहे।2007 में इन्हें इंडियन सोशियोलाजिकल सोसाइटी के लाईफ टाईम एचीवमेंट अवार्ड व मध्यप्रदेश सरकार द्वारा बेस्ट सोशल सांइटिस्ट अवार्ड ले चुके डॉक्टर सिंह का समाजशास्त्र के क्षेत्र में अतुलनीय योगदान रहा।इनके दर्जनों पुस्तकों में से "मार्डनाइजेशन आफ इंडियन ट्रेडिशन"(1973),"एसेय आन मार्डनाइजेशन"(1977) एवं "सोशल स्ट्राटिफिकेशन एंड सोशल चेंज इन इंडिया "ने काफी ख्याति प्राप्त की।
प्रो. योगेंद्र सिंह सामाजिक परिवर्तन के सिद्धांतकार और भारतीय समाजशास्त्र के वरिष्ठतम आचार्य थे. उन्होंने आधुनिकीकरण, सामाजिक विषमता और अहिंसा के समाजशास्त्र के क्षेत्रों में विशिष्ट योगदान किया ।महत्वपूर्ण है, कि उनके पढ़ाए विद्यार्थी पूरे भारत में और विदेशों में भी वरिष्ठ समाजशास्त्रियों में गिने जाते हैं।उनके बहुमूल्य योगदान के लिए भारतीय समाजशास्त्र परिषद समेत अनेकों संस्थाओं द्वारा सम्मानित भी किया गया था. देश-विदेश में कार्यरत प्रशंसकों ने उनके ७५ बरस पूरे करने पर पाँच खंडों का अभिनंदन ग्रंथ समर्पित किया था. उनकी पुस्तकों की लंबी सूची में भारत के आधुनिकीकरण के परिणामों और समस्याओं के सभी आयामों की बार बार समीक्षा की गयी है।भारतीय समाज और समाजशास्त्र के विगत दशक में विकसित अंतर्संबंध पर भारतीय समाजविज्ञान परिषद के अनुरोध पर उनके द्वारा संपादित तीन पुस्तकें (२०१३) उनका महत्वपूर्ण अंतिम योगदान माना जाता है।