लॉकडाउन, शराब पर्व और मजदूर परिवारों के भूखों मरने की नौबत – प्रोफेसर डॉ. योगेन्द्र यादव
कोरेना संक्रमण की वजह से देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा उठाया गया लॉक डाउन के कदम की मीडिया जगत ने खूब सराहना की। जनसंख्या की दृष्टि से विश्व के दूसरे सबसे बड़े देश में संक्रमण रोकने के लिये इससे बेहतर कोई कदम नहीं हो सकता है। इस बात को सभी मानते हैं। भारतीयों की आदतों, व्यवहार के अध्येयता इस बात को स्वीकार करते हैं । लॉक डाउन के साथ इस देश का गरीब से गरीब और अमीर से अमीर तबका प्रभावित न हो, इसके लिए देश के प्रधानमंत्री ने अमीरों, सेवाभावियों से अपील की कि महामारी की इस घड़ी में वे अपने सामाजिक दायित्व का निर्वहन करें, जिससे देश में कोई भी व्यक्ति भूखा न सोये। उनकी अपील का असर पड़ा, और आगे आए, और दूसरे दिन से ही लोगों ने मास्क, डिटोल, सहित राशन और खाद्य सामाग्री का वितरण शुरू कर दिया । प्रधानमंत्री द्वारा घोषित लॉक डाउन का 21 दिनी पहला चरण कब पूरा हो गया, इसका देश की जनता को पता भी नहीं चला। इस चरण के दौरान कुछ लोगों के बहकाने की वजह से कहीं-कहीं अपने घरों से दूर फंसे प्रवासी मजदूरों ने जरूर कुछ अप्रियकर कदम उठाए। लेकिन सरकार की सख्ती और उनकी खाने-पीने की व्यवस्था हो जाने की वजह से वे पीछे हट गए। और जहां रह रहे थे, वहीं रहने लगे। पहला चरण समाप्त होने के बाद जब दूसरा चरण शुरू हुआ, तो बिना काम धंधे के जो मजदूर अपने घरों से दूर दूसरे प्रदेशों में फंसे थे। वे अधीर हुए। विभिन्न माध्यमों से अपनी बात प्रधानमंत्री और स्थानीय प्रशासन तक पहुँचाने में कामयाब हुए। विपक्षी दलों ने भी उनकी भावनाओं के अनुरूप उनका साथ दिया और लगातार केंद्र और प्रदेश सरकारों पर ट्रेन और बस चला कर उन्हें उनके घर भेजने की मांग करते रहे। लॉक डाउन का तीसरा चरण आते – आते उनकी यह भी मांग मान ली गई, और केंद्र सरकार द्वारा विशेष ट्रेन चला कर उन्हें उनके घर भेजा जा रहा है। इसके बाद संबन्धित राज्य सरकारें बस द्वारा उनके गाँव भेज रही हैं। जहां उन्हें 14 दिनों के लिए क्वारंटीन किया जा रहा है ।
लॉक डाउन से सिर्फ मजदूरों, गरीबों और मज़लूमों की ही हालत खराब हो, ऐसी बात नहीं है। यहाँ के मध्यम वर्ग के माथे पर भी चिंता की लकीरें देखी जा रही हैं। खैर मध्य वर्ग से लेकर मजदूर, मजलूम और गरीबों के सामने भूखे सोने की समस्या नहीं आई । सरकार ने भी उनके नियमित भोजन की व्यवस्था की। समाजसेवियों ने भी उसमें अपना अमूल्य योगदान दिया। इस दौरान सरकार ने अपनी घोषणा के अनुसार लोगों को राशन देने का भी कार्य शुरू किया । लेकिन उतने राशन से परिवार से प्रत्येक सदस्य को महीने भर पेट भोजन नहीं मिल सकता था। कुछ विपक्षी दलों ने इस ओर सरकार का ध्यान आकर्षित करने की चेष्टा की। लेकिन लॉक डाउन की पाबंदियों के कारण उनकी इस मांग पर अमल नही हुआ। दूसरी ओर राशन वितरण होने के पश्चात गरीब बस्तियों में जो भोजन वितरण की व्यवस्था थी, उसमें भी कमी देखी गई। पहले चरण की तरह सुबह शाम भोजन की वितरण व्यवस्था पर प्रभाव पड़ा । उन्होने दोनों टाइम की जगह एक टाइम भोजन देना शुरू किया । लेकिन तीसरा चरण आते – आते इस व्यवस्था में और नरमी देखी गई। जहां एक ओर समाजसेवियों की अपनी क्षमता जवाब दे गई। वहीं सरकार की ओर से की व्यवस्था के अनुसार अब उस क्षेत्र के सिपाही दो दिन में एक बार भोजन लेकर आने लगे। खैर इसके बावजूद भी किसी के भूखे सोने या भूखे मरने की नौबत नहीं आई। लेकिन तीसरे चरण में सरकार की ओर से जो शराब की दुकाने खोलने का निर्णय लिया गया । उससे गरीबों, मजदूरों और मज़लूमों की सेहत पर असर पड़ेगा। ऐसी संभावना बुद्धिजीवियों द्वारा व्यक्त की गई ।
महामारी के इस मुश्किल समय में राजस्व का भी संकट है। अगर सरकार के पास पैसा आयेगा नहीं, तो लॉक डाउन के दौरान चलाई जा रही कल्याणकारी योजनाओं को चलाएगी कैसे ? अपने कर्मचारियों को वेतन का भुगतान कहाँ से करेगी ? इसके अलावा प्रदेश और देश की विकासात्मक योजनाओं का संचालन भी संभव नहीं है। इसी कारण सरकार ने लॉक डाउन की बाध्यताओं को ध्यान में रखते हुए शराब की दुकाने खोलने का निर्णय लिया। जिसकी सोशल मीडिया पर तीखी प्रतिक्रिया हुई । लोगों ने अपने –अपने तरीके से विरोध किया। अपने – अपने पक्ष में दलीले भी दी। लेकिन फिर भी सरकार अपने निर्णय पर अडिग रही और यह लेख लिखे जाने तक सभी शराब की दूकाने खुलने की सूचना है ।
सवाल यह है कि शराब की दूकाने खुलने के निर्णय पर समाजवादी चिंतकों ने इतनी हाय-तौबा क्यों मचाई है ? जब इस मैंने विचार किया और कई समाजवादी चिंतकों से चर्चा की, तो उन्होने बताया कि मजदूर और गरीब तबके में सबसे बुरी लत शराब पीने की है। आम दिनों में वह अपनी मेहनत की कमाई का अधिकांश हिस्सा वह शराब और उससे जनित बीमारियों पर उड़ा देता है । उसने जो कमा कर रखा हुआ था। उससे अभी तक लॉक डाउन के दौरान उसका काम चल रहा था। उनका कहना है कि सिर्फ चावल या गेहूं दे देने से ही तो भोजन नहीं मिल जाएगा। भोजन पकाने में इसके अलावा भी और भी जरूरतें होती है, जिसकी आपूर्ति वह अपनी की बचत से कर रहा था। शराब की दूकाने बंद होने के कारण उसने अपना मन मार लिया था। जिसकी वजह से उसकी बचत का उपयोग परिवार और बच्चों के खाने-पीने के लिए हो रहा था। लेकिन आज के बाद ऐसा नहीं होगा। मजदूर और गरीब तबका पीने के लिए कोई न कोई बहाना जरूर खोज लेगा। और शाम तक लॉक डाउन का पूर्ण पालन करते हुए ठेके पर पहुँच जाएगा। वहाँ से शराब खरीदेगा और फिर कहीं सूनसान जगह बैठ कर नमक चाट कर दारू गटक जाएगा । इसके बाद जब वह घर लौटेगा, तो फिर घर में कलह शुरू होगी। पति-पत्नी, पिता-पुत्र में लड़ाई होगी और घर में खाने को कुछ न होने के कारण फिर सभी लोग बड़े-बूढ़े पानी पीकर या सोचते-सोचते, एक दूसरे को भला बुरा कहते हुए सो जाएंगे। हो सकता है कि एकाध हफ्ते उन पर प्रभाव न पड़े, लेकिन जल्द ही भुखमरी की स्थिति आ जाएगी। एक बड़ी चुनौती समाज और सरकार दोनों के सामने उपस्थित होगी। शराब की दूकाने खोलने की वजह से सरकार को राजस्व की प्राप्ति तो होगी, लेकिन इस चुनौती का वह सामना कैसे करेगी ? उसके लिए कठिन होगा। क्योकि वह गरीबों, मजदूरों और मज़लूमों की नशा की आदतों को बदल नहीं सकती। वे जब एक बार पीना शुरू करते हैं, तो फिर उधार लेकर उनकी पीने की आदत के कारण वे तब तक पीते हैं, जब तक वे पस्त नहीं हो जाते हैं। कुछ तो कोरेना मारने के नाम पर पीने लगेंगे। और अपने इस कदम को सही ठहराते हुए नए-नए शिगूफ़े गढ़ेंगे ।
देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और समस्त प्रदेश सरकारों के मुख्यमंत्रियों को इस समस्या पर भी विचार करके शराब की दूकाने खोलने के साथ –साथ कोई न कोई नीति भी बनानी होगी। नहीं तो लॉक डाउन के समय जिस शुचिता का अभी तक पालन हुआ है, उसका पालन बहुत मुश्किल हो जाएगा। शराब पीकर व्यक्ति वैसे ही हैवान हो जाता है । इस कारण तमाम ऐसे लोग जो कोरेना वायरस से संक्रमित होंगे, दूसरों के संपर्क में जबर्दस्ती आकर संक्रमण फैलाने का काम करेंगे। अभी तो वे पुलिस द्वारा भी संभाल लिए जा रहे है, पीने के बाद तो उन्हें पुलिस भी नहीं संभाल पाएगी। इस तरह से लॉक डाउन और सोशल डिस्टेन्सिंग का पालन कराने और उसे तोड़ने के अपराध में रोज तमाम शराबी थानों में बिठाये मिलेंगे । पुलिस भी उन्हें भूखे तो मार नहीं सकती, और लॉक डाउन के कारण उसके घर वाले भी नहीं आ सकते, इस कारण उन्हें खिलाने का उत्तरदायित्व भी थानों को निर्वहन करना पड़ेगा।
शराब की लंबी-लंबी कतारों से जिस तरह सोशल डिस्टेन्सिंग की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं, उससे लॉक डाउन ही अर्थहीन प्रतीत हो रहा है। जो लोग कल तक किसी के दिये भोजन के सहारे अपनी भूख मिटा रहे थे, वे आज का दिन शराब पर्व की तरह मना रहे है। शराब खरीदने के साथ ही उसका प्रदर्शन भी हो रहा है । लोगों को तसल्ली भी नही है, एक नहीं, दो नहीं, तीन-तीन बोतल शराब लोग दुकानों से खरीद रहे हैं। सरकार को शराब की दूकाने खुलवाने के पहले यह व्यवस्था कर लेना चाहिए कि वहाँ पर लॉक डाउन के दौरान जो वंदिशें लागू की गई हैं, वे लागू हो रही हैं कि नहीं। एक बारे नए सिरे से सरकार और प्रशासन दोनों को इस पर विचार करना चाहिए । अन्यथा यह आत्मघाती कदम होगा। देश की जनता द्वारा अभी तक किए गए त्याग पर पानी फिर जाएगा ।
प्रोफेसर डॉ योगेन्द्र यादव
पर्यावरणविद, शिक्षाविद, भाषाविद,विश्लेषक, गांधीवादी /समाजवादी चिंतक, पत्रकार, नेचरोपैथ व ऐक्टविस्ट